Tuesday, 31 October 2023

इंदिरा गांधी के उतार चढ़ाव भरे राजनीतिक जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है / विजय शंकर सिंह

आज ही के दिन, साल 1984 में, पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की दिल्ली में, उनकी निर्मम हत्या कर दी गई थी। इंदिरा, जितनी सराही जाने वाली नेता थीं, उतनी ही उनकी आलोचना भी होती है। कांग्रेस सिंडिकेट ने, गूंगी गुड़िया को, कठपुतली की तरह, अपने इशारे पर काम करने के लिये, 1967 में प्रधानमंत्री मनोनीत कराया था। पर 1969 तक आते आते यह गूंगी गुड़िया इतनी मुखर हो गयी कि कांग्रेस के पुराने महारथी अपने लंबे अनुभव और अपनी सांगठनिक क्षमता की थाती लिए दिए ढह गये। 

कांग्रेस में एक नए स्वरूप का जन्म हुआ। तब हेमवती नंदन बहुगुणा ने कहा था, इंदिरा गांधी आयी हैं, नयी रोशनी लायीं है। यह नयी रोशनी, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के रूप में। यह कांग्रेस के अर्थनीति में बदलाव के काल के रूप में देखा गया। नयी पार्टी, पहले तो इंदिरा कांग्रेस या कांग्रेस आई,  कहलाई पर धीरे धीरे वह लोकप्रिय होती गयी और  पुरानी कांग्रेस संगठन कांग्रेस के नाम से चलते चलते 1977 में जनता पार्टी में विलीन होकर फिर  समाप्त हो गयी और इंदिरा कांग्रेस ही मूल कांग्रेस के रूप में स्थापित हो गयी।

1971 में उनके नेतृत्व की वास्तविक पहचान हुयी। किसी के भी नेतृत्व की परख, संकटकाल में ही होती है। जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है तो लोगों का दिमाग नेतृत्व के गुण अवगुण पर कम ही जाता है। पर संकट काल मे नेतृत्व उस संकट से कैसे देश या संस्था को निकालता है इसकी परख संकट में ही होती है। 1971 में पाकिस्तान का भारत पर हमला, अमेरिका का पाकिस्तान को हर प्रकार का समर्थन, यह इंदिरा गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन कर आया। 

पर वे सफल रहीं और बांग्लादेश का निर्माण, पाकिस्तान की करारी हार, अमेरिका को जबरदस्त जवाब दे कर उन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी धाक जमा ली और वे देश की निर्विवाद रूप से समर्थ नेता बनीं। कूटनीति के क्षेत्र में भी रूस से बीस साला सैन्य मित्रता करके उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा। 

पर इतनी सारी उपलब्धियां, बहादुरी के किस्से, सब 1975 आते आते भुला दिए गए, जब 26 जून को इमरजेंसी लगी तो । जनता भूलती भी बहुत जल्दी है और भुलाती भी जल्दी है। यह इंदिरा का अधिनायकवादी रूप था। प्रेस पर सेंसर लगा। पूरा विपक्ष जेल में डाल दिया गया। कारण बस एक ही था वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपने चुनाव की याचिका हार चुकी थी।  देश मे बदलाव हेतु सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहा था। वे चाटुकारों से घिर गई थी। इंदिरा इंडिया हैं और इंडिया इंदिरा कही जाने लगी थी। 

इतनी सराही गयी नेता को भी जनता ने बुरी तरह नकार् दिया और वे 1977 में विपक्ष में आ गई। वे खुद अपना चुनाव हार गयीं। 1977 के चुनाव में यूपी बिहार में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। जनता की नब्ज नेताओ को पहचाननी चाहिये। राजनीति में न कोई अपरिहार्य होता है और न ही विकल्पहीनता जैसी कोई चीज होती है। शून्य यहां नहीं होता है। कोई न कोई उभर कर आ ही जाता है। इंदिरा 1977 से 1980 तक विपक्ष में थीं। 

1980 में फिर वे लौटीं। 1984 में उनकी हत्या कर दी गयं। उनका इतिहास बेहद उतार चढ़ाव भरा रहा। वे जिद्दी, तानाशाही के इंस्टिक्ट से संक्रमित, लग सकती हैं और वे थीं भी पर देश के बेहद कठिन क्षणों में उन्होंने अपने नेतृत्व के शानदार पक्ष का प्रदर्शन किया। जब वे सर्वेसर्वा थी। भारत की राजनीति में विपक्ष में प्रतिभावान और दिग्गज के नेताओं के होते हुए भी सब पर भारी रहीं तो बीबीसी के पत्रकार और उनके स्वर्ण मंदिर कांड पर एक चर्चित पुस्तक लिखने वाले मार्क टुली ने मज़ाक़ मज़ाक़ में ही लेकिन सच बात कह दी थी कि,
 " पूरे कैबिनेट में वे अकेली मर्द थी। "
इतिहास निर्मम होता है। वह किसी को नहीं छोड़ता। सबका मूल्यांकन करता है। 

इंदिरा के जीवन, राजनीति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के अध्ययन से हम यह सीख सकते हैं राजनीति में सफल से सफल व्यक्ति के पतन के पीछे सबसे बड़ा कारण चाटुकारों की मंडली होती हैं। साथी जब सहकर्मी या कॉमरेड न रह कर दरबारी हो जाते हैं तो यह अतिशयोक्तिवादी चाटुकार मंडली अंततः नेता के पतन का कारण बनती हैं। ऐसे तत्व हर वक़्त यह कोशिश करते हैं कि नेता बस उन्ही की नज़रों से देखें और उन्ही के कानों से सुने। वे प्रभामण्डल का ऐसा ऐन्द्रजालिक प्रकाश पुंज रचते हैं कि उस चुंधियाये माहौल में सिवाय इन चाटुकारों के कुछ दिखता ही नहीं है। 

राजनीति में जब नेता खुद को अपरिहार्य और विकल्पहीन समझ बैठता है तो उसका पतन प्रारंभ हो जाता है। 1975 में ही इंदिरा के पतन की स्क्रिप्ट तैयार होना शुरू हो गयी थी। राजनेता उनके इस अधिनायकवादी  काल के परिणाम से सबक ले सकते हैं। 

आज इंदिरा गांधी की शहादत दिवस पर, उनका विनम्र स्मरण और श्रद्धांजलि….

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Monday, 30 October 2023

सरकार उवाच ~ नागरिकों को इलेक्टोरल बांड के धन का स्रोत जानने का कोई अधिकार नहीं है / विजय शंकर सिंह

भारत के अटॉर्नी जनरल, आर वेंकटरमणी ने चुनावी बांड मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर याचिकाओं पर जारी एक नोटिस के जवाब में सरकार का पक्ष रखते हुए एक बयान में कहा है कि, "नागरिकों को एक राजनीतिक दल की फंडिंग के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत जानकारी प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है।"
एजी ने चुनावी बांड योजना को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं के इस तर्क से असहमत होते हुए, खारिज कर दिया कि, "नागरिकों को एक राजनीतिक दल के वित्त पोषण के स्रोत के बारे में जानने का अधिकार है।"

एजी ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, "सबसे पहले, उचित प्रतिबंधों के बिना, कुछ भी और सब कुछ जानने का कोई सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है। दूसरे, अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक जानने का अधिकार, विशिष्ट और खास उद्देश्यों के लिए तो हो सकता है, अन्यथा नहीं।"
उन्होंने आगे कहा है कि "उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास के बारे में जानने के नागरिकों के अधिकार को बरकरार रखने वाले निर्णयों का यह अर्थ, नहीं लगाया जा सकता है कि उन्हें, पॉलिटिकल पार्टियों के वित्तपोषण के बारे में जानकारी का अधिकार मिल गया है।"

यह कहते हुए कि, "वे (आपराधिक इतिहास के बारे में जानने का अधिकार वाले) निर्णय, चुनावी उम्मीदवारों के बारे में, चुनाव के दौरान, अपना विकल्प बनाने और उनके अतीत की पृष्ठभूमि को जानने के संदर्भ में थे।"
सरकार के शीर्ष कानून अधिकारी अटॉर्नी जनरल ने कहा कि, "इस तरह के ज्ञान तक सीमित जानकारी "नागरिकों की दोषमुक्त उम्मीदवारों को चुनने की पसंद के विशिष्ट उद्देश्य" को पूरा करती है। इस प्रकार विशिष्ट उचित अभिव्यक्ति के लिए, जानने के अधिकार की कल्पना की गई थी। लेकिन, इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि सामान्य या व्यापक उद्देश्यों के लिए, जानने का अधिकार अनिवार्य रूप से जनता को मिल जाता है। इसलिए, इन फैसलों को, यह मानकर नहीं पढ़ा जा सकता कि, किसी नागरिक को 19(1)(ए) के तहत राजनीतिक दल की फंडिंग के संबंध में भी, सूचना पाने का अधिकार है।"
वे आगे कहते हैं, "यदि अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत कोई अधिकार (नागरिकों को) प्राप्त नहीं है, तो अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंध लगाने का सवाल ही नहीं उठता है।"

० अब एक नजर, अनुच्छेद 19(1) ए के प्राविधान पर..

अनुच्छेद 19(1)(ए),  सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसमें न केवल मौखिक शब्द शामिल हैं, बल्कि लेखन, चित्र, फिल्में, बैनर आदि के माध्यम से भाषण भी शामिल है। बोलने के अधिकार में न बोलने का अधिकार भी शामिल है। इस अनुच्छेद के तहत प्रेस की स्वतंत्रता एक अनुमानित स्वतंत्रता है। इस व्याख्या के अनुसार सूचना का अधिकार (आरटीआई) एक मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला सुनाया है कि बोलने की स्वतंत्रता जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) के साथ एक अपरिहार्य अधिकार है। ये दोनों अधिकार अलग-अलग नहीं बल्कि संबंधित हैं।

० अदालत के समक्ष याचिकाओं का संदर्भ

वित्त अधिनियम 2017 ने चुनावी बांड के लिए, सरकार ने, भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, कंपनी अधिनियम, आयकर अधिनियम, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम में भीसंशोधन पेश किए। साथ ही, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 (आरपीए) की धारा 29 सी में किए गए 2017 के संशोधन के आधार पर, एक दानकर्ता भुगतान के इलेक्ट्रॉनिक तरीकों का उपयोग करके और केवाईसी (अपने ग्राहक को जानें) आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद निर्दिष्ट बैंकों और शाखाओं में चुनावी बांड खरीद सकता है।  .  

हालाँकि, राजनीतिक दलों को भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को इन बांडों के स्रोत का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है। अन्य महत्वपूर्ण बिंदु हैं, 
० इन बांड को 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये या 1 करोड़ रुपये के गुणकों में किसी भी मूल्य पर खरीदा जा सकता है। 
० चुनावी बांड में दानकर्ता का नाम नहीं होगा। 
० बांड जारी होने की तारीख से 15 दिनों के लिए वैध होगा, जिसके भीतर भुगतानकर्ता-राजनीतिक दल को इसे भुनाना होगा। 
० आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13ए के तहत आयकर से छूट के उद्देश्य से बांड के अंकित मूल्य को एक पात्र राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से आय के रूप में गिना जाएगा।

चुनावी बांड को चुनौती देने वाली याचिकाएँ, राजनीतिक दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) सीपीएम, और गैर सरकारी संगठन, कॉमन कॉज़ और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर की गई हैं, जो इस योजना को "एक अस्पष्ट फंडिंग प्रणाली जो किसी भी प्राधिकरण द्वारा अनियंत्रित है" के रूप में चुनौती देती है।  याचिकाकर्ताओं ने यह आशंका भी व्यक्त की कि कंपनी अधिनियम 2013 में संशोधन से "नीतिगत विचारों में राज्य के लोगों की जरूरतों और अधिकारों पर निजी कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता मिलेगी।"

इस बारे में, मार्च 2019 में, भारत के चुनाव आयोग ने एक हलफनामा दायर किया जिसमें कहा गया कि गुमनाम चुनावी बांड योजना एक "प्रतिगामी कदम" थी क्योंकि इसका राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। हालांकि, 2021 में, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी बांड जारी करने पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

० सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष 

सुप्रीम कोर्ट की नोटिस के उत्तर में, अटॉर्नी जनरल ने शीर्ष अदालत में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा, "चुनावी बांड योजना किसी भी व्यक्ति के मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है और इसे संविधान के भाग III के तहत किसी भी अधिकार के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता है। इस तरह की प्रतिकूलता के अभाव में, योजना अवैध नहीं होगी। जो कानून इतना प्रतिकूल नहीं है, उसे किसी अन्य कारण से रद्द नहीं किया जा सकता है। न्यायिक समीक्षा बेहतर या अलग नुस्खे सुझाने के उद्देश्य से तो की जा सकती है पर, राज्य की नीतियों को स्कैन करने के बारे में नहीं है।"  

सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ, 31 अक्टूबर को चुनावी बांड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई शुरू कर रही है।पीठ में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा शामिल हैं।  16 अक्टूबर को, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की 3-जजों की पीठ ने "उठाए गए मुद्दे के महत्व को देखते हुए, इस मामले को 5-जजों की पीठ के पास भेज दिया था।  इससे पहले, सीजेआई चंद्रचूड़ उन याचिकाओं पर सुनवाई करने के लिए सहमत हुए थे - जो 2017 में दायर की गई थीं। याचिकाकर्ताओं ने आग्रह किया था कि, मामले की सुनवाई आगामी आम चुनाव से पहले की जाए।

एजी ने यह भी कहा है कि यह योजना स्वच्छ धन के योगदान और कर दायित्वों के पालन को बढ़ावा देती है।"
एजी आगे कहते है, “विचाराधीन योजना योगदानकर्ता को गोपनीयता का लाभ प्रदान करती है।  यह योगदान किए जा रहे स्वच्छ धन को सुनिश्चित और बढ़ावा देता है।  यह कर दायित्वों का पालन सुनिश्चित करता है।  इस प्रकार, यह किसी भी मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।  एक संवैधानिक न्यायालय राज्य की कार्रवाई की समीक्षा केवल तभी करता है जब वह मौजूदा अधिकारों का अतिक्रमण करता है, न कि इसलिए कि राज्य की कार्रवाई ने संभावित अधिकार या अपेक्षा चाहे वह कितनी भी वांछनीय क्यों न हो, प्रदान नहीं की है।“

एजी ने यह भी तर्क दिया है कि, "नए कानून के परीक्षण के पहलू पर सार्वजनिक और संसदीय बहस में विचार किया जाना चाहिए।  उन्होंने आगे कहा कि यह अदालत द्वारा संचालित दिशानिर्देशों का मामला नहीं है। इसके अतिरिक्त, जब न्यायालय पहली बार किसी पहलू को अधिकार के हिस्से के रूप में घोषित करने के लिए, आगे बढ़ता है, तो यह शक्तियों के पृथक्करण के अनुरूप होगा न कि, किसी अधिकार के नए बताए गए पहलू के साथ, कानून की समीक्षा या परीक्षण करने का विषय वापस ले लिया जाएगा।"

अटॉर्नी जनरल ने अपनी बात कहते हुए कहा,
"सार्वजनिक और संसदीय बहसें, यह न्यायालय द्वारा संचालित दिशानिर्देशों का भी मामला नहीं है।  राजनीतिक दलों के योगदान का लोकतांत्रिक महत्व है और यह राजनीतिक बहस के लिए एक उपयुक्त विषय है और किसी दबाव से मुक्त शासन की जवाबदेही की मांग का मतलब यह नहीं है कि, अदालत स्पष्ट संवैधानिक रूप से अपमानजनक कानून के अभाव में ऐसे मामलों पर फैसला सुनाने के लिए आगे बढ़ेगी।"

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

 

Sunday, 29 October 2023

भारत की विदेशनीति की प्राथमिकता में पड़ोसी मुल्क और चीन की आक्रामक कूटनीति / विजय शंकर सिंह

विदेश में जाकर अपने ही नागरिकों के सामने आत्ममुग्ध होकर, स्वदेशी एनआरआई के दान और सरकारी धन से, एक बढ़िया इवेंट को संबोधित करना, एक निजी डंका वादन तो हो सकता है, पर वह कोई सार्थक कूटनीति या विदेशनीति का सोपान नहीं हो सकता है। दुनिया का कोई भी राष्ट्राध्यक्ष अपने विदेशी दौरे पर, शायद ही, ऐसे तमाशे करता हो, जैसे तमाशे हमारे प्रधानमंत्री जी अपने हर विदेश दौरे पर करते रहते हैं। इन तमाशों से, विश्व राजनीति को नियंत्रित करने वाले, बड़े देशों की बात तो, थोड़ी परे रखिए, पहले अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ हमारे संबंध, किस प्रकार से, पिछले दस साल में ठंडे होते रहे हैं इस पर एक निगाह डाल लें।

पहले, पाकिस्तान की ही चर्चा करें, जो एक घोषित शत्रु देश है। हालांकि लिखापढ़ी में वह, कभी, मोस्ट फेवर्ड नेशन भी रह चुका है। उससे तो हमारा संबंध अच्छा है ही नहीं और हम उससे और, वे हमसे, बेहतर संबंध रखने की इच्छा रखते हुए भी, दोनों ही एक दूसरे से ऐसी पहल करते हुए कतराते है। इसका कारण, पाकिस्तान में पाक सेना की भूमिका, जिसका दबाव लंबे समय से पाकिस्तान की सरकार पर रहा है। एक कहावत भी बड़ी मशहूर रही है, हर देश की सरकार, एक सेना रखती है, जबकि पाकिस्तान की सेना, एक सरकार भी रखती है। पाकिस्तान की आवाम भी, अपने सेना की इस बेजा दखलंदाजी को पसंद नहीं करती है, पर राजनीतिक अस्थिरता और बौना राजनीतिक नेतृत्व, सेना के चंगुल से, निकलने के लिए फड़फड़ाता तो रहता है, पर निकल नहीं पाता।

इधर हमारे यहां, सत्तारूढ़ दल और उसके थिंक टैंक की अपनी सोच, भी इस परस्पर रिश्ते के सामान्यीकरण में एक बाधा है, जिसकी पूरी राजनीति ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और पाकिस्तान विरोधी दृष्टिकोण पर टिकी है। साथ ही, पाक प्रायोजित आतंकवाद, कश्मीर, पीओके आदि तो स्थाई पेंच हैं ही, जो रिश्तों के बीच तनाव शैथिल्यता के हर कदम को विफल कर देते हैं। पाकिस्तान जो कभी अमेरिकापरस्त था और जिसके बारे में एक बात बराबर कही जाती रही है कि, पाकिस्तान का वजूद ही, अल्लाह, आर्मी और अमेरिका के भरोसे है। वही पाकिस्तान, आज चीन की गोद में बैठ गया है और अब चीन के चंगुल से निकलना उसका मुश्किल है लेकिन फिर भी उसकी कूटनीति का झुकाव अमेरिका की तरफ दिखता रहता है। 

'अस्त्युत्तर दिशी देवात्मनाम हिमालयो नाम नगाधिराज' की तलहटी में स्थित नेपाल से तो भारत का नाभिनाल का संबंध है। धर्म, जाति व्यवस्था, आस्था, व्यापार, संस्कृति, खानपान, भौगोलिक स्थिति, आदि उसे भारत के अभिन्न अंग की तरह जोड़े रहती है। नेपाल में जब भूकंप आया था, तब भारत ने दिल खोल कर सहायता दी थी। यह निकटता अभी भी है। पर अब नेपाल, का झुकाव चीन की तरफ बढ़ रहा है। चीन की आक्रामक विस्तार नीति जो उसके सड़कों और रेल नेटवर्क के निर्माण तथा सीमा पर बस्तियां बसाने के रूप में अक्सर दिखती रहती है का असर, अब नेपाल पर भी होने लगा है। 

आज कम्युनिस्ट नेपाल, कम्युनिस्ट चीन की तरफ खिसक रहा है। जिस दिन बीजिंग और काठमांडू के बीच रेल नेटवर्क. चीन तैयार कर देगा, उस दिन नेपाल का व्यापार, भारत की तुलना में चीन से अधिक बढ़ जायेगा। हालांकि, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से, नेपाल, चीन की अपेक्षा, भारत के अधिक निकट है, लेकिन विदेशनीति के समीकरण, सांस्कृतिक और धार्मिक मापदंडों से कम, आर्थिक और व्यापारिक मुद्दो से अधिक प्रभावित होते है। नेपाल एक संप्रभु देश है और अपनी विदेशनीति की प्राथमिकताएं तय करने का उसे भी, उतना ही अधिकार है, जितना कि, किसी भी संप्रभु देश को होता है। पर यह बात भारत के विदेश नीति के नियामकों को, सोचना होगा कि, नेपाल से सदियों पुराने हमारे रिश्ते अचानक ठंडे क्यों पड़ने लगे और वह शनैः शनैः चीन की तरफ क्यों झुकने लगा। हमने अपने पड़ोसियों को, अपने साथ मजबूती से बनाए रखने के लिए क्या किया?

अब आइए भारत भूटान संबंध पर। भूटान भारत द्वारा प्रोटेक्टेड देश है। संप्रभु है, पर भूटान, की सुरक्षा का दायित्व भारत पर है। वहां के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की ट्रेनिंग भारत की पुलिस प्रशिक्षण अकादमियों में होती रही है और अब भी होती है। मेरे साथ भी भूटान पुलिस के दो अधिकारी पुलिस प्रशिक्षण अकादमी मुरादाबाद में ट्रेनिंग किए थे और जब मैं भूटान गया तो, उनसे वैसे ही मुलाकात हुई जैसे अपने भारतीय दोस्तों से। भारतीय सेना की कुछ बटालियन, भूटान में, उसकी सुरक्षा के लिए रहती है। आम तौर पर, भारत की जो विदेशनीति होती है, भूटान भी उसी नीति का अनुसरण करता है। साल 1971 में, बांग्लादेश मुक्ति के बाद, बांग्लादेश को एक स्वतंत्र और संप्रभु देश की सबसे पहले मान्यता भारत ने दी थी, और उसके तुरंत बाद, भूटान ही था, जिसने, बांग्लादेश को मान्यता दे दी। 

आज वही भूटान, चीन के साथ बातचीत कर रहा है। डोकलम विवाद हल करने के लिए, चीन से वह बात कर रहा है। लेकिन इस बातचीत में क्या भारत की भी कोई भूमिका है? नॉर्थ ईस्ट को जोड़ने वाला चिकन नेक गलियारा और चुम्बी वैली पर चीन की बहुत पहले से नज़र है। इसी मकसद से, चीन, भूटान और बांग्लादेश दोनो के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ा रहा है। भारत को इस बात का पूरा प्रयास करना होगा कि, चीन अपने विस्तारवादी और 'कर्ज दो कब्जा करो' की नीति का शिकार, न तो भूटान को बना सके और न ही बांग्लादेश को। भूटान सरकार की, चीन की हुकूमत के साथ, नजदीकियां इधर बढ़ी हैं, और भूटान पर डोरे डालना, चीन की विदेशनीति का एक महत्वपूर्ण एजेंडा है। चीन बेहद खामोशी के साथ अपने पत्ते खेलता है। उसकी यही खामोशी, उसके कई महत्वपूर्ण राज, पोशीदा रखती है। 

बांग्लादेश एक ऐसा देश है, जिसे अस्तित्व में लाने में भारत की, अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत को साल 1971 मे, बांग्लादेश के लिए, पाकिस्तान से युद्ध करना पड़ा। भारत उस युद्ध मे विजयी हुआ और पाकिस्तान टूटा। पाकिस्तान न सिर्फ टूटा, बल्कि द्विराष्ट्रवाद का वह मिथ भी टूटा कि, धर्म और राष्ट्र एक होते हैं। भाषाई अस्मिता और सांस्कृतिक दूरी ने, धर्म के नशे की खुमारी उतार दी। भारत से बांग्लादेश से संबंध बहुत अच्छे हैं और बांग्लादेश की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि, चीन चाह कर भी बांग्लादेश में वह सब तिकड़म नहीं कर सकता, जो वह, नेपाल और भूटान में कर रहा है। फिर भी बांग्लादेश के साथ यदा कदा कुछ मामलों में मत वैभिन्यता को छोड़ कर, आपसी रिश्ते की, गर्माहट बरकरार है। लेकिन चीन यहां भी बांग्लादेश को आर्थिक सहायता की पेशकश करता है और देता भी है। 

अब आते हैं श्रीलंका पर। श्रीलंका और चीन के बीच बढ़ती रणनीतिक साझेदारी पर भी भारत को नजर रखनी है और हिंद महासागर के इस द्वीप राष्ट्र, जो भारत की ही तरह, कभी ब्रिटिश उपनिवेश था, और भारत के आजाद होने के लगभग ढाई साल बाद आजाद हुआ, के साथ भारत के संबंध काफी अच्छे रहे हैं और आज भी है। राष्ट्रपति जयवर्धने के कार्यकाल में, जब श्रीलंका, एलटीटीई के तमिल उग्रवाद से जूझ रहा था, तब, भारत ने सैन्य सहायता भी इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आईपीकेएफ) के रूप में भेजी थी। हालांकि, विदेशनीति के विशेषज्ञ राजीव गांधी के इस फैसले को उचित नहीं मानते हैं और यह भी दुर्भाग्य रहा है कि, राजीव गांधी, उसी एलटीटीई के षड्यंत्र के शिकार हुुए।साल 1991 में, जब वे तमिलनाडु के श्रीपेरूमबदुर में एक आतंकी घटना में मारे गए। इसमें एलटीटीई का हांथ था। 

चीन की नजर, हिंद महासागर पर है और हिंद महासागर पर, अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए श्रीलंका और मालदीव पर, कूटनीतिक नियंत्रण करना जरूरी है। आर्थिक रूप से कमज़ोर श्रीलंका को, चीन ने न सिर्फ सस्ते दर और आसान शर्तों पर, ऋण दिया बल्कि अपने नौसैनिक बेड़ों के लिए श्रीलंका के बंदरगाहों की भी सुविधा ली। प्रत्यक्ष रूप से, चीन इन कदमों से, अमेरिका को, चुनौती देता हुआ दिख रहा है, पर जिस तरह से हिमालयी देशों में वह धीरे धीरे अपनी कूटनीतिक पैठ बढ़ा रहा है, उसे देखते हुए, हिंद महासागर में, उसके बढ़ते वर्चस्व का निशाना भारत भी है। 

श्रीलंका-चीन संबंधों के इतिहास और हाल के दिनों में श्रीलंका के प्रति चीनी पहल पर यह तर्क दिया जाता है कि, हिंद महासागर में श्रीलंका की भू-रणनीतिक स्थिति और भारत से, उसकी निकटता को देखते हुए, बुनियादी ढांचे के विकास और चीनी विकासात्मक सहायता की आकांक्षा, मुख्य रूप से लाभ को अधिकतम करने के लिए हेजिंग अपनाने हेतु, श्रीलंकाई विदेश नीति के विकल्प को चीन आकार दे रहा है। हिंद महासागर में श्रीलंका को शामिल करने के चीन के हालिया प्रयासों का उद्देश्य, उसके वाणिज्यिक और सुरक्षा हितों की रक्षा और विस्तार करना है। हालाँकि चीन और श्रीलंका कोई सीमा साझा नहीं करते हैं, लेकिन, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के एक लेख के अनुसार, "अपने विस्तार के एजेंडे में, बौद्ध धर्म की पृष्ठभूमि का एक आधार भी, चीन ने ढूंढ निकाला है।"

नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका में अपने हितों को मजबूत करने के बाद, चीन की नजर, मालदीव पर है। मालदीव के नए राष्ट्रपति, मोहम्मद मुइजू, के घनिष्ठ संबंध चीन से हैं और यह बात छुपी हुई नहीं है। मुइज्जू ने सत्ता में आने पर, अपना भारत विरोधी रुख दिखा दिया और, कहा कि, भारत को, अब मालदीव से अपनी, सेना हटा लेनी चाहिए। याद कीजिए, एक बार जब मालदीव में तख्ता पलट हुआ था तो भारतीय सेना ने वहां जाकर, स्थिति सामान्य की थी। यदि हमारी सेना, मालदीव से लौटती है तब, हिंद महासागर में, अपने अपने क्षेत्राधिकार को लेकर चीन और भारत के बीच का तनाव और गहरा हो सकता है। मालदीव में तैनात भारतीय सेना, वहां के रडार स्टेशनों और उसके निगरानी विमानों की देखरेख करती है। इसके अलावा भारतीय युद्धपोत भी मालदीव के विशेष आर्थिक क्षेत्र में गश्त करने में अहम भूमिका निभाते हैं। चूंकि हिंद महासागर में मालदीव की लोकेशन रणनीतिक रूप से बेहद अहम है, इसलिए भारत को हिंद महासागर में कमजोर करने के लिए चीन, पिछले कुछ सालों से मालदीव को खूब लुभाता रहा है। चीन ने मालदीव में बड़े पैमाने पर निवेश किया है.खाड़ी के देशों से तेल भी, यहीं से होकर गुज़रता है, इसलिए भी चीन हिंद महासागर के इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण पुख्ता कर लेना चाहता है।

दक्षिण एशिया या भारतीय प्रायद्वीप में, भारत सबसे बड़ा और इस भू राजनीतिक क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण किरदार है और अपने पड़ोस के इन सभी देशों के साथ उसके संबंध आजादी के बाद से ही अच्छे रहे हैं। यह संबंध और भी मधुर तथा प्रगाढ़ हों, इसी उद्देश्य से सार्क का गठन किया गया और उसका मुख्यालय काठमांडू रखा गया। अपनी आबादी, भौगोलिक विशालता, समृद्ध इतिहास, मजबूत और विशाल सैन्य बल तथा, आर्थिकी के कारण भारत जो इस इलाके का स्वाभाविक नेता है, को अपने पड़ोस के उन देशों को अपने साथ कूटनीतिक और अन्य तरह से जोड़े रखने के लिए, निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। भारत प्रयास कर भी रहा है पर, चीन की खामोश और आक्रामक कूटनीतिक दांव पेंच के सामने, अपने बेहद निकट के पड़ोसी मुल्कों के नेतृत्व के बीच जो भारत विरोधी धारणा पनप रही है, उसका निवारण नहीं कर पा रहा है। 

यहीं यह सवाल उठता है कि, क्या भारत की वैदेशिक नीति की प्राथमिकता में, उसके पड़ोसी देश हैं भी या नहीं। या, हमने उन्हे एक स्वाभाविक मित्र, बस यह सोच कर मान लिया है कि, वे कहां जायेंगे और अपनी प्राथमिकता में अमेरिका और यूरोप के देशों को अधिक तरजीह दे दी है। अपने दस साल के कार्यकाल में बहुत कम ही देश ऐसे होंगे, जहां प्रधानमंत्री जी की यात्रा न हुई हो। हर देश के राष्ट्रध्यक्ष के साथ, उनकी आलिंगन बद्ध फोटो और उन्हे विश्व गुरु, डंका बज रहा है, मोदी विश्व राजनीति की पतवार हैं, जैसे अतिशयोक्ति पूर्ण खबरें, गोदी मीडिया पर अक्सर पीएम की हर विदेश यात्रा के दौरान और उसके बाद दिखती रखती हैं। पर जब पड़ोस पर नजर जाती है तो, हमारे पड़ोसी हमारे बजाय, चीन के अधिक निकट जाते दिख रहे है। ऐसा क्यों है और इसे दुरुस्त करने के लिए सरकार कर क्या रही है, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल है जिसका समाधान, विदेश नीति के विशेषज्ञों को सोचना चाहिए। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Wednesday, 25 October 2023

राहुल गांधी की सत्यपाल मालिक से बातचीत / विजय शंकर सिंह

कांग्रेस सांसद, राहुल गांधी आज पत्रकार की भूमिका में आए, जब उन्होंने जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल, सत्यपाल मलिक का इंटरव्यू लिया। सत्यपाल मलिक, पुलवामा हमले के समय, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे। सत्यपाल मलिक, अगस्त 2018 से अक्टूबर 2019 तक, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे तथा बाद में, वे गोवा के राज्यपाल, और अक्टूबर 2022 तक मेघालय के राज्यपाल के रूप में नियुक्त रहे। 

सत्यपाल मलिक और राहुल गांधी ने निम्न विदुओं पर चर्चा की

० सत्यपाल मलिक ने राहुल गांधी से कहा कि 2019 का पुलवामा हमला सरकार की ओर से हुई चूक थी और चुनाव के लिए पुलामा हमले का इस्तेमाल किया गया। 

सत्यपाल मलिक ने कहा, 
"मैंने दो चैनलों को बताया कि यह हमारी गलती थी लेकिन मुझसे कहा गया कि इसे कहीं भी न कहें... मुझे लगा कि मेरे बयानों से जांच पर असर पड़ सकता है, लेकिन कोई जांच नहीं हुई। इसका इस्तेमाल चुनाव के उद्देश्य से किया गया। तीसरे दिन  सत्यपाल मलिक ने कहा, पीएम मोदी ने अपना भाषण दिया जहां उन्होंने इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया।

० मोदी सरकार ने जवानों के लिए विमान उपलब्ध नहीं कराया। सत्यपाल मलिक के अनुसार, 

"पुलवामा की घटना क्यों हुई? उन्होंने 5 विमान मांगे थे। अगर उन्होंने मुझसे कहा होता, तो मैं उन्हें तुरंत दे देता। मैंने बर्फ में फंसे छात्रों को विमान प्रदान किया। दिल्ली में किराए पर विमान प्राप्त करना आसान है। लेकिन  उनका आवेदन गृह मंत्रालय में चार महीने तक पड़ा रहा। और फिर इसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद सीआरपीएफ कर्मियों ने वह सड़क अपनाई जो असुरक्षित मानी जाती थी।'' 

० पाकिस्तान से भेजे गए थे विस्फोटक के आरोप पर सत्यपाल मलिक ने कहा, 
“सीआरपीएफ वाहन पर हमला करने वाला विस्फोटक से भरा ट्रक लगभग 10-12 दिनों से इलाके में घूम रहा था…विस्फोटक पाकिस्तान से भेजे गए थे।  गाड़ी के ड्राइवर और मालिक का आतंकी रिकॉर्ड था। उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया और फिर रिहा किया गया।  लेकिन वे खुफिया विभाग के रडार पर नहीं थे,'' 

० पुलवामा पर बोलते हुए राहुल गांधी ने कहा कि, 
"जैसे ही उन्हें घटना के बारे में पता चला, वह शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए हवाईअड्डे गए.  “मुझे एक कमरे के अंदर बंद कर दिया गया था।  मुझे ऐसा लगा जैसे यह कोई घटना हो.  पीएम मोदी वहां थे.  मुझे कमरे से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करना पड़ा। यह काफी अरुचिकर था.''

० अडानी-हिंडनबर्ग विवाद और ₹20,000 करोड़ का निवेश पर सत्यपाल मालिक ने सवाल उठाया कि,  समूह के पास इतनी बड़ी रकम कहां से आई?

० सत्यपाल मलिक ने राहुल गांधी से कहा कि, 
"सरकार एमएसपी पर अपना वादा निभाने में विफल रही क्योंकि अडानी ने बड़े गोदाम बनाए, कम कीमत पर फसलें खरीदीं। अगले साल उनकी कीमतें बढ़ेंगी और वह उन्हें बेचेंगे। अगर एमएसपी लागू होता है, तो किसान उन्हें अपने उत्पाद सस्ती दर पर नहीं बेचेंगे।"

० मणिपुर की घटना पर सत्यपाल मलिक ने राहुल गांधी से कहा कि,  
"मणिपुर की स्थिति, पीएम मोदी सरकार की एक और विफलता है, जिसमें सीएम (बीरेन सिंह) भी विफल रहे हैं। मणिपुर में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। लेकिन यह केवल छह महीने के लिए है। मैं लिखित में दे सकता हूं। वे सत्ता में वापस नहीं आएंगे।"

० किसान आंदोलन और अग्निवीर पर, सत्यपाल मलिक ने कहा कि, 
"मोदी सरकार ने देश में सब कुछ खत्म कर दिया है। न शिक्षा है, न स्वास्थ्य सेवाएं, न रोजगार। सरकार ने 2021 में विरोध करने वाले किसानों को खत्म कर दिया है. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने अग्निवीर से भारतीय रक्षा बलों को नष्ट कर दिया है।"

० सत्यपाल मलिक ने कहा कि, 
"जब भी कोई पीएम मोदी के खिलाफ आवाज उठाता है, तो वह भारतीय नागरिकों का ध्यान भटकाने के लिए 'नौटंकी' करती है। मोदी सरकार महिला बिल को 'कभी लागू नहीं' करेगी।"

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Monday, 23 October 2023

वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को चुनाव के दौरान रथ प्रभारी बनाना, आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है / विजय शंकर सिंह

भारत सरकार के पूर्व सचिव ईएएस सरमा ने भारत के चुनाव आयोग को एक बार फिर वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों को "रथ प्रभारी" जो नरेंद्र मोदी सरकार की कथित उपलब्धियों के बारे में जानकारी फैलाएंगे, के रूप में उपयोग करने की केंद्र सरकार की योजना पर एक प्रतिवाद पत्र लिखा है 

ईएएस सरमा, जो खुद एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रहे हैं ने, पहली बार 21 अक्टूबर को ईसीआई निर्वाचन आयोग, को पत्र लिखकर कहा था कि,  आयोग को, सरकार के इस निर्णय पर हस्तक्षेप करना चाहिए और इस सरकारी आदेश को रोकने के लिए आदेश जारी करना चाहिए।  उन्होंने यह भी तर्क दिया कि, ये निर्देश,  आदर्श आचार संहिता के खिलाफ हैं। एक अन्य पूर्व आईएएस अधिकारी एम.जी.  देवसहायम ने सरमा के पत्र का समर्थन किया है।

23 अक्टूबर, को भेजे गए अपने दूसरे पत्र में, ईएएस सरमा ने कहा है कि, "उन्हें उम्मीद है कि ईसीआई ECI ने उनकी शिकायत पर संज्ञान लिया होगा।" उन्होंने चार संबंधित मुद्दों की ओर इशारा किया, जिसमें यह भी शामिल है कि, इस तरह की गतिविधि में शामिल लोक सेवकों के पास मतदाताओं और चुनावी परिणामों को प्रभावित करने की शक्ति होती है।

सरमा ने तर्क दिया कि, ईसीआई का इस मामले पर कार्रवाई करना, आयोग का दायित्व और कर्तव्य है। उन्होंने पत्र में लिखा है, "अगर आयोग अनुच्छेद 324 और संबंधित चुनाव कानूनों के तहत परिकल्पित अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो यह निस्संदेह संविधान के मूल में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों को अपूरणीय क्षति पहुंचाने जैसा होगा।"

उनका पूरा पत्र नीचे पढ़ें।
०००

ई.ए.एस. सरमा
भारत सरकार के पूर्व सचिव

सेवा में
श्री राजीव कुमार
मुख्य चुनाव आयुक्त
भारत निर्वाचन आयोग (ECI)

श्री ए सी पांडे
चुनाव आयुक्त
भारत निर्वाचन आयोग (ECI)

श्री अरुण गोयल
चुनाव आयुक्त
भारत निर्वाचन आयोग (ECI)

प्रिय श्री राजीव कुमार/पांडेय/गोयल,

मैं यह पत्र, 21 अक्टूबर, 2023 के अपने उक्त पत्र की निरंतरता में लिख रहा हूं, जिसमें मैंने बताया था कि, कार्मिक विभाग द्वारा एफ.एन.ओ. के माध्यम से जारी किए गए निर्देश,  1-28047/8/2023 दिनांक 17-10-2023 और अन्य मंत्रालयों को 'विकसित भारत संकल्प यात्रा' के माध्यम से पिछले नौ वर्षों के दौरान एनडीए सरकार की उपलब्धियों को प्रदर्शित करने/जश्न मनाने के लिए उनके अधीन नियुक्त, वरिष्ठ अधिकारियों को "जिला रथ प्रभारी" के रूप में नामित करने के संबंध में है। यह आदेश, 20 नवंबर 2023 से 25 जनवरी 2024 तक', के लिए है, जो राज्य विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर, उन चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का खुलेआम उल्लंघन करता है। 

मुझे उम्मीद है कि भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने मेरी शिकायत पर उचित संज्ञान लिया होगा और संविधान के तहत एक स्वतंत्र प्राधिकारी के रूप में कार्य किया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उक्त चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से आयोजित किए जाएं।

कुछ संबंधित मुद्दे हैं, जैसा कि नीचे दर्शाया गया है, जिन पर मैं ईसीआई से तुरंत और बिना किसी हिचकिचाहट के कार्रवाई करने का आह्वान करूंगा।

1. चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने वाली किसी भी गतिविधि में भाग लेने वाले लोक सेवक केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमों और अन्य केंद्रीय और अखिल भारतीय सेवाओं के संबंधित आचरण नियमों का उल्लंघन करते हैं।

 2. आईपीसी की धारा 171सी के तहत, "जो कोई भी स्वेच्छा से किसी चुनावी अधिकार के स्वतंत्र प्रयोग में हस्तक्षेप करता है या हस्तक्षेप करने का प्रयास करता है, वह चुनाव में अनुचित प्रभाव डालने का अपराध करता है"।  किसी भी सार्वजनिक प्राधिकरण के लिए लोक सेवकों को ऐसी गतिविधि के लिए मजबूर करना न केवल प्रासंगिक चुनाव कानूनों के तहत बल्कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत भी दंडनीय है।

3. भारत सरकार, गृह मंत्रालय कार्यालय ज्ञापन संख्या 25/44/49/स्था.  दिनांक 10 अक्टूबर 1949 में कहा गया है, "सरकारी सेवकों के आचरण नियमों के नियम 23 (I) के दायरे पर ध्यान आकर्षित किया जाता है, जिसमें कहा गया है कि कोई भी सरकारी सेवक किसी भी राजनीतिक आंदोलन में भाग नहीं लेगा, सहायता में सदस्यता नहीं लेगा या किसी भी तरह से सहायता नहीं करेगा।"  भारत में"।  ये निर्देश मेरे द्वारा व्यक्त की गई चिंता के संबंध में विशेष रूप से प्रासंगिक हैं।

4. कम से कम चार केंद्रीय मंत्रियों के आगामी राज्य विधानसभा चुनाव लड़ने की खबर है।  केंद्र सरकार के अधिकारियों को ऐसी गतिविधि में तैनात करना जो चुनाव में सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के लिए प्रचार करने के बराबर है, चुनाव कानूनों के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत स्पष्ट रूप से अयोग्यता को आकर्षित करेगा, जिसकी ईसीआई को तत्काल जांच करनी चाहिए।

केंद्र सरकार ने, अपने अधिकारियों को "विकसित भारत संकल्प यात्रा' के माध्यम से पिछले नौ वर्षों के दौरान एनडीए सरकार की उपलब्धियों का प्रदर्शन/जश्न मनाने" के लिए उक्त निर्देश जारी करके जो मिसाल कायम की है, उससे प्रत्येक राज्य में राजनीतिक नेतृत्व को प्रोत्साहन मिलने की संभावना है।  ऐसा ही करने के लिए, राज्य सरकारें भी, जल्द ही विधानसभा चुनावों के लिए, अपने अधीन नियुक्त, अधिकारियों को उनके लिए प्रचार करने का निर्देश दे सकती हैं, जिससे अराजकता और लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होगा जो हमारे संविधान में परिकल्पित चुनावी प्रणाली के लिए केंद्रीय आवश्यक तत्व हैं। आयोग निष्क्रिय रहकर, ऐसी संभावित खतरनाक प्रक्रिया को बढ़ावा देने का जोखिम नहीं उठा सकता।

क्या मैं ईसीआई से इन चिंताओं पर तत्काल कार्रवाई करने और यह सुनिश्चित करने के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के कार्रवाई करने का आह्वान कर सकता हूं कि, आगामी राज्य विधानसभा चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल को अनुचित लाभ न मिले?

यदि आयोग अनुच्छेद 324 और संबंधित चुनाव कानूनों के तहत परिकल्पित अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो यह निस्संदेह संविधान के मूल में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों को अपूरणीय क्षति पहुंचाने जैसा होगा।

मैं इस पत्र को जनता के लिए व्यापक रूप से प्रसारित कर रहा हूं ताकि उपरोक्त चिंताओं और आयोग को एक स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में जो भूमिका निभानी चाहिए, उस पर चर्चा और बहस हो सके।

सम्मान, सादर,
ई ए एस सरमा
विशाखापत्तनम
23-10-2023 
०००

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

Saturday, 21 October 2023

गिरती साख के साथ सवालों और आरोपों से घिरी, ईडी / विजय शंकर सिंह

वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद से, जितने सवाल और विवाद, प्रवर्तन निदेशालय ईडी को लेकर उठे हैं, उतने किसी भी, बड़ी जांच एजेंसी को लेकर नहीं उठे हैं। इसका एक बड़ा कारण है, ईडी का विपक्ष के नेताओ के प्रति किया जा रहा अभियान, छापे, और इसके साथ ही, बीजेपी के द्वारा, ऑपरेशन लोटस के नाम से चलाए जा रहे, चुनी हुई सरकार को, अस्थिर करने और उन्हें गिराने में, सरकार या सत्तारूढ़ दल के एक टूल की तरह से, काम करना। देश में किए जा रहे, इस सरकार गिराऊ और, पार्टी तोडू अभियान में यदि कोई जांच एजेंसी, मुख्य भूमिका में है तो, वह प्रवर्तन निदेशालय है। 

ईडी, प्रेवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट के अंतर्गत कार्यवाही करने की शक्तियां रखती हैं और इसी मुख्य उद्देश्य से इसका गठन भी किया गया है। इस कानून के अंतर्गत, ईडी को, समन, गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती के वे अधिकार हैं, जो सीआरपीसी के अंतर्गत, पुलिस की शक्तियां होती है, लेकिन, ईडी, पुलिस नहीं है। ईडी, को अदालत ने, पुलिस के समकक्ष नहीं माना है। ईडी द्वारा, उपयोग में किए जाने वाले, अधिकार और शक्तियों को बराबर हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में, चुनौती मिलती रही है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि, वह ईडी की विभिन्न शक्तियों और अधिकार के संबंध में दायर अनेक याचिकाओं पर पुनर्विचार के लिए राजी हो गया है। हालांकि साल 2022 में, सुप्रीम कोर्ट इन पर विचार कर, इसे उचित मान चुका है। पर उसके बाद भी, कुछ प्राविधानों पर, अक्सर सवाल खड़े हुए कि, वे इस प्रकार के हैं जिनका दुरुपयोग हो सकता है और, उनके दुरुपयोग के अनेक उदाहरण भी सामने आए हैं। हालांकि, सरकार ने, सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनर्विचार सुनवाई को टालने का भी आग्रह किया, पर सुप्रीम कोर्ट, राजी नहीं हुआ और अब यह सुनवाई होने वाली है। 

इसी बीच, दिल्ली उच्च न्यायालय ने, 19 अक्तूबर को एक फैसला सुनाया है कि,  "पीएमएलए की धारा 50 के तहत किसी व्यक्ति को समन जारी करने की, प्रवर्तन निदेशालय की शक्ति में, गिरफ्तारी की शक्ति शामिल नहीं है।"
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस, अनूप जयराम भंभानी ने कहा है कि, "गिरफ्तारी की शक्ति पीएमएलए की धारा 50 में "स्पष्ट रूप से अनुपस्थित" है, जो ईडी अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, बशर्ते कि वे उसमें उल्लिखित शर्तों को पूरा करते हों।"

धन-शोधन निवारण अधिनियम, यानी प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) 2002 की धारा 50, समन, दस्तावेज पेश करने और साक्ष्य देने आदि के संबंध में प्राधिकारियों की शक्तियां का उल्लेख करता है। इसकी उपधारा (1) के अनुसार, ईडी निदेशक के पास, धारा 13 के प्रयोजनों के लिए, वही शक्तियां होंगी जो निम्नलिखित मामलों के संबंध में मुकदमे की सुनवाई करते समय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के तहत एक सिविल अदालत में निहित हैं, अर्थात् :—
(ए) तलाशी सर्च और निरीक्षण;
(बी) बैंकिंग कंपनी या वित्तीय संस्थान या कंपनी के किसी भी अधिकारी सहित किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति को लागू करना और शपथ पर उसकी जांच करना;
(सी) अभिलेखों के पेश करने के लिए बाध्य करना;
(डी) शपथ पत्रों पर साक्ष्य देने के लिए कहना, 
(ई) गवाहों और दस्तावेजों की जांच के लिए कमीशन जारी करना; और
(एफ) कोई अन्य मामला जो निर्धारित किया जा सकता है।

उपधारा (2) निदेशक, अतिरिक्त निदेशक, संयुक्त निदेशक, उप निदेशक या सहायक निदेशक को इस अधिनियम के तहत किसी भी जांच या कार्यवाही के दौरान साक्ष्य देने या कोई रिकॉर्ड पेश करने के लिए किसी भी व्यक्ति को बुलाने की शक्ति प्रदान करता है,  जिसकी उपस्थिति वह, जांच के लिए, जरूरी समझती है।

उपधारा (3) के अनुसार, "इस प्रकार बुलाए गए सभी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से या अधिकृत एजेंटों के माध्यम से उपस्थित होने के लिए बाध्य होंगे, जैसा कि ऐसा अधिकारी निर्देश दे सकता है, और किसी भी विषय पर सच्चाई बताने के लिए बाध्य होंगे, जिसके संबंध में उनकी जांच की जा रही है या बयान दे रहे हैं, और ऐसे दस्तावेज़ पेश करेंगे। जैसी आवश्यकता हो सकती है.

(4) उप-धारा (2) और (3) के तहत प्रत्येक कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता, 1860 (1860 का 45) की धारा 193 और धारा 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही माना जाएगा।

(5) केंद्र सरकार द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी भी नियम के अधीन, उप-धारा (2) में निर्दिष्ट कोई भी अधिकारी अपने समक्ष प्रस्तुत किए गए किसी भी रिकॉर्ड को ऐसी अवधि के लिए जब्त कर सकता है और अपनी हिरासत में रख सकता है, जब तक वह उचित समझे। इस अधिनियम के तहत कार्यवाही: बशर्ते कि कोई सहायक निदेशक या उप निदेशक-
(ए) ऐसा करने के कारणों को दर्ज किए बिना किसी भी रिकॉर्ड को जब्त कर लेगा; या
(बी) निदेशक की पूर्व मंजूरी प्राप्त किए बिना ऐसे किसी भी रिकॉर्ड को तीन महीने से अधिक की अवधि के लिए अपनी हिरासत में रखेगा।

दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस एजे भंभानी ने अपने फैसले में ईडी की धारा 50 के अंतर्गत प्रदत्त शक्तियों को और स्पष्टता के साथ व्याख्यायित करते हुए कहा, "पीएमएलए की धारा 50 के अंतर्गत, किसी व्यक्ति को समन जारी करने और दस्तावेजों के पेश करने और बयान दर्ज करने की, आवश्यकता की शक्ति, जो एक सिविल अदालत की शक्तियों के समान है, लेकिन, किसी को गिरफ्तार करने की धारा 19 के तहत शक्ति से अलग है।" 

अदालत ने आगे कहा, “हालांकि पीएमएलए की धारा 19 ईडी के नामित अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, जो उस प्रावधान में उल्लिखित शर्तों को पूरा करने के अधीन है, लेकिन यह स्पष्ट है कि, गिरफ्तारी की शक्ति धारा 50 में नहीं है और न ही यह, धारा 50 के तहत जारी किए गए समन का स्वाभाविक परिणाम है या, इसका कोई मतलब है।"
अदालत का कहना है कि, "धारा 50, किसी व्यक्ति को समन करने, दस्तावेज मांगने, साक्ष्य प्रस्तुत करने तक ही सीमित है, न कि, ऐसा न करने पर, गिरफ्तारी की शक्ति देती है।" 

जस्टिस भंभानी ने कहा कि, "पीएमएलए की धारा 19 और 50, दो अलग अलग और विशिष्ट प्रावधान हैं और एक के अंतर्गत दी गई शक्तियों के प्रयोग को, इस आशंका पर नहीं रोका जा सकता है कि, इससे दूसरे के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग हो सकता है।"
आगे उक्त फैसले के अनुसार, “अगर इसकी अनुमति दी जाती है, तो पीएमएलए की धारा 50 के तहत दस्तावेज पेश करने या शपथ पर बयान देने के लिए बुलाया गया कोई भी व्यक्ति, केवल यह आशंका व्यक्त करते हुए ऐसे समन का विरोध कर सकता है कि, उसे ईडी के हाथों गिरफ्तारी का सामना करना पड़ सकता है।"

अब एक नजर, पीएमएलए की धारा 19 पर। पीएमएलए की धारा 19(1) निदेशक, उप निदेशक या सहायक निदेशक जैसे अधिकृत अधिकारियों को पीएमएलए के तहत अपराध करने के संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार करने की शक्ति देती है यदि उनके पास यह मानने का पर्याप्त कारण है कि व्यक्ति ने अपराध किया है। लेकिन, गिरफ्तारी के कारणों को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए और एक बार गिरफ्तार होने के बाद, व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किया जाना चाहिए।

धारा 19(2) के तहत, गिरफ्तारी के बाद, गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को आदेश की एक प्रति और संबंधित सामग्री को एक सीलबंद लिफाफे में निर्णायक प्राधिकारी को अग्रेषित करना होगा और ऐसे प्राधिकारी को निर्दिष्ट अवधि के लिए आदेश और सामग्री को संरक्षित करना होगा।

धारा 19(3) के तहत गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर विशेष अदालत, न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाना चाहिए।

महत्वपूर्ण यह है कि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि उपरोक्त धाराओं के तहत आदेश का अनुपालन न करने पर गिरफ्तारी स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। शीर्ष अदालत के अनुसार, "गिरफ्तारी करने के लिए, अधिकृत अधिकारी को अपने पास मौजूद सामग्रियों का आकलन और मूल्यांकन करना होता है। ऐसी सामग्रियों के माध्यम से, उससे यह विश्वास करने का कारण बनाने की उम्मीद की जाती है कि कोई व्यक्ति पीएमएलए, 2002 के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है। 
इसके बाद , वह कारणों को दर्ज करने के अपने अनिवार्य कर्तव्य का पालन करते हुए गिरफ्तारी करने के लिए स्वतंत्र है। 
उक्त कार्यवाही के बाद गिरफ्तार व्यक्ति को, गिरफ्तारी के आधार की जानकारी दी जानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो, पीएमएलए, 2002 की धारा 19(1) गिरफ्तारी ही निष्फल हो जाएगी। 

न्यायालय ने यह भी माना कि, यह सुनिश्चित करना मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि धारा 19 के तहत आदेश का विधिवत अनुपालन किया जाए। 

हुआ यह था कि, आशीष मित्तल को, 21 अगस्त को ईडी के सामने पेश होने के लिए समन जारी किया गया था। जिस तरह से ईडी गिरफ्तारियों और अन्य कारणों से विवादित हो रही थी और उसे लेकर एक यह भी धारणा बन रही थी, ईडी, प्रतिशोधात्मक कार्यवाही भी कर सकती है तो, आशीष मित्तल ने इस बात की आशंका जाहिर कि, कि, "उन्हें अवैध रूप से हिरासत में लिया जाएगा और फिर गिरफ्तार कर लिया जाएगा। उनको ईसीआईआर की प्रति भी नहीं दी गई थी।"

आशीष मित्तल ने एडुकॉम्प मामले में ईसीआइआर रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर, मांग की थी कि, ईडी को उनकी निजी आजादी को बाधित करने के विरुद्ध,  कोई भी कठोर कदम उठाने से, रोका जाए।" याचिका में, उन्होंने कहा कि "उन्हें आशंका है कि उन्हें ईडी अवैध रूप से हिरासत में रखेगी या गिरफ्तार कर लेगी।" 
ईडी ने, याचिका पर आपत्ति जताते हुए, यह तर्क दिया कि याचिका दायर करने का कारण "केवल पीएमएलए की धारा 50 के तहत जारी एक समन था। समन पर रोक लगाने या रद्द करने की मांग वाली रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।" 
ईडी ने अदालत को बताया कि, "मित्तल का नाम सीबीआइ की ओर से दर्ज एफआइआर या ईसीआइआर में नहीं है।" 
यह मुकदमा, साल, 2020 में ईडी द्वारा दर्ज ईसीआईआर को रद्द करने की मांग करने वाली आशीष मित्तल नामक व्यक्ति की याचिका के संदर्भ में था।

जस्टिस भंभानी ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि यह समय पूर्व है। याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत के लिए, अलग से याचिका दायर कर सकता है। अदालत ने धारा 19 और धारा 50 को अलग अलग दृष्टिकोण से परिभाषित किया है। कानून में, धारा 50 के अंतर्गत, ईडी को गिरफ्तारी की शक्तियां क्यों नहीं है, इसका भी औचित्य बताया है। समन और साक्ष्य प्रस्तुत करने का निर्देश ईडी धारा 50 पीएमएलए में किसी को भी, चाहे वह, संदिग्ध हो या साक्षी हो, जारी कर सकती है पर इस बारे में इस धारा 50, के अंतर्गत, गिरफ्तारी की कोई शक्ति न होने के कारण, गिरफ्तार नहीं कर सकती है। ऐसा इसलिए है कि, गिरफ्तारी की आशंका से मुक्त होकर लोग ईडी को, जांच कार्य में सहयोग करें। 

अब एक दिलचस्प आंकड़ा देखें। राज्यसभा में दिए गए एक आंकड़े के अनुसार,  साल 2004 और 2014 के बीच 112 जांचों की तुलना में, साल, 2014-2022 के दौरान प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई छापेमारी में लगभग 27 गुना वृद्धि हुई है और यह आंकड़ा, 3,010 है।  वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने एक लिखित उत्तर में राज्यसभा को बताया कि पीएमएलए के तहत पुराने मामलों में लंबित जांच को निपटाने और नए मामलों में समयबद्ध तरीके से जांच पूरी करने के लिए तलाशी की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।  यह भी कहा कि, "जिन मामलों में कई आरोपी हैं, उनकी जटिल जांच की आवश्यकता भी होती है, जिससे ऐसी कार्रवाइयों की संख्या में वृद्धि हो जाती है।"

धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए), साल, 2002 में लाया गया था, लेकिन यह कानून लागू हुआ, 1 जुलाई 2005 से। कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) 2004 और 2014 के बीच सत्ता में था, जबकि भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता में था।  सरकार 2014 के मध्य से, सत्ता में है। शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी के एक सवाल के जवाब में, सरकार ने पूछा था कि, "क्या 2014 से ईडी की छापेमारी लगभग 90 प्रतिशत बढ़ गई है और क्या ईडी के मामलों में छापेमारी-से-शिकायत अनुपात बढ़ गया है।" 
इसके उत्तर में वित्त राज्यमंत्री, पंकज चौधरी ने उपरोक्त जवाब सदन में दिया, "पीएमएलए के प्रशासन के पहले नौ वर्षों के दौरान, छोटे मामलों की जांचे, जिनकी संख्या, 112 थी, की गईं, जिसके परिणामस्वरूप 5,346.16 करोड़ रुपये की अपराधिक मामलों से हुई आय, जब्त की गई और 104 अभियोजन शिकायतें दर्ज की गईं। 

साल, 2004 - 05 से 2013 तक की अवधि के आंकड़ों के अनुसार, "पुराने मामलों में लंबित जांच को निपटाने और पीएमएलए के तहत समयबद्ध तरीके से नए मामलों में जांच पूरी करने के लिए, पिछले आठ वर्षों के दौरान 3,010 तफतीशें की गईं, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 99,356 करोड़ रुपये की अपराध आय जब्त की गई। 888 मामलों में अभियोजन हुआ और 23 आरोपी व्यक्तियों/संस्थाओं को दोषी ठहराया गया तथा, 869.31 करोड़ रुपये की अपराध आय जब्त की गई। 

सवाल, न तो ईडी के गठन पर है और न ही, पीएमएलए से जुड़े कानूनों पर है, बल्कि सवाल ईडी के साख पर है। जब किसी जांच एजेंसी, पर राजनीतिक दृष्टिकोण और सत्तारूढ़ दल के दबाव में कार्यवाही करने, सरकार के राजनैतिक विरोधियों को निपटाने और सरकार के कृपापात्र लोगों, पूंजीपति घरानों के खिलाफ आरोपों पर, कोई जांच न करके, सारे आरोपों को, बस्ता ए खामोशी में डाल दिया जाता है, और जांच एजेंसी का यह पक्षपात से भरा दृष्टिकोण, साफ साफ दिखने लगता है तो, उक्त जांच एजेंसी के हर कदम पर, संदेह होने लगता है। फिलहाल, ईडी के साथ यही हो रहा है। अपराध को रोकने के लिए बनाए गए, कड़े कानूनों को बेहद सतर्कता और पारदर्शी निष्पक्षता से लागू करना जरूरी है, अन्यथा, जांच एजेंसी की साख, गिरने लगती है और जब किसी व्यक्ति या संस्था या जांच एजेंसी की साख, खत्म होने लगती है तो, उसके अच्छे कदम और उपलब्धियों पर भी सवाल उठने लगते हैं। फिलहाल प्रवर्तन निदेशालय, ईडी, देश की सबसे, विवादित जांच एजेंसी बनती जा रही है। साख बचाने और बनाए रखने की जिम्मेदारी, एजेंसी के प्रमुख और विभाग की है।

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

Thursday, 19 October 2023

राहुल गांधी का, अडानी पर कोयला आयात घोटाले का आरोप और और उसका बिजली उपभोक्ताओं पर असर / विजय शंकर सिंह

साल 2014 के बाद से अडानी समूह अक्सर खबरों में रहता आया है। पर यह सुर्खियां, समूह की किसी उपलब्धि के कारण नहीं होती रही है, बल्कि कभी ऑस्ट्रेलिया में कोयले की खान लेने के संदर्भ में पीएम मोदी की कथित भूमिका, तो कभी श्रीलंका में बंदरगाह हथियाने के मामले में, मोदी जी की कथित सिफारिश के आरोप, जिसे वहां की संसद में, वहां के मंत्री ने ही लगाया था, यह अलग बात है कि, वे अपने बयान से बाद में पलट गए, तो कभी एयरपोर्ट, सीपोर्ट के अधिग्रहण के किस्से, तो कभी मुंद्रा बंदरगाह से भारी मात्रा में ड्रग की तस्करी के मामले, तो कभी सरकार द्वारा जारी एक अजीबोगरीब सर्कुलर आदेश, कि हर बिजलीघर, अपनी कोयला खपत का कुछ प्रतिशत, आयातित कोयला के रूप में इस्तेमाल करेंगे, और यह भी एक तथ्य है कि, अडानी सबसे बड़े कोयला आयातक भी हैं, तो कभी शेल कंपनियों से मनी लांड्रिंग करके टैक्स हेवेन देशों से, भारत में धन निवेश करने की खबरों के कारण, तो कभी, अपने ही शेयरो के मूल्यों में हेराफेरी करके उसकी कीमतों में मैनिपुलेशन कर, आम निवेशकों को ठगने के कारण यह सुर्खियां बनती रही हैं। 

फिलहाल तो यह समूह, राहुल गांधी के ताजा इंटरव्यू के कारण चर्चा में हैं जो, कोयला आयात और उसकी कीमतों में शिपमेंट के दौरान ही, नकली वृद्धि कर, उसे बिजलीघरो को बेचने के आरोप पर है। यह आरोप फाइनेंशियल टाइम्स की एक खोजी रपट पर आधारित है। राहुल गांधी ने अपने एक इंटरव्यू में फाइनेंशियल टाइम्स का अखबार दिखाते हुए कहा, "अडानी ने बिजली की लागत बढ़ा कर, बिजली बिलों के माध्यम से देश के लोगों को सीधे तौर पर लूटा है। अडानी समूह आयातित कोयले की  बढ़ा कर जनता से अधिक पैसे वसूल रहा है।"
राहुल गांधी ने यह भी कहा कि, यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो, वे अडानी घोटाले की जांच कराएंगे। 

फिलहाल तो, फाइनेंशियल टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार अडानी पर यह आरोप है कि  
० अडानी समूह कथित तौर पर कोयला आयात की कीमत में हेरफेरी कैसे कर रहा था?
० इसका चांग चुंग-लिंग से क्या संबंध है?  
० अडानी समूह ने आरोपों पर क्या प्रतिक्रिया दी है?

अपनी एक हालिया खोजी रिपोर्ट में, फाइनेंशियल टाइम्स ने कहा कि, ऐसा प्रतीत होता है कि, अडानी समूह ने बाजार मूल्य से अधिक कीमत पर, अरबों डॉलर का कोयला आयात किया है। यह रिपोर्ट 2019 और 2021 के बीच 32 महीनों में इंडोनेशिया से भारत तक कमोडिटी के 30 शिपमेंट की जांच पर आधारित है। इसमें कहा गया है कि डेटा उपभोक्ताओं और व्यवसायों को बिजली के लिए अधिक भुगतान करने के लंबे समय से चले आ रहे आरोपों (कंपनी के खिलाफ) की पुष्टि करता है।  हालांकि अडानी ग्रुप ने आरोपों से इनकार किया है.

रिपोर्ट में कहा गया है, आरोप समूह के एकीकृत संसाधन प्रबंधन (आईआरएम) व्यवसाय से संबंधित हैं।  इस साल मार्च में एक क्रेडिट रिपोर्ट ने इसे निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) दोनों में अपने ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले थर्मल कोयले के देश के सबसे बड़े आयातक के रूप में रखा।

एफटी के अनुसार, जांचे गए शिपमेंट के आयात रिकॉर्ड में उल्लिखित कीमतें, संबंधित निर्यात घोषणाओं की तुलना में कहीं अधिक थीं।  उदाहरण के लिए, थोक नौवाहक डीएल बबूल ने जनवरी 2019 में 74,820 टन कोयले का परिवहन किया। निर्यात रिकॉर्ड में वस्तु की कीमत $1.9 मिलियन और शिपिंग और बीमा के लिए $42,000 बताई गई है।  हालाँकि, भारत के गुजरात में मुंद्रा बंदरगाह (समूह द्वारा संचालित) पर पहुंचने पर घोषित आयात मूल्य 4.3 मिलियन डॉलर तक बढ़ा दिया गया था।  

अलग से, इंडोनेशियाई घोषणाओं के अनुसार, कहा जाता है कि 30 नौपरिवहन ने उल्लिखित अवधि के दौरान 3.1 मिलियन टन कोयले का परिवहन किया है, जिसका मूल्य $139 मिलियन है, जिसमें शिपिंग और बीमा लागत में अन्य $3.1 मिलियन को छोड़कर (इस प्रकार, कुल मिलाकर लगभग $142 मिलियन) शामिल है।  हालाँकि, भारत में कस्टम अधिकारियों को घोषित कीमत $215 मिलियन थी।  इससे $73 मिलियन का लाभ हुआ, जो कि, एफटी के अनुसार, "प्रशंसनीय शिपिंग लागत से कहीं अधिक था"।

कोयला व्यापार मोटे तौर पर "कम या एकल अंकों में लाभ मार्जिन के साथ उच्च मात्रा में प्रतिस्पर्धी व्यवसाय" प्रतिमान का अनुसरण करता है। यानी, इसमें लाभ का मार्जिन कम रहता है। इसके अतिरिक्त, कोयले की आवश्यक प्रकृति को देखते हुए, कड़े सरकारी नियम भी,  आवश्यक हो जाते हैं।  इसलिए, यह जरूरी हो जाता है कि खनिक अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारण करते समय इन कारकों पर विचार करें ताकि व्यापारियों के लिए कुछ प्राप्त करना सार्थक हो सके।  संबंधित संदर्भ में, इंडोनेशियाई व्यापार के एक विशेषज्ञ ने, एफटी को बताया कि बाजार मूल्य से कुछ डॉलर से, अधिक की कोई भी चीज़, लोगों की निगाह में, संदिग्ध बना देती है।

यहीं यह सवाल उठता है, यह कथित प्रक्रिया कैसे चलाई गई?

जांच के केंद्र में, तीन "बिचौलिये" या अपतटीय (ऑफशोर) संस्थाये हैं, जिन्होंने अडानी समूह को कोयले की आपूर्ति की और कहा जाता है कि उन्होंने "भारी मात्रा में" मुनाफा कमाया।  इनमें ताइपे में हाय लिंगोस, दुबई में टॉरस कमोडिटीज जनरल ट्रेडिंग और सिंगापुर में पैन एशियन ट्रेडलिंक शामिल हैं।  जुलाई 2021 से आयात डेटा से संकेत मिलता है कि समूह ने कोयले की आपूर्ति के लिए संस्थाओं को कुल 4.8 बिलियन डॉलर का भुगतान किया - जो बाजार कीमतों के लिए पर्याप्त प्रीमियम है।  

आगे के परिप्रेक्ष्य के लिए, सितंबर 2021 और जुलाई 2023 के बीच अडानी एंटरप्राइजेज द्वारा 73 मिलियन टन कोयले का आयात (2,000 शिपमेंट में) किया गया था। 73 मिलियन आयातित कोयले में से, 42.2 मिलियन टन की आपूर्ति, अपने स्वयं के संचालन द्वारा 130 डॉलर की औसत (घोषित) कीमत पर की गई थी।  प्रति टन, जबकि तीन बिचौलियों के लिए औसत कीमत 155 डॉलर प्रति टन थी।  अलग से, हाई लिंगोज़ से आयात $149 प्रति टन, टॉरस से $154.43 और पैन एशिया से $168.58 घोषित किया गया था।

फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार,  हाय लिंगोस का स्वामित्व ताइवानी व्यवसायी चांग चुंग-लिंग के पास था।  ऐसा माना जाता है कि वह 2013 से कम से कम 2017 की शुरुआत के बीच गुप्त रूप से तीन-सूचीबद्ध अडानी कंपनियों में सबसे बड़े शेयरधारकों में से एक था। उच्चतम प्रीमियम वाले पैन एशिया ट्रेडलिंक के पास अडानी पावर को छोड़कर कोई अन्य भारतीय ग्राहक नहीं था।

इन सब आरोपों के बारे में, अडानी समूह का खंडन दो बिंदुओं पर केंद्रित है। जिसका आधार, राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) के मार्च 2016 के परिपत्र में अंकित विंदु हैं। उक्त परिपत्र के अनुसार जारी नोटिस में कहा गया है कि, "इंडोनेशियाई कोयले के कुछ आयातक वास्तविक मूल्य की तुलना में कृत्रिम रूप से इसके आयात मूल्य को बढ़ा रहे थे"। हालांकि उक्त सर्कुलर में रिलायंस इंफ्रा, जेएसडब्ल्यू स्टील्स और एस्सार सहित 40 निजी बिजली उत्पादकों के तो नाम है, लेकिन अडानी समूह का नाम, इसमें शामिल नहीं किया गया है। यह भी एक संदेह का कारण है कि अडानी समूह का नाम इस परिपत्र में क्यों नहीं है? हालांकि, अडानी अपने बचाव में यही तर्क देते है कि डीआरआई ने उनका नाम नहीं लिया है। 

अडानी समूह ने तर्क दिया कि परिपत्र में उल्लिखित 40 आयातकों में से एक को, दिए गए कारण बताओ नोटिस को, सीमा शुल्क उत्पाद शुल्क और सेवा कर अपीलीय न्यायाधिकरण (CESTAT) द्वारा रद्द कर दिया गया था। यानी कोई अनियमितता नहीं मिली थी या अनियमितता प्रमाणित नहीं हो पाई थी।  इसके अलावा, डीआरआई की अपील को भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 24 जनवरी 2023 को इस टिप्पणी के साथ खारिज कर दिया कि 'हम व्यर्थ मुकदमेबाजी में शामिल न होने के सरकार के रुख की सराहना करते हैं।'

दूसरे, अडानी समूह ने, आरोप लगाया कि, फाइनेंशियल टाइम्स की खोजी रिपोर्ट में इस बात को नजरअंदाज किया गया कि, भारत में कोयले की खरीद "खुली, पारदर्शी, वैश्विक बोली प्रक्रिया के माध्यम से दीर्घकालिक आपूर्ति के आधार पर की गई थी, जिससे मूल्य में हेरफेर की कोई भी संभावना खत्म हो गई"।  इसमें बताया गया है कि टैरिफ का मूल्यांकन,  केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग द्वारा "सभी पहलुओं, बिजली उत्पादन, वितरण, खुदरा उपभोक्ताओं  साथ परामर्श के बाद"  तय किए गए हैं।  इस प्रकार, कोयले के आयात मूल्य जैसे टैरिफ से संबंधित पहलुओं को निर्धारित करने के लिए कई अवसरों पर अध्ययन किया गया है।  इस आधार पर अडानी समूह का तर्क है कि, "अधिक चालान over इनवॉइसिंग या मूल्य में हेरफेर का सवाल ही नहीं उठता है।"

अडानी कोयले घोटाले में संदेह का मुख्य कारण है, सरकार का सर्कुलर जिसमे आयातित कोयला मंगवाना अनिवार्य किया गया है। सवाल इस पर उठता है कि, जब कोल इंडिया का कहना है कि, देश में कोयले का पर्याप्त भंडार है, रेलवे का कहना है कि, उनके पास कोयले की ढुलाई के लिए रैक की कमी नहीं है, तब आखिर डॉलर खर्च कर के विदेश से कोयला आयात करने की जरूरत क्या है। देश में कुल 181 बिजली घर हैं, जिनकी निगरानी सरकार करती है। एक बात और, हर बिजलीघर में आयातित कोयला इस्तेमाल भी नहीं हो सकता है, और ऐसा बीजलीघर की डिजाइन के कारण है। आयातित कोयले की बढ़ी कीमतों का असर, लोगों के बिजली बिल पर पड़ रहा है। जो सरकारें रियायती बिजली देती हैं, यह खर्च उन पर पड़ रहा है और यह सारा भार, प्रकारांतर से, जनता के ऊपर पड़ रहा है, जो टैक्स के रूप में इसे भुगतती है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Wednesday, 18 October 2023

1917 की बालफोर घोषणा ने इजराइल की अवधारणा को जन्म दिया था / विजय शंकर सिंह

विभिन्न कारणों से जन्मे इजराइल और पाकिस्तान में एक विचित्र समता है। यह समता है, दोनो ही देशों के निर्माण में केंद्रीय भूमिका धर्म की रही है और दोनो ही देशों के जन्म की पृष्ठभूमि में, ब्रिटिश साम्राज्य की कुटिल नीतियां रही हैं। पर एक महत्वपूर्ण अंतर यह भी है कि, पाकिस्तान जहां, भारत का अंगभंग करके बनाया गया है, वही इजराइल, एक सर्जरी की तरह, फिलिस्तीन के कुछ हिस्सों में, इंप्लांट किया गया है। पाकिस्तान इस भूभाग के लिए विदेशी नहीं है और न ही यह थोपा गया है, बल्कि एक सांझी संस्कृति और सांझी विरासत का बंटा हुआ रूप है, जैसे किसी परिवार में, जो सदियों से साथ साथ जीते मरते रहते हुए, एक सुबह बंट कर अलग हो जाते हैं, पर पट्टीदारी के सारे झगड़े, फसाद, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्धा के सामान्य मानवीय भावो के साथ साथ जीते रहते हैं। वहीं, इजराइल, इतिहास के एक बेहद लंबे दौर, जिसे दो हजार साल का गैप भी कहा जा सकता है, के रूप में एक नश्तर की तरह, फिलिस्तीन में धंसा हुआ दिखता है। 

पाकिस्तान का गठन और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की कहानी और इतिहास हम सब जानते हैं, पर इजराइल के जन्म के बारे में अधिकतर यही जानते हैं कि, वह भूमि जहां आज इजराइल आबाद है, वह किसी समय, हालांकि यह समय काफी पीछे तक चला जाता है, हजरत मूसा और उन्हें मानने वाले समुदाय यहूदियों, जिनका नामकरण, जुडास के नाम पर पड़ा है की, पवित्र भूमि है और सदियों से निर्वासित, निंदित, और प्रताड़ित इस समाज को एक ठौर दिलाने का नेक काम ब्रिटिश हुकूमत ने किया है। ब्रिटिश हुकूमत या साम्राज्य, खुद को, रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध कविता, द व्हाइट मैंस बरडेन, के अनुसार, दुनियाभर की अश्वेत समूह को सभ्य बनाने के, महती कार्य के लिए एक अवतार के समान, समझता था। नीली आंखें और सफेद गोरा रंग, आभिजात्य और सभ्यता की एक नई परिभाषा लेकर पूरी दुनिया में फैल गया था। आर्थिक आधिपत्य और शोषण के उद्देश्य से किया गया अंग्रेजी साम्राज्य विस्तार, प्रत्यक्षतः सेक्युलर दिखता हुआ भी, परोक्ष रूप से ईसाई मिशनरियों और  धर्म परिवर्तन के पोशीदा एजेंडे के साथ दुनिया भर में विस्तार पा रहा था। 

अरब या सामान्य रूप से जिस इलाके को ब्रिटिश मिडिल ईस्ट के नाम से पुकारते हैं वह इलाका ऑटोमन साम्राज्य का था, जिसका केंद्र तुर्की था और उसका प्रमुख खलीफा तथा उसकी गद्दी को खिलाफत कहा जाता था। मिडिल ईस्ट इसलिए कि, इंगलैंड से यह इलाका, पूर्व की ओर तो है, पर बहुत पूर्व की ओर न होकर, मध्य पूर्व में अवस्थित है। तब इसी मिडिल ईस्ट में, दुनिया के बड़े और महत्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक ऑटोमन साम्राज्य, की हैसियत, इस्लाम के लिए एक धार्मिक प्रमुख के रूप में भी थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस साम्राज्य का खात्मा हो गया और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इजराइल अस्तित्व में आ गया। 1876 से ओटोमन साम्राज्य पर अब्दुलहमीद द्वितीय ने शासन किया था, लेकिन एक क्रांतिकारी आंदोलन, जिसे यंग तुर्क के नाम से जाना जाता है, अब्दुल हमीद द्वितीय के राजशाही शासन के विरोध में खड़ा हुआ और 1909 तक, इस क्रांतिकारी आंदोलन ने, सुल्तान को पदच्युत कर दिया । 

प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में ओटोमन,  जर्मनी की ओर से लड़े थे, तो वे स्वाभाविक रूप से ब्रिटेन के निशाने पर आ गए। इस महायुद्ध में ओटोमन की हार के कारण, तुर्की में राष्ट्रवाद की लहर चली। साल, 1920 में हुए, युद्धोत्तर समझौते में, ओटोमन साम्राज्य का क्षेत्र, बहुत कम हो गया जिसने, राष्ट्रवादियों को नाराज कर दिया। तभी मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में एक नई सरकार, जिसे अतातुर्क के नाम से जाना जाता है, अंकारा, तुर्की में उभरती है और अंतिम तुर्क सुल्तान, मेहमेद VI , सल्तनत समाप्त होने के बाद 1922 में, तुर्की से भाग गया। इसके बाद, 1923 में तुर्की को एक गणतंत्र घोषित कर दिया गया। अतातुर्क तुर्की के पहले राष्ट्रपति बने और तुर्की का आधुनिकीकरण, उन्ही के समय शुरू हुआ।  

साल 1917 में अरब के इलाके विशेषकर बगदाद पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया और प्राचीन मेसोपोटामिया में एक नया देश अस्तित्व में आया, इराक। पर इसी साल 1917 में एक ऐसी घोषणा होती है जिसने इजराइल के जन्म की पृष्ठभूमि के रूप में समझा और माना जा सकता है। यह घोषणा थी, वालफोर घोषणा। 2 नवंबर, 1917 को हुईं बाल्फोर घोषणा, "फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर की स्थापना" हेतु, ब्रिटिश समर्थन के प्रथम संकेत के रूप में देखी जाती है। यह वादा,  ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बालफोर द्वारा एंग्लो-यहूदी समुदाय के नेता रोथ्सचाइल्ड, को लिखे एक पत्र में किया गया था।  हालाँकि पत्राचार का सटीक अर्थ, विवादित रहा है, लेकिन इसके बयान आम तौर पर साइक्स-पिकोट समझौते (ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक गुप्त सम्मेलन) और औसैन-मैकमोहन पत्राचार (मिस्र में ब्रिटिश उच्चायुक्त के बीच पत्रों के आदान-प्रदान) दोनों के विरोधाभासी थे। बालफोर घोषणा के अनुसार, “यहूदी आबादी के लिए मातृभूमि या देश” की स्थापना का समर्थन किया गया था। हालाँकि यह घोषणा एक सदी पुरानी है, लेकिन, इसके झटके आज भी महसूस किए जाते हैं।

पत्र इस प्रकार था, 
"मुझे आपको यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है। सम्राट की सरकार ओर से, यहूदी ज़ायोनी आकांक्षाओं के साथ सहानुभूति की निम्नलिखित घोषणा को मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत किया गया है, और अनुमोदित भी किया गया है

सम्राट की सरकार, यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर के रूप में, फिलिस्तीन में स्थापना के पक्ष में है, और इस उद्देश्य की उपलब्धि को सुविधाजनक बनाने के लिए, अपने सर्वोत्तम प्रयासों का उपयोग करेगी। यह स्पष्ट रूप से समझा जा रहा है कि, ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों या किसी अन्य देश में यहूदियों द्वारा प्राप्त अधिकार और राजनीतिक स्थिति, नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले। 

यदि आप इस घोषणा को ज़ायोनी फेडरेशन के ज्ञान में लाएंगे तो मुझे आपका आभारी होना चाहिए।"

लंदन में ज़ायोनी नेताओं, चैम वीज़मैन और नहूम सोकोलो के निरंतर प्रयासों से जारी बाल्फोर घोषणा, ज़ायोनीवादियों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, जिन्होंने फ़िलिस्तीन को "यहूदी राष्ट्रीय घर" के रूप में पुनर्गठित करने के लिए कहा था। घोषणा में विशेष रूप से कहा गया है कि "ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।"  हालाँकि, दस्तावेज़ में इन समुदायों के राजनीतिक या राष्ट्रीय अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहा गया और न ही उनका नाम बताया गया।  फिर भी, इस घोषणा से ज़ायोनीवादियों में उत्साहपूर्ण आशाएँ जगीं और ऐसा लगा कि यह विश्व ज़ायोनी संगठन के उद्देश्यों को पूरा कर रहा है। 

ब्रिटिश सरकार को उम्मीद थी कि यह घोषणा प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान केंद्रीय शक्तियों के खिलाफ मित्र देशों की शक्तियों के पक्ष में, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में, यहूदी जनमत को, उनके पक्ष में लाएगी। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि, ब्रिटिश समर्थक यहूदी आबादी के, फिलिस्तीन में बस जाने से पड़ोसी मिस्र में, स्वेज नहर जल मार्ग की रक्षा करने में भी, मदद मिल सकती है और इस तरह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण और निरापद सागर मार्ग, सुनिश्चित हो सकता है। बाल्फोर घोषणा को, ब्रिटेन की, प्रमुख सहयोगी शक्तियों का समर्थन प्राप्त था और इसे फ़िलिस्तीन पर लागू करने के लिए, ब्रिटिश शासनादेश में शामिल किया गया था, जिसे औपचारिक रूप से 24 जुलाई, 1922 को नव निर्मित, लीग ऑफ नेशंस द्वारा, अनुमोदित किया गया था।

यद्यपि कि, बाल्फोर घोषणा कई वर्षों की सावधानीपूर्वक बातचीत का परिणाम थी, इस घोषणा के ऐतिहासिक कारकों को सरल शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है।

फ्रांस में 1894 के ड्रेफस मामले ने, सदियों से प्रवासी रूप में रहने के बाद, यहूदियों को यह महसूस होने लगा कि, जब तक उनका, अपना देश नहीं होगा, वे मनमाने विरोधीवाद से सुरक्षित नहीं होंगे। इसके फलस्वरूप, यहूदियों ने ज़ियोनिज़्म की अवधारणा को सुदृढ़ करने के लिए, सक्रिय राजनीतिक पैंतरेबाज़ी को बढ़ावा दिया, और इन माध्यमों से, यहूदी मातृभूमि का निर्माण की संभावना को जमीन पर उतारने का प्रयास शुरू किया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान ज़ायोनीवाद की अवधारणा, तब अधिक लोकप्रिय हो गई, जब ब्रिटेन ने इसे आधिकारिक रूप से स्वीकार कर, अपना समर्थन दे दिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव, आर्थर बालफोर का एंग्लो-यहूदी नेता, लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड को संबोधित, उपरोक्त पत्र, को, इस विषय में, ब्रिटेन की पहली सार्वजनिक स्वीकारोक्ति मानी जाती है। इस लिखित सार्वजनिक पत्र में तुर्क साम्राज्य के विघटन के बाद फिलिस्तीन के लिए ब्रिटिश जनादेश की शर्तें भी शामिल थीं।

यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस के बीच, इटली और रूसी साम्राज्य की सहमति से, तुर्क साम्राज्य के अंतिम विभाजन में प्रभाव और नियंत्रण के उनके पारस्परिक रूप से सहमत क्षेत्रों को परिभाषित करते हुए, 1916 में, द साइक्स-पिकोट समझौता हुआ। इस समझौते में, अरब देशों के लिए असंभव और अवास्तविक वादे किए गए, जिसका एक परिणाम, बाद में इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष के रूप में भी हुआ। इसके साथ ही इसमें अन्य शर्तें भी थीं, जैसे कि, यह नियम कि, ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मन, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य जैसे युद्ध में पराजित शक्तियों को पहले नियंत्रित क्षेत्रों से स्थानांतरित और विभाजित किया जाना था। इस प्रकार, जनादेश प्रणाली घोषित करने का मुख्य उद्देश्य युद्ध के विजेताओं को नए उभरते राज्यों को स्वतंत्र होने तक, प्रशासन करने की अनुमति देना था। हालाँकि, इस्लामी दुनिया में, इसे मित्र देशों की शक्तियों द्वारा स्थापित उस समय की तथाकथित जनादेश प्रणाली को, व्यवसाय और उपनिवेशवाद के रूप में देखा जाता है। बाल्फोर घोषणापत्र जारी हुए लगभग 105 वर्ष बीत चुके हैं। इज़राइल के नए राज्य की घोषणा – एक घटना थी, जिसे आज भी अरबी में नकबा (आपदा तबाही) के रूप में जाना जाता है। 

बालफोर घोषणापत्र क्यों जारी किया गया था, यह सवाल अभी भी वैश्विक राजनीतिक बहस का विषय है। हालाँकि, विश्व के राजनेता और इतिहासकार विभिन्न स्रोतों का उपयोग करके अलग-अलग कारण बताते हैं। हालांकि, मुख्य रूप से ऐसे कई कारण हैं, जिन पर आम तौर पर सहमति होती है। जैसे, 
० यूरोप में, यहूदियों को सताया जा रहा था और ब्रिटिश सरकार को उनकी पीड़ा के प्रति सहानुभूति थी।
० तीव्र ज़ायोनी लॉबिंग और ब्रिटेन और ब्रिटिश सरकार में ज़ायोनी समुदाय के बीच मजबूत संबंध; कुछ सरकारी अधिकारी स्वयं यहूदीवादी थे।
० इस प्रकार, ब्रिटेन को रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले यहूदियों के बीच समर्थन हासिल करने के लिए ज़ायोनीवादियों के साथ सहयोग करना पड़ा, इस उम्मीद में कि वे अपनी सरकार को युद्ध में बने रहने और जीत तक सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर सकें।
० फिलिस्तीन पर ब्रिटेन का नियंत्रण मिस्र और स्वेज नहर को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखने के लिए एक रणनीतिक साम्राज्यवादी हित था।

यह पहल वैश्विक राजनीति में पहली थी, जब विश्व की प्रमुख शक्तियों में से एक ने आधिकारिक तौर पर यहूदी कारणों के लिए, अपना समर्थन व्यक्त किया था। बालफोर घोषणापत्र ने फिलिस्तीन के निर्माण को अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा, इसने इरेट्ज़ इज़राइल में यहूदी उपस्थिति को बहुत बढ़ावा दिया। घोषणा के अनुसार: ब्रिटेन और उसके डोमिनियन, संवैधानिक रूप से समान थे। यद्यपि, कई इस्लामी देशों ने इसे अंग्रेजों द्वारा विश्वासघात के रूप में देखा गया था। अंत में, रिपोर्ट के निष्कर्षों को ब्रिटिश संसद द्वारा 1931 में वेस्टमिंस्टर के कानून में एक कानूनी रूप भी दे दिया गया।

दरअसल, ज़ायोनीवाद साल 1800 के दशक के अंत में एक यहूदी राष्ट्रवादी आंदोलन था, जो यहूदी लोगों की प्राचीन मातृभूमि फिलिस्तीन में एक यहूदी राष्ट्रीय राज्य के निर्माण और समर्थन पर निर्देशित था। इसकी स्थापना थियोडोर हर्ज़ल के लेखन पर हुई थी। इस प्रकार, यहूदियों और यहूदी धर्म के प्राचीन लगाव की निरंतरता को कई मायनों में फिलिस्तीन के ऐतिहासिक क्षेत्रों के रूप में देखा जाता है। 
यहूदी धर्म की मान्यता के अनुसार, जहां प्राचीन यरुशलम की पहाड़ियों में से एक को, सिय्योन कहा जाता था। कई स्व-घोषित ज़ायोनीवादी मौलिक सिद्धांतों और राजनीतिक विचारों के संदर्भ में एक-दूसरे से भिन्न हैं, जिसमें कुछ ज़ायोनी अनुयायी धार्मिक रूप से कट्टर हैं जबकि अन्य अधिक धर्मनिरपेक्ष हैं।

इस विवादास्पद आंदोलन ने आलोचना और कई चुनौतियों को जन्म दिया है।
हालाँकि ज़ायोनीवाद ने, इज़राइल में यहूदी आबादी को बढ़ाने में, सफलता पाई है। चैम वीज़मैन वर्ष 1949 में इज़राइल के पहले राष्ट्रपति चुने गए, जो ज़ायोनी संगठन के अध्यक्ष थे।

इस प्रकार, बाल्फोर घोषणा ने इज़राइल राज्य का निर्माण किया। क्योंकि ब्रिटिश, बालफोर घोषणा की शर्तों के अनुसार, एक यहूदी मातृभूमि के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध थे।
अमेरिकियों ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन किया, लेकिन, कुछ बिंदुओं पर, वे विरोध में थे। ब्रिटिश सरकार के कई लोगों का मानना ​​था कि, बालफोर घोषणा एक गलती थी और इससे केवल अस्थिरता और संघर्ष ही पैदा होगा, जो अब दिख भी रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, अरब देशों ने इस घोषणा का विरोध किया था, लेकिन, ब्रिटेन के विजयी सहयोगियों ने इसका समर्थन किया, और तब यह आधिकारिक ब्रिटिश नीति बन गई थी। हालांकि, इसका अंतरराष्ट्रीय कानून में कोई आधार नहीं था, इसलिए, यह भी तर्क दिया था कि ब्रिटेन ने अपने अरब सहयोगियों को धोखा दिया था जिन्होंने महान अरब विद्रोह (1916-1918) में भाग लिया था।

अरब देशों के अनुसार, बालफोर घोषणा ने न  केवल, अरब-इजरायल संघर्ष को, जन्म दिया है बल्कि, मध्य पूर्व और व्यापक दुनिया को भी अस्थिर कर दिया है। रोचक तथ्य यह भी है कि, 1939 में, ग्रेट ब्रिटेन ने एक श्वेत पत्र जारी करके अपनी बालफोर घोषणा को वापस ले लिया, जिसमें कहा गया था कि यहूदी राज्य का निर्माण अब ब्रिटिश नीति नहीं रही। यह फिलिस्तीन के प्रति, ग्रेट ब्रिटेन की नीति में भी, बदलाव था, विशेष रूप से श्वेत पत्र, जिसने लाखों यूरोपीय यहूदियों को होलोकॉस्ट से पहले और उसके दौरान नाजी-कब्जे वाले यूरोप से फिलिस्तीन में जाने से रोक दिया था।

फ़िलिस्तीन ने बालफ़ोर घोषणा को यह कहते हुए स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि इस घोषणा के कारण कई दशकों से फ़िलिस्तीनी लोगों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
क्योंकि इस घोषणा से गैर-यहूदी समुदायों के हितों को दरकिनार कर दिया गया था। इस प्रकार, घोषणा ने, न केवल फिलिस्तीन में तनाव बढ़ा दिया, और कई स्थानीय ईसाइयों और मुसलमानों ने यहूदियों का विरोध भी किया। लगभग तुरंत ही साम्प्रदायिक हिंसा के फैलने की एक श्रृंखला छिड़ गई। कई फ़िलिस्तीनी कस्बों और शहरों में यहूदी-विरोधी दंगे भड़क उठे। इसके अलावा, 1930 के मध्य में यरूशलेम में दंगों के बाद, 1936 और 1939 के बीच पूर्ण पैमाने पर अरब विद्रोह हुए।

बाल्फोर घोषणा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लिया गया एक निर्णय था और यह इस धारणा पर आधारित था कि पश्चिमी शक्तियां युद्ध जीतेंगी और ओटोमन साम्राज्य को अपनी इच्छानुसार व्यवस्थित करेंगी। इसके अलावा, यह निश्चित रूप से ज़ायोनी समर्थक था, जिसे एक यहूदी मातृभूमि बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया था जिसे मध्य पूर्व में ब्रिटिश हितों को आगे बढ़ाने की उम्मीद थी और स्थानीय फिलिस्तीनियों की इच्छाओं का सम्मान करने का दावा किया गया था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, भारत में जैसे मुसलमानों के लिए, पृथक निर्वाचक मंडल की नीति, आगे चल कर द्विराष्ट्रवाद की नीति बनी, और भारत विभाजन की पीठिका तैयार हुई, उसी प्रकार, बालफ़ोर घोषणा एक दूसरे धर्म आधारित राष्ट्र के निर्माण की भूमिका थी। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Tuesday, 17 October 2023

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सांसद महुआ मोइत्रा के खिलाफ भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की शिकायत को सदन की आचार समिति Ethics committee के पास भेजा / विजय शंकर सिंह

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला द्वारा तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सांसद महुआ मोइत्रा के खिलाफ भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की शिकायत को सदन की आचार समिति के पास भेजने के साथ, यह पैनल फिर से खबरों में है। बीजेपी एमपी, निशिकांत दुबे ने टीएमसी एमपी, महुआ मोइत्रा पर संसद में सवाल पूछने के लिए एक बिजनेसमैन से पैसे लेने का आरोप लगाया है।

निशिकांत दुबे द्वारा लगाए गए आरोपों का जवाब देते हुए, महुआ मोइत्रा ने कहा है कि, लोकसभा अध्यक्ष को उनके खिलाफ कोई भी प्रस्ताव शुरू करने से पहले निशिकांत दुबे और अन्य भाजपा नेताओं के खिलाफ लंबित विशेषाधिकारों के कई उल्लंघनों की जांच करनी चाहिए।

लोकसभा के अध्यक्ष, एक वर्ष के लिए, एथिक्स कमेटी के सदस्यों की नियुक्ति करते हैं और फिलहाल, इस समिति के अध्यक्ष भाजपा के एमपी, विनोद कुमार सोनकर हैं।  समिति के अन्य सदस्य विष्णु दत्त शर्मा, सुमेधानंद सरस्वती, अपराजिता सारंगी, डॉ. राजदीप रॉय, सुनीता दुग्गल और भाजपा के सुभाष भामरे हैं;  वी वैथिलिंगम, एन उत्तम कुमार रेड्डी, बालाशोवरी वल्लभनेनी, और कांग्रेस की परनीत कौर;  शिव सेना के हेमंत गोडसे;  जद (यू) के गिरिधारी यादव;  सीपीआई (एम) के पी आर नटराजन;  और बसपा के दानिश अली है। 

दो दशक पहले अस्तित्व में आने के बाद से, समिति की आखिरी बैठक, संसद की वेबसाइट के अनुसार, 27 जुलाई, 2021 को हुई थी और तब समिति ने कई शिकायतें सुनी। लेकिन वे शिकायतें, काफी हद तक हल्की प्रकृति की रही हैं।  अतीत में अधिक गंभीर शिकायतें या तो विशेषाधिकार समिति द्वारा या विशेष रूप से सदन द्वारा गठित किसी समिति द्वारा सुनी गई हैं।

2005 में, पीके बंसल समिति की रिपोर्ट के आधार पर कुख्यात कैश-फॉर-क्वेरी घोटाले में 11 सांसदों को निष्कासित कर दिया गया था जिसमें, 10 लोकसभा और एक राज्यसभा के सदस्य थे। पीके  बंसल, कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद थे। तब  भाजपा ने सांसदों को निष्कासित करने के लोकसभा के फैसले का विरोध करते हुए मांग की कि बंसल समिति की रिपोर्ट विशेषाधिकार समिति को भेजी जाए ताकि सांसद अपना बचाव कर सकें।

पूर्व लोकसभा महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा कि, 2005 के मामले में "बहुत सारे सबूत" थे और यह एक स्टिंग ऑपरेशन पर आधारित था। जबकि, यहां चुनौती, पश्चिम बंगाल के सांसद द्वारा पूछे गए सवालों को पैसे के लेन-देन से जोड़ने की होगी।

1996 में दिल्ली में पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में पहली बार संसद के दोनों सदनों के लिए नैतिकता पैनल Ethics committee के गठन विचार पर विचार किया गया।  उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति के विशेषाधिकार समिति पर लागू नियम, नैतिकता पैनल पर भी लागू होते हैं।

लोकसभा आचार समिति की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि अलग है।  लोकसभा की विशेषाधिकार समिति के एक अध्ययन समूह ने विधायकों के आचरण और नैतिकता से संबंधित क्रियाकलापों, प्रथाओं और परंपराओं का अध्ययन करने के लिए 1997 में ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका का दौरा किया था। उक्त अध्ययन के बाद, इसने एक आचार समिति के गठन के लिए एक रिपोर्ट का मसौदा तैयार किया लेकिन रिपोर्ट को पटल पर रखे जाने से पहले ही, तत्कालीन लोकसभा भंग कर दी गई थी।

इसे 12वीं लोकसभा में पेश किया गया था लेकिन इससे पहले कि विशेषाधिकार समिति इस पर कोई विचार कर पाती, बारहवीं लोकसभा फिर से भंग हो गई।  13वीं लोकसभा के दौरान विशेषाधिकार समिति ने अंततः एक आचार समिति के गठन की सिफारिश की।  दिवंगत अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी ने 2000 में एक तदर्थ आचार समिति का गठन किया और वह, 2015 में सदन का स्थायी हिस्सा बन गई।

आज की स्थिति के अनुसार, कोई भी व्यक्ति, किसी सदस्य के खिलाफ किसी अन्य लोकसभा सांसद के माध्यम से कदाचार के सभी सबूतों और एक हलफनामे के साथ शिकायत कर सकता है कि शिकायत "झूठी, तुच्छ या परेशान करने वाली" नहीं है।  एक सदस्य भी किसी अन्य सदस्य के खिलाफ बिना किसी शपथ पत्र के सबूत के साथ शिकायत कर सकता है।  समिति केवल मीडिया रिपोर्टों या न्यायाधीन मामलों पर आधारित शिकायतों पर विचार नहीं करती है। अध्यक्ष किसी सांसद के खिलाफ कोई भी शिकायत, समिति को भेज सकते हैं। समिति किसी शिकायत की जांच करने का निर्णय लेने से पहले प्रथम दृष्टया जांच करती है और शिकायत के मूल्यांकन के बाद अपनी सिफारिशें करती है।

समिति की रिपोर्ट अध्यक्ष को प्रस्तुत की जाती है जो सदन से पूछता है कि क्या रिपोर्ट पर विचार किया जाना चाहिए।  रिपोर्ट पर आधे घंटे की चर्चा का भी प्रावधान है.

यह विशेषाधिकार समिति से कुछ मामलों में अलग प्रकृति की है। लेकिन अक्सर, आचार समिति और विशेषाधिकार समिति का काम, ओवरलैप हो जाता है।  किसी सांसद के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप किसी भी निकाय को भेजा जा सकता है क्योंकि इसमें विशेषाधिकार के गंभीर उल्लंघन और सदन की अवमानना ​​​​का आरोप शामिल है। जबकि यह समिति अनैतिक आचरण के सामान्य मामलों की ही जांच पड़ताल करती है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

मनीष सिसोदिया की जमानत पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुरक्षित / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की जमानत याचिका पर आदेश सुरक्षित रख लिया, जो राष्ट्रीय राजधानी में अब खत्म हो चुकी शराब नीति के निर्माण और कार्यान्वयन में कथित अनियमितताओं को लेकर मनी लॉन्ड्रिंग और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं।  मनीष सिसोदिया, इस साल फरवरी से हिरासत में हैं और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) दोनों उनकी जांच कर रहे हैं।

न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और एसवीएन भट्टी की पीठ दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई और ईडी दोनों मामलों में जमानत देने से इनकार करने के खिलाफ मनीष सिसोदिया की याचिका पर सुनवाई कर रही है। शीर्ष अदालत ने पिछले महीने 14 जुलाई को उनकी याचिकाओं पर नोटिस जारी किया था।

आज हुई अंतिम बहस में, सिसौदिया की ओर से पेश वरिष्ठ वकील डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत सीबीआई के अपराध में सिसौदिया के खिलाफ रिश्वतखोरी का कोई आरोप नहीं था।  उन्होंने कहा, "अगर कोई द्वेषपूर्ण अपराध नहीं है, तो ईडी वहां नहीं हो सकता।"  उन्होंने प्रस्तुत किया कि हवाई अड्डे पर लाइसेंस के संबंध में शराब नीति में संशोधन के संबंध में 220 करोड़ की रिश्वत का आरोप, विधेय अपराध का हिस्सा नहीं है।  “विषयक अपराध के बिना, यह 220 कुछ भी नहीं है। 

इसके बाद जस्टिस खन्ना एएसजी की ओर मुड़े और कहा, "श्री राजू [अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू], यदि यह विधेय अपराध का हिस्सा नहीं है, कि यह रिश्वत दी गई थी, तो आपको पीएमएलए साबित करने में कठिनाई हो सकती है। यदि आपने कहा था कि नीति में बदलाव के लिए 2.2 करोड़ की रिश्वत दी गई थी , हां। लेकिन आप अपने पीएमएलए मामले में कोई विशेष अपराध नहीं बना सकते। हम किसी धारणा पर नहीं चल सकते। कानून में जो भी सुरक्षा दी गई है, उसे पूरी तरह से बढ़ाया जाएगा। अगर सुरक्षा नहीं है, तो वह नहीं है।"

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने इसका जवाब देते हुए तर्क दिया कि, "पीएमएलए की धारा 66 (2) के अनुसार, ईडी किसी भी नई जानकारी के बारे में क्षेत्राधिकार पुलिस को सूचित कर सकता है।"
जिस पर न्यायमूर्ति खन्ना ने जवाब दिया, "लेकिन आपने ऐसा नहीं किया है, इसलिए हम अनुमान पर नहीं चलेंगे।"

एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क दिया कि, "विजय मदनलाल चौधरी के फैसले के अनुसार अपराध की आय का सृजन केवल विधेय अपराध में होता है।  उन्होंने कहा, "ईडी समेत सभी लोग चाहते हैं कि विजय मदनलाल चौधरी फैसले पर पुनर्विचार किया जाए?"
सीनियर एडवोकेट, सिंघवी ने आगे यह भी कहा कि, "एक प्रमुख जांच एजेंसी के रूप में ईडी पारदर्शी होने के लिए बाध्य है।"
विशेष रूप से, सुनवाई की शुरुआत में, एएसजी ने विजय मदनलाल चौधरी के फैसले की एक पंक्ति पढ़ी थी जिसमें कहा गया था कि, "धारा 45 पीएमएलए के अनुसार जमानत केवल "वास्तविक मामले" में दी जा सकती है।"

आज की सुनवाई के दौरान एएसजी ने कोर्ट को यह भी बताया कि, "सुनवाई 9 से 12 महीने में खत्म हो सकती है।" सिंघवी ने कहा, "जब मुकदमा शुरू होना है और जब मुझसे जुड़ा कोई सबूत नहीं है, तब आप मुझे (मनीष सिसोदिया को) 500 गवाहों और 50,000 दस्तावेजों के साथ अंतरिम रूप से सलाखों के पीछे नहीं रख सकते।"
सिंघवी ने यह भी तर्क दिया कि, "शराब नीति "एक वर्ष में फैली संस्थागत, बहुस्तरीय निर्णय लेने की प्रक्रिया" का परिणाम थी।  उन्होंने कहा कि अपराध की आय से सीधे तौर पर, मनीष सिसौदिया का कोई लेना-देना नहीं है और वह बीमार हैं और इसलिए वह जमानत पर बाहर रहने के हकदार हैं।" 

सिंघवी ने कोर्ट को बताया कि, "आरोप यह है कि, नीति ही धोखाधड़ी के लिए बनाई गई थी।", 
हालांकि, उन्होंने तर्क दिया कि, "नीति कई समितियों द्वारा विचार-विमर्श के बाद पारदर्शी तरीके से बनाई गई थी और तत्कालीन एलजी द्वारा अनुमोदित की गई थी।" 
उन्होंने तर्क दिया कि, "ईडी का यह दावा कि शराब नीति के कारण कीमतें बढ़ीं, गलत था।"  
सिंघवी ने इसका खंडन किया और कहा कि, "शराब नीति लागू होने के बाद ग्राहकों को दी जाने वाली कीमत वास्तव में कम हो गई है।"

मनीष सिसौदिया पर लगे आरोप में कहा गया है कि, "उन्होंने इंडोस्पिरिट कंपनी को लाइसेंस देने के लिए एक्साइज अधिकारियों पर दबाव डाला था।" एएसजी एसवी राजू ने कल की सुनवाई में कोर्ट को बताया था, "पॉलिसी अवधि के लिए इंडोस्पिरिट का 12% लाभ मार्जिन 192 करोड़ रुपये था और सभी प्रयास किए गए थे कि इंडोस्पिरिट को यह मिले।"

आज की सुनवाई में सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि, "ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे पता चले कि सिसौदिया ने कानून का उल्लंघन करते हुए इंडोस्पिरिट को लाइसेंस देने पर जोर दिया था।"
सिंघवी ने कहा, "माना जाता है कि मेरे खिलाफ पैसे का कोई लेन-देन नहीं मिला है। वे जो कहते हैं वह यह है कि एक कंपनी ने मुनाफा कमाया और चूंकि मेरे द्वारा बनाई गई नीति से कंपनी को मदद मिली, इसलिए मैं इसमें शामिल हूं। यह बहुत दूर की कौड़ी है।"  

कल, एएसजी ने दावा किया था कि, "सिसौदिया ने एक मोबाइल फोन फेंककर सबूतों के साथ छेड़छाड़ की है, जो कथित तौर पर अभी तक बरामद नहीं हुआ है।" 
मंत्री अपने फोन बदलते हैं। यह एक मंत्री का फोन है। और इसे एफआईआर दर्ज होने से पहले ही छोड़ दिया गया था। क्या यह सबूतों से छेड़छाड़ का मामला बनता है?"  
सिंघवी ने आज कोर्ट में, एएसजी की इस तर्क पर कहा। 

वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क दिया कि, वर्तमान विधान सभा सदस्य और दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री सिसौदिया को सीधे तौर पर फंसाने वाले किसी भी पैसे के लेन-देन का खुलासा नहीं हुआ है।"  
उन्होंने आगे तर्क दिया कि, "कोई सबूत नहीं है, जो मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम, 2002 की धारा 3 में मनी लॉन्ड्रिंग के स्वतंत्र अपराध के साथ सिसोदिया को जोड़ता है।"
शराब नीति के विवाद के बारे में, सिंघवी ने तर्क दिया कि, "नई नीति, जो एक सामूहिक संस्थागत निर्णय था,  निजी विनिर्माताओं के बीच प्रचलित गुटबंदी को तोड़ने के उद्देश्य से - राजस्व में वृद्धि की गई और थोक विक्रेताओं द्वारा अर्जित अनुचित और अत्यधिक मुनाफे को सीमित किया गया।"
वरिष्ठ वकील ने इस तर्क के समर्थन में कि, "जमानत देने के मानदंडों को पूरा किया गया है, सिसोदिया के गवाहों को प्रभावित करने में उनकी असमर्थता पर भी जोर दिया।"

सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने अन्य बातों के अलावा, कथित उत्पाद शुल्क नीति घोटाले से कथित तौर पर लाभान्वित होने वाले राजनीतिक दल को शामिल न करने पर सवाल उठाया।  यह पूछताछ, जिसे अदालत ने बाद में स्पष्ट किया था, इसका मतलब केवल संदिग्ध सह-षड्यंत्रकारियों की दोष के संबंध में एक कानूनी प्रश्न था, जिसके कारण मीडिया रिपोर्टों की बाढ़ आ गई, जिसमें दावा किया गया कि प्रवर्तन निदेशालय आम आदमी पार्टी को आरोपियों में से एक के रूप में दोषी ठहराने की योजना बना रहा था। प्रेस द्वारा बयान के लिए पूछे जाने पर, अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल एसवी राजू ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि केंद्रीय एजेंसियों द्वारा उनके खिलाफ सबूत पाए जाते हैं तो किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।  मैराथन सुनवाई के दौरान, अदालत ने एजेंसियों से दिल्ली शराब नीति के निर्माण और कार्यान्वयन में कथित वित्तीय अनियमितताओं में सिसोदिया की भूमिका की जांच के संबंध में कई अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे।

आखिरी मौके पर, एएसजी राजू ने पीठ को बताया कि प्रवर्तन निदेशालय मनी लॉन्ड्रिंग मामले में आम आदमी पार्टी को आरोपी बनाने और परोक्ष देनदारी के पहलू की जांच करने के लिए मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम की धारा 70 को लागू करने पर विचार कर रहा है। शराब घोटाले के सिलसिले में राजनीतिक दल.  इसके अलावा, उन्होंने उपमुख्यमंत्री के रूप में उनके पद की ओर इशारा करते हुए, 18 विभागों को संभालने वाले, उत्पाद शुल्क नीति के विशेष प्रभार के साथ, और दावा किया कि उनके पास मनी-लॉन्ड्रिंग गतिविधियों में संलिप्तता के 'पर्याप्त' सबूत हैं। 

एएसजी राजू ने कहा, "उत्पाद शुल्क नीति के तहत थोक विक्रेताओं के लाभ मार्जिन में 5 प्रतिशत से 12 प्रतिशत की अचानक और अस्पष्ट वृद्धि से न केवल सरकारी खजाने को बल्कि उपभोक्ताओं को भी भारी नुकसान हुआ है।"  
एएसजी ने पीठ को बताया कि, "इस अतिरिक्त लाभ मार्जिन को भी अपराध की आय माना जा रहा है।"
इसके अलावा, अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल ने दावा किया कि,  "सिसौदिया ने सबूतों के साथ छेड़छाड़ की है, जिसमें अन्य बातों के अलावा, पूर्व उपमुख्यमंत्री के उस मोबाइल फोन का भी जिक्र है जो कथित तौर पर अभी तक बरामद नहीं हुआ है। "भले ही सबूतों के साथ छेड़छाड़ के आधार पर वे प्रथम दृष्टया जमानत के हकदार हों, इसे अस्वीकार किया जाना चाहिए।"

एएसजी की दलीलों के बाद, न्यायमूर्ति खन्ना ने परीक्षणों में देरी के बारे में केंद्रीय एजेंसियों से सवाल किया।  न तो सीबीआई और न ही ईडी मामले में आरोपों पर बहस शुरू हुई है।  न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से कहा कि,  "सिसोदिया को अनंत काल तक सलाखों के पीछे नहीं रखा जा सकता है, और आरोप पत्र दायर होने के तुरंत बाद बहस शुरू होनी चाहिए।"
"आप इसका उत्तर कल दे सकते हैं। बहस अभी तक क्यों शुरू नहीं हुई है और वे कब शुरू होंगी?"  न्यायमूर्ति खन्ना ने एएसजी राजू से पूछा, जिन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 के तहत आवेदनों का हवाला देते हुए उन दस्तावेजों का निरीक्षण करने के लिए कहा जिन पर अभियोजन पक्ष ने देरी के प्राथमिक कारणों में से एक के रूप में भरोसा नहीं किया है। उन्होंने पीठ को सूचित किया, "ईडी मामले में संज्ञान लिया गया है और समन जारी किया गया है। वे इसे जल्द से जल्द खत्म करने की कोशिश करेंगे।"

विवाद का मूल 2021 में राजस्व को बढ़ावा देने और शराब व्यापार में सुधार के लिए राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सरकार द्वारा बनाई गई उत्पाद शुल्क नीति है, जिसे बाद में कार्यान्वयन में अनियमितताओं के आरोप लगने के बाद वापस ले लिया गया था और उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना ने आदेश दिया था  नीति की केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा जांच की जाय। प्रवर्तन निदेशालय ईडी और केंद्रीय जांच ब्यूरो सीबीआई ने दावा किया है कि, "यह नीति - जो राष्ट्रीय राजधानी में शराब व्यापार को पूरी तरह से निजीकरण करने की मांग करती है - का उपयोग सार्वजनिक खजाने की कीमत पर निजी संस्थाओं को अनुचित लाभ देने और भ्रष्टाचार के लिए किया गया था।" फिलहाल जांच चल रही है और इसमें अन्य लोगों के अलावा दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख नेता मनीष सिसौदिया को भी गिरफ्तार किया गया है।

मनीष सिसौदिया को पहले केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 26 फरवरी को उत्पाद शुल्क नीति से संबंधित एक मामले में गिरफ्तार किया था और बाद में 9 मार्च को प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई द्वारा दर्ज की गई पहली सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) में, सिसौदिया और अन्य को  2021-22 की आबकारी नीति के संबंध में 'सिफारिश' करने और टेंडर के बाद लाइसेंसधारी को अनुचित लाभ पहुंचाने के इरादे से सक्षम प्राधिकारी की मंजूरी के बिना 'निर्णय लेने' में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का आरोप लगाया गया।"  केंद्रीय एजेंसी ने यह भी दावा किया है कि AAP नेता को इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने गोल-मोल जवाब दिए और सबूतों के सामने आने के बावजूद जांच में सहयोग करने से इनकार कर दिया।

दूसरी ओर, प्रवर्तन निदेशालय ने आरोप लगाया है कि कुछ निजी कंपनियों को थोक व्यापार में 12 प्रतिशत का लाभ देने की साजिश के तहत उत्पाद शुल्क नीति लागू की गई थी, हालांकि मंत्रियों के समूह (जीओएम) की बैठकों के मिनटों में ऐसी किसी शर्त का उल्लेख नहीं किया गया था।  एजेंसी ने यह भी दावा किया है कि थोक विक्रेताओं को असाधारण लाभ मार्जिन देने के लिए विजय नायर और साउथ ग्रुप के साथ अन्य व्यक्तियों द्वारा एक साजिश रची गई थी।  एजेंसी के मुताबिक, नायर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया की ओर से काम कर रहे थे।

दोनों मामलों में सिसौदिया की जमानत याचिकाएं - जिनकी जांच क्रमशः सीबीआई और ईडी द्वारा की गई - दिल्ली में राउज़ एवेन्यू कोर्ट के विशेष न्यायाधीश एमके नागपाल ने 31 मार्च और 28 अप्रैल को खारिज कर दी।

 पिछले महीने 3 जुलाई को दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी में पिछली शराब नीति के कार्यान्वयन से संबंधित मनी लॉन्ड्रिंग मामले में सिसोदिया को जमानत देने से इनकार कर दिया था।  इससे पहले 30 मई को हाई कोर्ट ने शराब नीति के संबंध में सीबीआई द्वारा दर्ज भ्रष्टाचार के मामले में उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

राघव चड्ढा के राज्यसभा के निलंबन याचिका पर, सुप्रीम कोर्ट ने, राज्यसभा सचिवालय को नोटिस जारी की / विजय शंकर सिंह

राज्यसभा ने अपने दो सांसदों को निलंबित कर रखा है। एक हैं संजय सिंह, दूसरे हैं, राघव चड्ढा। दोनो ही एमपी, आम आदमी पार्टी के हैं। संजय सिंह के निलंबन के पीछे का तात्कालिक कारण, भले ही कुछ हो, पर उनके निलंबन का असल कारण है, मोदी अडानी रिश्तों पर उनका सवाल उठाना और जांच की मांग करना। राघव चड्ढा ने अपने निलंबन को, सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और सुप्रीम कोर्ट ने, राधव चड्ढा की याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। 

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (16 अक्टूबर) को आम आदमी पार्टी (आप) नेता राघव चड्ढा द्वारा मानसून सत्र के दौरान 11 अगस्त को राज्यसभा से उनके निलंबन को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर नोटिस जारी किया। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने राज्यसभा सचिवालय को नोटिस जारी किया और मामले को 30 अक्टूबर की तिथि, सुनवाई के लिए तय की है। पीठ ने, न्यायालय की सहायता के लिए भारत के अटॉर्नी जनरल को उपस्थित रहने के लिए भी कहा है। 

मानसून सत्र के दौरान, राघव चड्ढा ने दिल्ली सेवा विधेयक को, चयन समिति को सौंपने के लिए, एक प्रस्ताव पेश किया था और कुछ सांसदों को समिति के प्रस्तावित सदस्यों के रूप में नामित किया था।  यह आरोप लगाया गया कि, राघव चड्ढा ने प्रस्ताव में कुछ सांसदों के नाम उनकी सहमति के बिना शामिल किए, जबकि वे उन पार्टियों से थे जो विधेयक का समर्थन कर रहे थे।  इस शिकायत के आधार पर कि चड्ढा की कार्रवाई ने राज्यसभा नियमों के नियम 72 का उल्लंघन किया है, राज्यसभा सभापति ने उन्हें विशेषाधिकार समिति द्वारा जांच लंबित रहने तक निलंबित कर दिया।

राघव चड्ढा की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राजेश द्विवेदी ने कहा कि यह "राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा" था।  उन्होंने कुछ प्रश्न उठाए:

1. क्या किसी संसद सदस्य को जांच लंबित रहने तक निलंबित करने का कोई औचित्य है;

2. क्या परीक्षण, जांच और रिपोर्ट के प्रयोजन के लिए समान आधार पर मामला विशेषाधिकार समिति को भेजे जाने के बाद ऐसा आदेश पारित किया जा सकता है;

3. क्या यह मानते हुए कि याचिकाकर्ता द्वारा नियम 72 का उल्लंघन इस तथ्य से किया गया है कि उसने उन सांसदों की इच्छा का पता नहीं लगाया जिन्हें चयन समिति में नामांकित करने का प्रस्ताव दिया गया था, क्या यह किसी भी मामले में विशेषाधिकार का उल्लंघन होगा  घर;4. क्या नियम 256 और नियम 266 राज्यसभा के सभापति को जांच लंबित रहने तक निलंबन का आदेश पारित करने का अधिकार देते हैं?  किसी भी मामले में, ऐसे उल्लंघन के लिए आनुपातिकता का नियम लागू होगा;

5. क्या किसी संसद सदस्य को ऐसे उल्लंघन के लिए किसी भी स्थिति में निलंबित किया जा सकता है;  क्या निलंबन अनुपातहीन और मनमाना है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है;

6 क्या नियम 297 के मद्देनजर पारित किया गया ऐसा आदेश विशेषाधिकारों का उल्लंघन होगा;

7. क्या अनुच्छेद 105 द्वारा संरक्षित संसद के भीतर बोलने की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा संरक्षित संसद के बाहर बोलने की स्वतंत्रता में संसद के भीतर विचारों की प्रस्तुति शामिल है;

एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने यह तर्क दिया कि राज्यों की परिषद (राज्यसभा नियम) में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों का नियम 266 केवल सभापति को सामान्य निर्देश जारी करने का अधिकार देता है और इस शक्ति का उपयोग करते हुए, सभापति किसी सदस्य को निलंबित नहीं कर सकता है।

राकेश द्विवेदी ने आगे तर्क दिया कि एक चयन समिति, एक बहुदलीय समिति होनी चाहिए और इसके सदस्यों को परिषद द्वारा ही नियुक्त किया जाता है।  एक सदस्य केवल कुछ सदस्यों को ही प्रस्ताव दे सकता है और राघव चड्ढा का प्रस्ताव केवल इसी आशय का था।  उन्होंने दावा किया कि अतीत में, प्रस्तावित सदस्यों की इच्छा का पता लगाए बिना उनके नामों का हवाला देते हुए चयन समिति के लिए प्रस्ताव पेश करने की 11 घटनाएं हुई हैं।  यदि सदस्य कहते हैं कि वे इच्छुक नहीं हैं तो उनका नाम हटा दिया जाता है और किसी और को नियुक्त कर दिया जाता है।  उन्होंने तर्क दिया कि यह स्थापित परंपरा रही है और किसी भी सदस्य को उनकी सहमति के बिना चयन समिति के सदस्यों को प्रस्तावित करने के लिए किसी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा है। 

चड्ढा की ओर से पेश एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड शादान फरासत ने कहा कि घटना के संबंध में कोई 'विशेषाधिकार' मौजूद नहीं है और इसलिए "विशेषाधिकार का उल्लंघन" नहीं हो सकता है।  उन्होंने आशीष शेलार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2022) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि सदन के किसी सदस्य को एक सत्र से अधिक निलंबित नहीं किया जा सकता है।

जैसे ही पीठ ने नोटिस जारी करने की इच्छा जताई, द्विवेदी ने कहा कि वह कोई अंतरिम राहत नहीं मांग रहे हैं।

राज्यसभा सचिवालय के खिलाफ दायर रिट याचिका में आप नेता ने "अनिश्चितकालीन निलंबन" को अवैध और मनमाना बताते हुए चुनौती दी है।  अपने मामले को पुष्ट करने के लिए, उन्होंने आशीष शेलार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2022) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने बारह विधायकों को निलंबित करने के महाराष्ट्र विधानसभा के प्रस्ताव को रद्द कर दिया था।  आशीष शेलार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक सत्र से अधिक के निलंबन को मनमाना और अवैध माना।

पंजाब राज्य के सांसद ने भी राज्यसभा सभापति के फैसले पर सवाल उठाने के लिए अपनी याचिका में इसी तरह का तर्क अपनाया है।  उन्होंने बताया कि निलंबन का आदेश मानसून सत्र के आखिरी दिन दिया गया था और यह अब भी जारी है, यहां तक ​​कि मानसून सत्र और अगले विशेष सत्र की समाप्ति के बाद भी।  राज्यों की परिषद में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों ('राज्यसभा नियम') के नियम 256 का भी संदर्भ दिया गया है, जिसमें किसी भी सदस्य के "सत्र के शेष भाग से अधिक" अवधि के लिए निलंबन के खिलाफ एक स्पष्ट निषेध शामिल है।  ”यह भी तर्क दिया गया कि अनिश्चितकालीन निलंबन पंजाब के लोगों के अधिकारों का उल्लंघन है, जिनका वह राज्यसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं।

वह राज्यसभा अध्यक्ष के फैसले को "विपक्ष के एक मुखर सांसद को चुनिंदा तरीके से निशाना बनाना" बताते हैं। यह तर्क दिया गया है कि, "मानसून सत्र से परे अनिश्चितकालीन निलंबन "अवैध, स्पष्ट रूप से मनमाना, असंवैधानिक और पंजाब के लोगों के प्रभावी प्रतिनिधित्व के अधिकारों का क्षरण है।"

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Sunday, 15 October 2023

1982 और 2001 में भी मेइति समुदाय के लिए एसटी दर्जे पर विचार किया गया और उसे खारिज कर दिया गया था / विजय शंकर सिंह

मणिपुर हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है और आज तक मणिपुर की समस्या के बारे में सरकार का कोई ऐसा प्रयास भी नहीं दिखा, जिससे यह पता चल सके कि, वह इस घातक समस्या के समाधान के लिए गंभीर है। मणिपुर राज्य, फिलहाल, कानून व्यवस्था के दृष्टिकोण से, संविधान के अनुच्छेद, 355 के अंतर्गत, केंद्र के जिम्मे है। हिंसा की शुरुआत, मणिपुर हाईकोर्ट के एक आदेश से हुई, जिसमे मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने हेतु, सरकार को कार्यवाही करने के लिए आदेशित किया गया था। हालांकि मणिपुर हाईकोर्ट के इस आदेश पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन जो हिंसा और वैमनस्य भड़कना था वह भड़क चुका था और स्थिति राज्य सरकार के नियंत्रण के बाहर हो गई और आज तक मणिपुर का वातावरण, सामान्य नहीं हो पाया है। 

हाईकोर्ट के इस अजीबोगरीब फैसले के पीछे, केंद्र और राज्य सरकार द्वारा, इस मुद्दे पर, सारे दस्तावेज, अदालत में प्रस्तुत न करना भी बताया जाता है। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के अधिकारियों ने उन अभिलेखों को संकलित और उन्हें मणिपुर उच्च न्यायालय में, जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी तो, प्रस्तुत नहीं किया। वे दस्तावेज साल, 1982, और साल 2001 में, केंद्र सरकार की वह रिपोर्ट और निर्णय था, जिसमें, मैतेई समुदाय को, अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के प्रस्ताव पर विचार किया गया था, पर उसे उपयुक्त न पाए जाने के कारण, खारिज कर दिया था। साल1982 में, भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने कहा था कि मेइती समुदाय में "आदिवासी विशेषताएं" ट्राइबल कैरेक्टर नहीं हैं। यही बात, साल, 2001 में भी मणिपुर सरकार ने कहा था। 

अंग्रेजी अखबार, द हिंदू ने इस मुद्दे पर विस्तार से एक खबर छापी है, जिसके अनुसार,  "पिछले चार दशकों में मेइते समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के प्रस्ताव पर,  दो बार जांच की गई और दोनो ही बार, जांच के बाद, इसे उपयुक्त न पाते हुए खारिज कर दिया गया था। ऐसा, पहली बार, 1982 में, भारत के रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय द्वारा, और फिर, दूसरी बार, 2001 में, मणिपुर सरकार द्वारा, किया गया था। केंद्र सरकार और मणिपुर की राज्य सरकार ने, राज्य में चल रहे जातीय संघर्ष के दौरान, इस जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया, और न ही इन रिकॉर्डों को मेइतेई समुदाय की याचिका पर मणिपुर उच्च न्यायालय में, जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी, तब अदालत में दाखिल  किया।" यदि यह अभिलेख और सरकार के, मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रस्ताव खारिज कर देने का पूर्ववर्ती निर्णय, यदि मणिपुर हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत होते तो, हो सकता था, अदालत का दृष्टिकोण कुछ और होता और आज जो पिछले पांच महीने से, मणिपुर में, हिंसा चल रही है, वह शायद शुरू ही न होती। 

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों ने इस साल अप्रैल के अंत में, इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को ढूंढ निकाला था, जिसके कुछ ही दिन बाद मणिपुर उच्च न्यायालय ने मेइती को एसटी दर्जा प्रदान करने की सिफारिश भेजने का एक विवादास्पद आदेश दिया था। और उसी के बाद, 3 मई 2023 को, मणिपुर हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ एक विरोध रैली ने, घाटी स्थित मैतेई समुदाय और पहाड़ी स्थित अनुसूचित जनजाति कुकी-ज़ो समुदायों के बीच हिंसा भड़का दी, जो पांच महीनों से जारी है और अब तक, लगभग 180 लोग मारे जा चुके हैं। द हिंदू की खबर के अनुसार, ऐसा भी नहीं है कि, सरकार के पास वे दस्तावेज नहीं थे या सरकार को, साल 1982 और साल 2001 का निर्णय पता नहीं था। लेकिन इसे अदालत में पेश न करना, एक प्रकार की लापरवाही थी, जिसका दुष्परिणाम, मणिपुर की जनता भुगत रही है। 

इस बारे में अंग्रेजी अखबार, द हिंदू, सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत मांगी गई एक सूचना का उल्लेख करता है, जिसके अनुसार, "रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय ने, 1982 में गृह मंत्रालय के अनुरोध पर एसटी सूची में मेइती को शामिल करने पर विचार किया था। जिसके अनुसार, "उपलब्ध जानकारी" के आधार पर, मेइते समुदाय में"आदिवासी विशेषताएं नहीं दिखती हैं", और तब यह कहा था कि "वे समावेशन के पक्ष में नहीं है।" रिपोर्ट में कहा गया है कि, "ऐतिहासिक रूप से, इस शब्द का इस्तेमाल "मणिपुर घाटी में गैर-आदिवासी आबादी" का वर्णन करने के लिए किया गया था। 

लगभग 20 साल बाद, जब तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्रालय, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की एससी/एसटी सूचियों को संशोधित कर रहा था, तो उसने मणिपुर सरकार से भी सिफारिशें मांगी थीं।  जवाब में, मणिपुर के जनजातीय विकास विभाग ने 3 जनवरी, 2001 को केंद्र को बताया कि वह, मेइती समुदाय की स्थिति पर आरजीआई कार्यालय की 1982 की राय से सहमत है। तत्कालीन मुख्यमंत्री डब्लू. नपामाचा सिंह के नेतृत्व वाली मणिपुर सरकार ने, तब कहा था कि, मैतेई समुदाय "मणिपुर में एक प्रमुख समूह" है और इसे एसटी सूची में शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।  इसमें कहा गया है कि, "मैतेई लोग हिंदू हैं और "हिंदू जातियों की सीढ़ी में वे खुद को, क्षत्रिय जाति का मानते थे", यह कहते हुए कि, "उन्हें पहले से ही अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया गया है", सरकार ने ट्राइबल स्टेटस देने से मना कर दिया था।

मणिपुर हाईकोर्ट के कार्यवाहक चीफ जस्टिस ने, राज्य और केंद्र सरकारों को नोटिस जारी करते हुए कहा था कि, "सहमति से, मुख्य रिट याचिका को सुनवाई के प्रथम चरण में फाइनल डिस्पोजल के लिए लिया जाता है।" इसके बाद, मैतेई जनजाति संघ के सदस्यों द्वारा दायर रिट याचिका पर फैसला सुना दिया गया। मणिपुर उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित समीक्षा और अपील मामलों में, राज्य और केंद्र सरकारों ने अभी तक मेइती समुदाय के लिए, उनकी एसटी स्थिति पर कोई लिखित प्रस्तुतिकरण दाखिल नहीं किया था। यानी फैसला देने तक हाईकोर्ट के समक्ष, केंद्र या राज्य सरकार का पक्ष और सरकार के ही पूर्ववर्ती निर्णय, प्रस्तुत नही किए जा सके थे। 

जनजातियों को शामिल करने के तौर-तरीके केवल राज्य सरकार द्वारा शुरू किए गए प्रस्तावों को संसाधित करने की अनुमति देते हैं, जिसमें आरजीआई कार्यालय की राय को प्राथमिकता दी जाती है।  संविधान केवल संसद को संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में आवश्यक संशोधन पारित करके समावेशन को अंतिम रूप देने की अनुमति देता है। एसटी सूची में शामिल करने का निर्णय लेने के लिए आरजीआई कार्यालय द्वारा अपनाए गए मानदंड 1965 में लोकुर समिति द्वारा निर्धारित किए गए थे। उक्त समिति के अनुसार, आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में शर्म और पिछड़ापन के संकेत आदि मुद्दों पर विचार कर यह निर्णय लिया जाता है कि, अमुक समुदाय, जनजाति श्रेणी में शामिल किया जा सकता है या नहीं। आज भी उन्हीं मानदंडों का उपयोग किया जाता है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद, 2014 में एक आंतरिक समिति की रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के मानदंडों को बदलने का एक प्रस्ताव जनजातीय मामलों के मंत्रालय में लाया गया था। लगभग आठ वर्षों तक इस पर विचार करने के बाद, मंत्रालय ने 2022 में कहा कि उसने प्रस्ताव को रोक दिया है और इस बारे में, अधिकारियों ने कहा कि, दशकों पुराने मानदंडों के साथ छेड़छाड़ करने की कोई योजना नहीं है। यानी, वर्तमान सरकार ने, अनुसूचित जनजाति के श्रेणी में शामिल होने वाले मानदंडों में कोई परिवर्तन नहीं किया है। बदलते आदिवासी समाजों के साथ तालमेल बिठाने के लिए आंतरिक समिति द्वारा की गई कई सिफारिशों में से एक यह भी थी कि "केवल इस तथ्य के आधार पर कि वे हिंदू धर्म के अनुयायी थे, एसटी सूची में शामिल करने के लिए किसी समुदाय की याचिका को खारिज नहीं किया जाना चाहिए।" लेकिन समिति ने, इस तर्क को भी खारिज कर दिया था। 

इस प्रकार यह विवाद खड़ा ही नहीं होता यदि सरकार, साल 1982 और 2001 के फैसलों को, हाईकोर्ट में प्रस्तुत कर देती। दरअसल, यह बीजेपी का एक चुनावी वादा है कि, मैतेई समुदाय को भी, कुकी जनजाति के समान, जनजाति का दर्जा दिया जायेगा। लेकिन इस वादे को पूरा करना सरकार के, दो पुराने निर्णयों जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है और बीजेपी सरकार की ही गठित समिति के निर्णय, कि, अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल किए जाने के लिए तयशुदा, स्थापित मानदंडों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है, के कारण संभव नहीं है। उपद्रव, अशांति, हिंसा आदि, जिन कारणों के कारण भड़कती हैं, को नियंत्रित करने के लिए उन कारणों को खत्म करना पड़ता है। सुरक्षा बलों के बल पर इन पर कुछ हद तक काबू तो पाया जा सकता है, पर इनका स्थाई समाधान नहीं किया जा सकता है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh