रामसेतु को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किए जाने की मांग पुरानी है और अक्सर यह मांग उठती रही है कि, भगवान राम से जुड़े होने के कारण, इसे जस का तस रहने दिया जाय और इसके साथ कोई छेड़छाड़ न की जाय। शीर्ष अदालत में यह मामला, आठ साल से लंबित चल रहा है और एक बार फिर यह सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट में यह सुनवाई सुब्रमण्यम स्वामी, बीजेपी के पूर्व सांसद की याचिका पर हो रही है। सुब्रमण्यम स्वामी ने, सुप्रीम कोर्ट में इस इस बात पर नाराजगी जाहिर की थी कि, इस याचिका के जवाब में केंद्र सरकार ने अभी तक अपनी तरफ से, अपना कोई पक्ष नहीं रखा है और न ही याचिका में दिए बिंदुओं पर कोई हलफनामा दायर किया है।
सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर अपनी याचिका में कहा है कि, "आठ साल बीत चुके हैं पर उनकी याचिका पर कोर्ट की नोटिस के जवाब में केंद्र सरकार हलफनामा दाखिल नहीं कर रही है। इस बीच इस याचिका की सुनवाई के लिए 16 तारीखें लगी लेकिन अभी तक, केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने की मांग पर कोई भी जवाब दाखिल नही किया।"
तब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर केन्द्र सरकार को अपना जवाब, हलफनामा दायर कर, दाखिल करने का निर्देश दिया। सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा कई साल पहले रामसेतु को ऐतिहासिक स्मारक के रूप में मान्यता देने के लिए यह याचिका दायर की गई थी। पिछले महीनों याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी ने कई बार कई सीजेआई से इस मामले की जल्द सुनवाई करने की मांग की भी थी। सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी में इस मुद्दे पर कहा था कि इस मामले में तीन महीने बाद विचार किया जाएगा। तब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को एक हलफनामा दाखिल करके अपना रुख भी स्पष्ट करने को कहा था।
हालांकि मोदी सरकार रामसेतु मामले पर पहले यह कह चुकी है कि, "समुद्र में जहाजों की आवाजाही को सुगम बनाने के लिए प्रस्तावित सेतु समुद्रम परियोजना के लिए राम सेतु को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा।" परियोजना के लिए सरकार कोई दूसरा वैकल्पिक मार्ग तलाशेगी।"
स्वामी ने अपनी याचिका में कहा है कि राम सेतु लाखों हिन्दुओं की आस्था से जुड़ा है, लिहाजा इसे न तोड़ा जाए. साथ ही रामसेतु को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाए।
2007 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर हिंदू मान्यताओं के अनुसार रामसेतु की अवधारणा को पूरी तरह बेबुनियाद बता दिया था। केंद्र सरकार का कहना था कि "इस बात का कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है कि, साढ़े छह हजार वर्ष पहले भगवान राम ने यह पुल बनवाया था।" जबकि हिंदू मान्यताओं के अनुसार यह वहीं रामसेतु है, जिसका जिक रामायण में किया गया है। उल्लेखनीय है कि, पूर्व केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पाटी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने याचिका दायर कर रामसेतु पुल को तोड़ने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। इस पर 31 अगस्त 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने सेतु समुद्रम परियोजना के लिए रामसेतु तोड़ने पर रोक लगा दी थी। जस्टिस बीएन अग्रवाल और जस्टिस पीपी माओलेकर की बेंच ने कहा था कि 14 सितंबर तक रामसेतु को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचाई जाए।
भारत सरकार द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया था कि,
"यह पुल असल में एक भूगर्भीय संरचना है, जो दस लाख वर्ष पहले भूगर्भीय क्रियाओं के कारण अस्तित्व में आई। इनका निर्माण मनुष्य ने नहीं किया है।"
अहमदाबाद के मरीन पेड वाटर रिसोर्स ग्रुप, स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के अध्ययन का हवाला देते हुए केंद्र ने कहा कि
"याचिकाकर्ता की यह धारणा गलत है कि इस पुल का धार्मिक और पुरातात्विक महत्व है। देश के पूर्वी तट को पश्चिमी तट से जोड़ने वाले सेतु समुद कैनाल प्रोजेक्ट जनहित और आर्थिक उन्नति के लिए तैयार किया जा रहा है इसलिए रामसेतु तोड़ने पर आपति नहीं होना चाहिए।"
हलफनामे में कहा गया है कि,
"याचिकाकर्ता ने कोर्ट से यह तथ्य छिपाया है कि मार्ग बनाने के लिए 30 हजार मीटर लंबे पुल का केवल 300 मीटर चौड़ा और 12 मीटर गहरा हिस्सा ही तोड़ा जा रहा है, पूरा पुल नहीं।"
हलफनामे में याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी पर कड़ा जुर्माना लगाने और पुल तोड़ने पर लगे प्रतिबंध को समाप्त करने की मांग की गई है। वहीं यह भी कहा गया है कि
"याचिकाकर्ता के इस तर्क को भी नहीं माना जा सकता कि इस पुल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाए।"
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया और कहा, "आर्थिक उन्नति के लिए रामसेतु तोड़ना जरूरी है।"
यूपीए सरकार के ऐसे ही हलफनामें पर, तब आरएसएस और बीजेपी ने हंगामा खड़ा कर दिया और वामपंथी इतिहासकार, तब राम की ऐतिहासिकता कही छुपा दिए थे, जिसे संघी नहीं पढ़ पा रहे थे। अब सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर, मोदी सरकार ने भी लगभग यही बात कही है जो, पहले कही जा चुकी है। सरकार ने तो रामसेतु को तोड़ने की भी बात कह दी है। बताइए क्या समय आ गया है, जो राम को लाए हैं वही उनके द्वारा निर्मित एक प्राचीन सेतु को तोड़ने पर आमादा हैं! शिव शिव।
संघ और बीजेपी के लिए रामसेतु एक बड़ा सियासी मुद्दा रहा है, लेकिन अब मोदी सरकार के ही एक मंत्री ने संसद में रामसेतु का कोई वजूद होने से ही इनकार कर दिया है। यूपीए सरकार पर तो राम को ही काल्पनिक बताने का आरोप लगता रहा है, लिहाजा सरकार के इस जवाब के बाद हिंदूवादी संगठन नाराज हैं। लेकिन अगर वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो केंद्रीय मंत्री, जितेन्द्र सिंह ने संसद को गुमराह करने की बजाए बिल्कुल सही जवाब दिया है। जितेंद्र सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री होने के अलावा परमाणु ऊर्जा विभाग तथा अंतरिक्ष विभाग के राज्य मंत्री भी हैं. चूंकि सवाल विज्ञान के शोध और अध्ययन से जुड़ा हुआ था, इसलिये उन्होंने अंतरिक्ष विभाग के राज्य मंत्री के नाते उसका उचित जवाब देने से कोई परहेज नहीं किया. अब ये अलग बात है कि इससे हिंदुओं की भावनाएं आहत हुई हैं और उनके इस बयान का विरोध भी हो रहा है।
हरियाणा से निर्दलीय सांसद कार्तिकेय शर्मा ने राज्यसभा में रामसेतु का मुद्दा उठाया था। उन्होंने सवाल पूछा था कि, "क्या सरकार हमारे गौरवशाली, प्राचीन इतिहास को लेकर कोई साइंटिफिक रिसर्च कर रही है? क्योंकि पिछली सरकारों ने लगातार इस मुद्दे को तवज्जो नहीं दी।"
उनके इस सवाल का केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने जवाब देते हुए कहा कि "रामसेतु को लेकर हमारी कुछ सीमाएं हैं क्योंकि ये करीब 18 हजार साल पहले का इतिहास है. जिस पुल की बात हो रही है वो, करीब 56 किमी लंबा था. स्पेस टेक्नोलॉजी के जरिए हमने पता लगाया कि समुद्र में पत्थरों के कुछ टुकड़े पाए गए हैं, इनमें कुछ ऐसी आकृति है जो निरंतरता को दिखाती हैं। समुद्र में कुछ आइलैंड और चूना पत्थर जैसी चीजें दिखीं हैं. अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो ये कहना मुश्किल है कि रामसेतु का वास्तविक स्वरूप वहां मौजूद है. हालांकि कुछ संकेत ऐसे भी हैं जिनसे ये पता चलता है कि स्ट्रक्चर वहां मौजूद हो सकता है. हम लगातार प्राचीन द्वारका शहर और ऐसे मामलों की जांच के लिए काम कर रहे हैं।"
साफ शब्दों में कहें, तो सरकार ने ये मान लिया है कि सैटेलाइट से प्राप्त तस्वीरों से भी राम सेतु के होने के पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं।
वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस की कथाओं के अनुसार श्रीराम ने श्रीलंका जाने के लिए समुद्र के ऊपर एक पुल बनाया था। यह सेतु, उसी पुल के अवशेष के रूप में बताया जाता है। रामसेतु एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर पिछले कई सालों से बीजेपी और कांग्रेस के बीच लंबी बहसे होती रही है। बीजेपी लगातार कांग्रेस पर यह आरोप लगाती रही है कि, वह रामसेतु के अस्तित्व को नहीं मानती, लेकिन अब सरकार ने संसद और अदालत में वही कहा जो यूपीए सरकार ने पहले कहा था।
एबीपी वेबसाइट पर संजय सिंह के एक लेख के अनुसार, सेतुसमुद्रम परियोजना को वाजपेयी सरकार में मंजूरी दी गई थी। साल 2004 में वाजपेयी सरकार ने इसके लिए 3,500 करोड़ रुपये का बजट भी रखा था। हालांकि, 2004 में यूपीए सरकार के आने के बाद, मनमोहन सिंह सरकार ने जब इसे आगे बढ़ाने पर काम शुरू किया तो, बीजेपी ही इसके विरोध में खड़ी हो गई। सरकार के अनुसार, सेतुसमुद्रम शिपिंग नहर परियोजना परियोजना के तहत इस सेतु को तोड़कर एक मार्ग तैयार करना था जिससे बंगाल की खाड़ी से आने वाले जहाजों को श्रीलंका का चक्कर नहीं लगाना पड़े। इसका उद्देश्य, समय, दूरी और ईंधन आदि की बचत करना था। लेकिन बीजेपी समेत अन्य हिंदू संगठनों ने भी इसका विरोध किया और मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया।
साल 2008 में यूपीए सरकार ने भी यही हलफनामा दिया था कि, "यह स्ट्रक्चर किसी इंसान ने नहीं बनाया. यह किसी सुपर पावर से बना होगा और फिर खुद ही नष्ट हो गया. इसी वजह से सदियों तक इसके बारे में कोई बात नहीं हुई और न कोई सुबूत है।" इस हलफनामे का खूब विरोध हुआ और सरकार ने इसे वापस ले लिया था।
पर्यावरण और समुद्री जीव जंतुओं के कारण उस सेतु के तोड़ने का विरोध पर्यावरण के लिए काम करने वाले समूहों और वैज्ञानिकों ने भी किया है। पर यहां उनका तर्क राम सेतु के प्रति आस्था से नहीं बल्कि, समुद्री पर्यावरण के दृष्टिकोण से है। अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि राम सेतु को तोड़ने की योजना पर सरकार दुबारा काम करने लगी है? कहीं ऐसा तो नहीं, इसमें भी कोई चहेता पूंजीपति जिसका देश के बंदरगाहों पर कब्जा हो, को कोई मुश्किल दरपेश आ रही हो और वह एक आसान रास्ता पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व की ओर जाने के लिए चाहता हो। जो भी हो राम का सेतु है राम ही जानें।
अब आस्थाएं भी सेलेक्टिव होने लगी हैं। बीजेपी की सरकार के समय कुछ और यूपीए सरकार के समय कुछ। जब काशी में विश्वनाथ मंदिर के आसपास के पंच विनायक के प्राचीन मंदिर और पंचकोशी मार्ग के कुछ मंदिर और विग्रह ध्वस्त कर कूड़े में फेंक दिए गए तब किसी भी संघी और बीजेपी के मित्रों की आस्था आहत नहीं हुई। जब एनडीए सरकार ने सेतु समुद्रम योजना का बजट रखा और उस योजना को पास किया तब सारे नए रामभक्त चुप रहे। पर जैसे ही सन 2004 में सरकार बदली और यूपीए सरकार ने एनडीए की ही योजना पर काम किया, भुरभुरी आस्थाएं बिखरने लगी। ऐसी भुरभुरी आस्था वाले भक्तगण अपने धर्म और ईश्वर का खुद ही उपहास कर देते हैं और इस मूर्खतापूर्ण आहत आस्था के कारण उनका पाखंड ही उजागर होता है। सेलेक्टिव आस्था, आस्था न भवति मित्रों !!
(विजय शंकर सिंह)
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