प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी सर, आप को इनाम मिला, सम्मानित किए गए, इसके लिए आप को बधाई, और भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
पर तटस्थता तो सदैव शोषित और वंचितों के विरुद्ध, बने रहने का एक षडयंत्र है। सागर में चल रहे तूफान, झंझावत, उद्वेलन, के समय, तट पर तटस्थ रह कर, या समाज के द्वंद्व से दूर, दर्शक दीर्घा में बैठे बैठे, इसी आत्ममुग्धता में, रमण करते रहें, कि हम निरपेक्ष हैं तो, इसका एक कारण, भय, और जोखिम या खतरे से कतराकर, निकल जाना भी है। तटस्थता या तटस्थ लेखन, मेरी समझ में किसी लेखक का, जो समाज की व्यथा को अभिव्यक्त करता है, का दायित्व और कर्तव्य नहीं है। यह एक प्रकार का पलायन है। सुविधा की आस में किया गया पलायन।
किसी भी विकट समय में तटस्थता, या तटस्थ भाव एक अपराध भी है। समय ऐसे तटस्थदर्शी लोगों का अपराध दर्ज भी करता है। यह मेरा कहा नहीं, दिनकर जी की पंक्तियों का सार है। यदि आप तटस्थ है तो आप समाज के प्रतिगामी पक्ष के साथ खड़े हैं, और एक प्रगतिशील समाज में तट पर ही खड़े खड़े निरंतर पीछे की ओर जा रहे हैं। क्योंकि समाज तो आगे ही बढ़ेगा। यह उसकी प्रवृत्ति है। भले ही उसकी प्रगतिशीलता को जबरन, खींच कर रोकने की कोशिश की जाय, पर वह ठिठकता है, थमता है, जमीन पर, एडिया गड़ा कर प्रतिरोध भी जताता है, पर थोड़ा दम भर कर, अंततः, आगे ही बढ़ता है। समय खुद भी, कभी कहां पीछे लौटता है!
और अब जगन्नाथ आजाद का यह शेर,
किनारे ही से तूफ़ाँ का तमाशा देखने वाले
किनारे से कभी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ नहीं होता !!
(विजय शंकर सिंह)
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