Tuesday 31 January 2023

कमलाकांत त्रिपाठी / धार्मिक आतंकवाद का वैश्विक उभार और वहाबी पुनरुत्थानवाद (1)

सन्‌ 1996 में अमेरिकी राजनीतिशास्त्री सैम्युएल पी हंटिंगटन की एक पुस्तक आई—The Clash of Civilizations and the Remaking of World Order. शीतयुद्धोत्तर विश्व के बारे में उत्तर अधुनिकतावादियों के ‘इतिहास के अंत’ के बचकाने प्रमेय के जवाब में हंटिंगटन ने अपनी पुस्तक में प्रतिपादित किया कि शीतयुद्धोत्तर विश्व में धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिताएँ ही द्वंद्व और संघर्ष के मूल आधार बनेंगी और तज्जनित युद्ध राष्ट्रों के बीच नहीं, राष्ट्रों के भीतर धर्मों और संस्कृतियों के बीच लड़े जाएँगे. सभ्यताओं का संघर्ष—यह जुमला कामू से शुरू होकर कई विश्लेषकों द्वारा इस्तेमाल हो चुका था जिनमें संयोग से अयोध्या विवाद पर लिखनेवाले गिरिलाल जैन भी शामिल थे. हंटिंगटन ने साफ़ किया कि वे ऐसे युद्ध की वकालत नहीं कर रहे हैं, बस वैचारिकी पर आधारित संघर्ष के समाप्त होने पर विश्व के नए परिदृश्य का ख़ाक़ा खींच रहे हैं (जिससे निपटने की समुचित तैयारी की अपेक्षा थी). उन्होंने चिन्हित किया कि इस्लामिक सभ्यता में जनसंख्या का (जन्म और धर्म-परिवर्तन से) जबर्दस्त विस्फोट हुआ है जिससे उसकी सीमाओं पर और उसके भीतर भी बुनियादपरस्ती का ज्वार बढ़ रहा है जो एक विश्वव्यापी अस्थिरता पैदा करेगा. इसके पीछे पश्चिमी सभ्यता और उसके मूल्यों से आहत होने और अपनी प्राचीन सांस्कृतिक पहचान की रक्षा और उसका विस्तार करने की भावना निहित है. पश्चिमी सभ्यता के आघात से अपने सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा और उनके दृढ़ीकरण के लिए इस संस्कृति के एक मुखर वर्ग में प्रतिद्वंद्विता का युयुत्सु भाव है. उसके लिए यह अपना आधुनीकरण करेगी, शक्ति-संचय करेगी और अपनी अस्मिता के उन्मेष से 'सब कुछ या कुछ भी नहीं' की भावना से बहुकोणीय संघर्ष करेगी. इस प्रक्रिया में राष्ट्रों के भीतर जो सांस्कृतिक संकट के बिंदु (fault lines) हैं—चेचन्या, बोस्निया, कश्मीर वगैरह-- वहाँ अशांति की ज्वाला धधक सकती है.

इस पुस्तक की प्रतिक्रिया में और हंटिंग्टन के इस प्रमेय की काट के लिए कई पुस्तकें आईं जिनमें वस्तुस्थिति की इस निर्मम व्याख्या के विरुद्ध आदर्शवादी, सैद्धांतिक विमर्श के सहारे मानवमूल्यों की पैरवी की गई और ख़ासकर धर्म के भावात्मक प्रभाव की एकांतिकता को नकारा गया. इस अभियान में अपने अमर्त्य सेन ने भी Identity and Violence शीर्षक से एक बहुत भाव-प्रवण किताब लिखी जिसमें मनुष्य की अस्मिता में धार्मिक एकान्तिकता पर ज़ोर देने का प्रबल विरोध किया. उन्होंने यहाँ तक आरोप लगाया कि आतंक के विरुद्ध युद्ध में हंटिंग्टन के प्रमेयों के आधार पर मुसलमानों की धार्मिक और पश्चिम-विरोधी पहचान की एक गढंत गढ़ी जा रही है जो मानव-विरोधी है. 

दु:ख यही है कि इतिहास उच्च आदर्शों, महान मूल्यों और सैद्धांतिक विवेचनों के सहारे नहीं चलता. 1996 से लेकर अभी हाल तक अमेरिका के 9/11 और उसकी प्रतिक्रिया सहित विश्व के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जो कुछ हुआ, हंटिंगटन के निर्मम यथार्थवादी प्रमेयों का ज़मीन पर उतरकर विश्व के लिए एक अकल्पित संकट पैदा करने का इतिहास है। आवश्यकता है, इसके कारणों की खोज में हम पीछे दूर तक इतिहास की एक निर्लिप्त यात्रा करें.

विश्व-इतिहास में 1453 ई. का साल बड़ा अहम है. इसी साल उस्मानी तुर्कों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य (या बाइजेंटियम साम्राज्य) को निर्णायक शिकस्त दी और उस साम्राज्य की पुरानी और गौरवशाली राजधानी कुस्तुंतुनिया को जीत लिया. तुर्क भरभराकर यूरोप में घुस गए और आगे बढ़ते चले गए; बाद में वियना के फाटक तक पहुँच जाने पर ही उन्हें रोका जा सका. इसके लिए पूरा ईसाई जगत एक होकर लड़ा. लेकिन यह एकता भी पूर्वी और दक्षिणी यूरोप पर क़ब्ज़ा जमा चुके उस्मानी तुर्कों के टर्की साम्राज्य को वहाँ से बेदख़ल करने में असफल रही. वहाँ उन्होंने चार सौ सालों से ज़्यादा राज किया और वहाँ के ईसाइयों व अन्य गैर-मुस्लिमों पर वे सारी ज़्यादतियाँ कीं जो कोई भी साम्राज्यवादी सत्ता करती है. दरअसल जेरूसलम की ओर यहूदियों के पलायन की शुरुआत पूर्वी यूरोप के इन्हीं देशों से हुई जो टर्की साम्राज्य से लगातार उत्पीड़ित रहे. 

इतिहास के विद्यार्थी के लिए यह भूलना मुश्किल है कि लगभग हर एक ने अपने दौर में वही किया है जिसके चलते वह दूसरे दौर में पीड़ित रहा है और जिसकी दुहाई देते नहीं थकता.

इसी 1453 के साल को विश्व इतिहास में आधुनिक काल की शुरुआत माना जाता है. इसलिए नहीं कि इस साल तुर्कों ने कुस्तुंतुनिया को जीत लिया, बल्कि इसलिए कि इस जीत की वजह से जो कुछ हुआ, वह युगांतकारी साबित हुआ.

तुर्कों ने एशिया और यूरोप के बीच का रेशम और मसाले के व्यापार का पुराना ज़मीनी रास्ता बंद कर दिया. कुस्तुंतुनिया और सिकंदरिया की बड़ी मंडियाँ, जहाँ एशिया से आए माल—रेशमी, सूती कपड़े, मसाले, गुड़, चीनी वगैरह--की योरोप से आए नमक, ऊन और सोना-चाँदी से अदला-बदली होती थी, वीरान हो गईं. तुर्कों ने ऐसा क्यों किया ? यह सारा व्यापार मुख्यत: अरबों के हाथ में था. रेशम और मसाले के ज़मीनी रास्ते पर उनके ऊँटों के कारवाँ और फ़ारस की खाड़ी और अरब सागर में उनकी तिजारती नौकाएँ निर्बाध डोलती थीं. अरब इस्लाम आने के बहुत पहले से कुशल और  साहसी नाविक तथा व्यापारी थे, कृषि और हस्त-उद्योग में दुनिया भर में  सबसे उन्नत भारत की पुरानी समृद्धि में अरबों के इस वैश्विक व्यापार का बहुत बड़ा हाथ था. और तुर्क थे अरबों के जानी दुश्मन, उनका साम्राज्य छीन चुके थे और ख़िलाफ़त पर नज़र गड़ाए हुए थे. अरबों द्वारा ही जीतकर मुसलमान बनाए गए तुर्क अपने इलाक़े से नये-नये बाहर निकले उम्दा घुड़सवार और उत्साही लड़ाके थे, लड़ने-जीतने के अलावा उन्हें अभी और कुछ आता ही नहीं था, जब कि अरब सफल धार्मिक विजय-अभियान के बाद सभ्यता-संस्कृति, शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान में डूब चुके थे. दुनिया देखने से उनका मानसिक क्षितिज विस्तृत हो चुका था और, जैसा कि हमेशा होता है, सभ्यता-संस्कृति के उन्नयन में लगे लोग युद्ध और सत्ता-विस्तार की एकमात्र भाषा जाननेवाले एकनिष्ठ लड़ाकू आक्रमणकारियों के सामने हार ही जाते हैं.

एशिया का माल यूरोप पहुँचना बंद हो गया तो वहाँ बड़ा तहलका मचा. मसाले के बिना तो उनका जाड़ा बीतना मुहाल हो गया. जाड़ा शुरू होते ही वे अपने अधिकांश जानवर मारकर उनका मांस मसाले में सिझाकर रख लेते थे और जाड़े भर उसी से काम चलाते थे. सरदी भगाने के लिए काली मिर्च, दालचीनी जैसे मसालों को उबालकर चाय की तरह गरम-गरम पीते थे. उनकी जलवायु में न तो कपास हो सकती थी न रेशमी कीड़े पल सकते थे, सिर्फ़ ऊनी या चमड़े के वस्त्र ही बनते थे, जो जाड़े में प्राण-रक्षा के लिए तो ठीक, लेकिन गर्मी और शानोशौकत के लिए बेकार. गन्ना और चावल की पैदावार भी यूरोप की जलवायु में असंभव थी तो वे भारत के साथ व्यापार से वंचित मीठे और चावल के स्वाद से तो महरूम हुए ही, मसालों के अभाव में जाड़े के दिनों के लिए मांस को सुरक्षित रखना कठिन हो गया। 

उस समय यूरोप की दो बड़ी शक्तियाँ थीं स्पेन और पुर्तगाल. पोप महोदय ने रोम में बैठे-बैठे यूरोप के बाहर की पूरी दुनिया स्पेन और पुर्तगाल में बाँट दी कि वे पूरब-पश्चिम दोनों तरफ़ से एशिया (जिसका मुख्य मतलब भारत था) से व्यापार का समुद्री रास्ता खोजें (दुनिया गोल है, यह मालूम हो चुका था) और दुनिया का जो हिस्सा मिले, उस पर राज करें, बस व्यापार सबको, यानी ईसाई जगत को, करने दें. तो दुनिया के पहले उपनिवेशवादी थे यही पोप महोदय—पोप अलेक्ज़ैंडर VI. स्पेन से पश्चिम की ओर चला कोलंबस 1492 में अमेरिका के पास के एक द्वीप पर पहुँच गया और एक ‘नई दुनिया’ प्रकाश में आई। पुर्तगाल से पूरब की ओर चला वास्को ड गामा इसके छ: साल बाद अरब नाविकों की सहायता से भारत के तटीय नगर कालीकट पहुंच गया.

और बस दुनिया बदल गई. ज़मीनी साम्राज्य का ज़माना लद गया, अब तो तिजारत के लिए समुद्री साम्राज्य बने जहाँ जाकर स्थायी रूप से बसने के बजाय व्यापार के लिए ज़रूरी तामझाम के रूप में शासन-सत्ता पर क़ब्ज़ाकर, निरंकुश व्यापार से उन्हें चूसने में ही यूरोपियों की दिलचस्पी रह गई. इसीलिए इन्हें साम्राज्य के बजाए उपनिवेश या colony कहा गया. समुद्री व्यापार और सामुद्रिक सैन्य शक्ति में यूरोप आगे बढ़ गया।  माल एशिया का, तिजोरी भरी यूरोप की. विश्व व्यापार में एशिया का प्रतिशत (जिसमें बड़ा हिस्सा भारत का था) सिमट गया, उसका निर्यात अधिशेष (export surplus) निर्यात घाटे में बदल गया. उसका भुगतान-संतुलन (balance of payments) उसके पक्ष से सरककर विपक्ष में चला गया. एशिया पिछड़ गया और यूरोप यूरोप हो गया.

अति-विकसित हस्त-उद्योग और मसालों के उत्पादन पर आधारित भारत के लाभकारी निर्यात पर एकाधिकार के लिए यूरोपी शक्तियों ने आपस में कई लड़ाइयाँ लड़ीं. विजयी इंग्लैंड ने इस एकाधिकार के दुरुपयोग से अंधाधुंध कमाई कर जो पूंजी अधिशेष अर्जित किया उसी के सहारे वह आगे चलकर औद्योगिक क्रांति में अग्रणी रहा. फिर तो भारत के अतिविकसित हस्त उद्योग के ढाँचे को पूरी तरह ध्वस्तकर उसने इसे कच्चे माल के उत्पादक और तैयार माल के बाज़ार में तब्दील कर दिया.

यूरोप की नई सम्पन्नता से नया आत्म-विशास जगा. हज़ार साल से छाया धार्मिक अंधकार छँटा, इब्नसीना और इब्न रुश्द जैसे अरब विद्वानों द्वारा अरबी में अनूदित और व्याख्यायित प्लेटो और अरस्तू का लैटिन में अनुवाद हुआ. इस तरह पुराने यूनान के बौद्धिक विचार की पुन: खोज से यूरोपी पुनर्जागरण का सूत्रपात हुआ. अरब में चली महीअत (being) और वुजूद (becoming या existence) की बहस यूरोप पहुँची और वहाँ ज्ञानोदय (Enlightenment) सम्पन्न हुआ. धर्म के वर्चस्व की अंतिम भभक धार्मिक सुधारों (Reformation) और कैथलिक-प्रोटेस्टैंट संघर्षों के रूप में उठी और फिर शांत हो गई. यूरोप ने बहुत मूल्य चुकाकर सीखा कि बुद्धि-विवेक से महरूम धर्म का उबाल बड़ी क़यामत लाता है. यह सीखने के बाद ही वहाँ धर्म की बंदिश से मुक्त होकर वैज्ञानिक आविष्कारों का सिलसिला आगे बढ़ा जो उपनिवेशों से अर्जित पूँजी के सहयोग से औद्योगिक क्रांति में परिणत हुआ.

लेकिन जिस अरब के उदारवादी बौद्धिक विद्वानों ने यूरोप में ‘नये ज्ञान’ की रोशनी फैलने में मदद की थी, कालांतर में वही विवेकशून्य धार्मिक अतिवादिता का उद्गम स्थल बन गया. अरब देशों के तेल धन से चलनेवाले मदरसों की बाढ़ ने पाकिस्तान को धार्मिक अतिवाद की ओर ठेलने में सबसे अहम भूमिका निभाई. विश्व भर में उभरे धार्मिक पुनरुत्थानवाद और उससे निकले वर्चस्ववाद की आँधी जब हमारे पश्चिमी पड़ोस तक आ गई तो हम उससे कैसे बच सकते थे? भारत में तो हिंदू-मुसलमान का मसला बहुत पुराना है. स्वतंत्रता-आंदोलन लगातार इसके थपेड़ों से जूझता, अपने लक्ष्य की ओर बढते हुए डगमगाता रहा. आख़िर आज़ादी मिली तो मज़हब के आधार पर देश को दो टुकड़ों में बांटकर, जिसके फलस्वरूप जो जघन्य मारकाट और क्रूर विस्थापन हुआ उसके आघात से हम आज तक उभर नहीं पाए हैं. आज़ादी के ठीक बाद कश्मीर का मसला उठ खड़ा हुआ जो सीधे-सीधे धार्मिक मसले में तब्दील हो गया और धार्मिक अतिवाद की वैश्विक लहर के भारत में घुसने का द्वार बन गया.

यह धर्म भी क्या शै है ! अरब सभ्यता के स्वर्णकाल में इस्लाम में जितनी उदारता और जितना लचीलापन दिखता है, वह बाद में धीरे-धीरे सूखता जाता है. और तो और, ख़ुद पैग़म्बर मोहम्मद के जीवनकाल में नई-नई स्थितियों से एडजस्ट करने और लचीलापन अख्तियार करने का जो माद्दा दिखता है, वह बाद के समय में ग़ायब होने लगता है. कोई भी विचार जब अनन्य, अनोखे और अकल्पित तथ्यों के संजाल से टकराता है तो इन तथ्यों को वस्तुपरक ढंग से समझने, समोने और उनके बीच से रास्ता निकालने की चुनौती पैदा होती है, जो बहुत उदारता और लचीलेपन की माँग करती है. जिस नेतृत्व के हाथ में विचार को व्यवहार में लाने का दारोमदार होता है, सब कुछ उसकी समझदारी, सदाशयता और दूरंदेशी पर निर्भर हो जाता है. यही गुण हैं जो पैग़म्बर मुहम्मद के जीवन में बार-बार दिखाई पड़ते हैं. उनके समय में आनेवाली हर नई स्थिति से निपटने के लिए उन्हें चिंतन-मनन करना पड़ता है और बेहद कठिन मोड़ आने पर ही पथ-प्रदर्शन के लिए ईश्वर की ओर देखना पड़ता है. अकारण नहीं है कि क़ुरान शरीफ़ की आयतें रह-रहकर लगातार 23 सालों तक नाज़िल होती रहीं, और जब पैग़म्बरके जाने के बाद, पहले ख़लीफ़ा अबू बक्र के समय में पैग़म्बर के साथी जैद बिन साबित ने उन्हें पुस्तकाकार संकलित किया तो 6232 (या 6666 ?) आयतों को 114 सूरों में विभक्त करना पड़ा. पैग़म्बर अपने इन्हीं गुणों के कारण अपने जीवनकाल में कभी समझा-बुझाकर तो कभी मज़बूरन किए गए बल प्रयोग से, बहुदेववादी, मूर्तिपूजक अरबों को अक्षुण्ण एकेश्वरवाद के झंडे तले एकता और भाईचारे के सूत्र में बाँधने और इस तरह उन्हें एक अप्रतिम शक्ति बना देने में सफल रहे. अब ऐसा तो है नहीं कि पैगम्बर के जाने के बाद नई, पहले से अकल्पित स्थितियाँ आएँगी ही नहीं. पग-पग पर आएँगी और उनसे निपटना पड़ेगा. विगत में निपटा भी गया है. इस्लाम को कई-कई बार बड़े कठिन दौर से गुज़रना पड़ा है. जब दुरुस्त और खुले दिमाग़ से, पैगम्बर की ही परिपाटी पर, अंत:प्रेरणा के साथ-साथ बुद्धि के निष्कपट इस्तेमाल से उनसे निपटा गया है, तो अच्छा, कल्याणकारी परिणाम सामने आया है; जब अहंकार और तंगनज़री से और लकीर का फ़क़ीर बनकर डंडा चलाया गया है, तो फ़ौरी तौर पर सफलता भले मिली हो, उसका दूरगामी असर भयानक, ध्वंसात्मक और दुखदायी ही रहा है.
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi 


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