हल्द्वानी में रेलवे जमीन पर अतिक्रमण हटाने के हाइकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है और यह कहा है कि पहले सरकार उनके पुनर्वास की व्यवस्था करे। रेलवे की हल्द्वानी ही नहीं देशभर में जहां जहां भी जमीनें हैं, वहां वहां उन पर अतिक्रमण है। यह अतिक्रमण, न केवल झुग्गी झोपड़ी वालों द्वारा, किया गया है बल्कि बेहद असरदार लोगों द्वारा भी रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण है। देश में सबसे अधिक जमीन रक्षा मंत्रालय के पास और उसके बाद रेलवे के पास है। अतिक्रमण चाहे किसी भी विभाग की जमीन पर हो, उसे वैध नहीं माना जा सकता और न ही उसे एक अच्छी प्रवृत्ति ही कहा जा सकता है।
पर यहीं यह सवाल उठता है कि, ऐसी जमीनों को अतिक्रमण से बचाने के लिए रेलवे ने क्या कार्यवाही की है। जाहिर है यह अतिक्रमण एक दिन में नही हुआ है और न ही किसी एक अधिकारी के कार्यकाल में हुआ है। लेकिन जब भी ऐसे अतिक्रमण होने शुरू हुए होंगे तब निश्चय ही उसकी ओर रेलवे प्रशासन ने ध्यान नहीं दिया और जमीनों पर अवैध कब्जे होते चले गए। रेलवे के पास अपना खुद का सुरक्षा बल आरपीएफ है, राज्य सरकार की जीआरपी है जिसका आधा खर्च रेलवे उठाता है और राजस्व के भी अधिकारी कर्मचारी उनके पास होते हैं। रेलवे एक्ट में ऐसे प्राविधान भी हैं जो अतिक्रमण को रोक सकते हैं। जाहिर है ऐसे सरकारी तामझाम और कानून से, होने वाले अतिक्रमण को रोका जा सकता है। पर ऐसा क्यों नहीं किया गया।
जब ब्रिटिश काल में रेलवे बन रही थी तो अंग्रेजों ने दूरदर्शिता से काम लिया और रेलवे के लिए जरूरत से अधिक जमीनें उन्होंने अधिग्रहित कर लीं। आज वह दूरदर्शिता काम आ रही है। रेलवे का विस्तार लगातार हो रहा है और नई नई रेलवे लाइनें, नए नए फ्रेट कॉरिडोर बनाए जा रहे हैं, जिनके लिए जमीनें रेलवे, अधिग्रहित भी कर रही है। पर रेलवे की जो जमीने शहरों में हैं या शहरों के अंदर से गुजरती हुई और निष्प्रयोज्य हो रेलवे लाइनों के अगल बगल की जमीनें हैं, उन पर निश्चित रूप से अवैध कब्जे हैं और वे कब्जे कही कही तो पचास साल पुराने हैं। हल्द्वानी में रेलवे को अपने विस्तार के लिए जमीन चाहिए या कोई और उद्देश्य है यह तो रेलवे ही जानें पर जिस तरह से हाईकोर्ट ने, रातों रात, बिना पुनर्वास पर विचार किए, बेदखली का आदेश दे दिया था, वह एक अजीब आदेश था। यह एक अच्छी खबर है कि, सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश पर रोक लगा दी है।
2014 के बाद, सरकारी संपदा और सरकारी कंपनियों के निजीकरण की जो नई नीति आई, उससे रेलवे भी नहीं बची। रेलवे के अन्य विभाग, धीरे धीरे निजी क्षेत्र को बेचे जा रहे है। यदि रेलवे में निजीकरण की गति धीमी है तो इसका कारण सरकार की निजीकरण के बारे में कोई पुनर्विचार नीति नहीं बल्कि पूंजीपतियों का उहापोह अधिक है। माल ढुलाई जो, रेलवे की आय का एक प्रमुख स्रोत है को भी निजी क्षेत्र को दिया जा रहा है। कुछ रेलवे लाइनों पर रेल गाडियां निजी क्षेत्रों की चलने भी लगी हैं। पर वे भी, किराया बढ़ाने और तमाम रियायतें खत्म करने के बाद भी या तो घाटे में हैं, या अपेक्षित लाभ सेठों को नहीं दे पा रही हैं। आगे आने वाले समय में जब रेलवे को केवल लाभ केंद्रित संस्था के रूप में देखा जायेगा तो इससे सबसे अधिक नुकसान गरीब जनता का होगा जिसके लिए रेलवे एक सुगम और सस्ती सवारी के रूप में बहुत पहले से रही है। हर साल पेश किए रेलवे बजट में होने वाली नई सवारी गाड़ियों की सूचना, उनके ठहराव के नए स्टेशन, यात्री सुविधाएं, आदि अब अतीत की बात रह गई है। रेलवे की सवारी गाडियां कभी भी लाभ के दृष्टिकोण से नहीं चलाई जाती रही है। उनका उद्देश्य ही जनकल्याण रहा है। यह जनता की मांग, उनकी आवश्यकता और हर इलाके को देश से जोड़ने के उद्देश्य से चलाई और बढाई जाती रही है। लेकिन माल ढुलाई की गाड़ियां लाभ देती रही हैं और अब भी दे रही हैं। रेलवे की कमाई का यही एक जरिया है।
किसी भी पूंजीपति की निगाह सामान्य सवारी गाड़ी चलाने पर नही टिकती है क्योंकि उससे उन्हे कोई लाभ नहीं होगा और उसमें दिक्कतें अधिक होंगी। वे माल ढुलाई के काम में अधिक रुचि लेते हैं और इसमें, उनके निवेश का प्रतिफल उन्हे अच्छा मिलता है। आज सरकार के सबसे करीबी पूंजीपति अडानी समूह को, देश के बड़े बड़े एयरपोर्ट और बड़े बंदरगाह भी सरकार ने सौंप दिए हैं। लाभ कमाने वाली सरकारी कंपनी कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (कॉन्कोर) के भी निजीकरण की बात चल रही है। निश्चित ही जिस समूह के पास बंदरगाह होंगे उसके लिए कॉन्कॉर खरीदना, एक लाभ का सौदा होगा। अडानी समूह जिस गति से देश के बड़े बड़े एयरपोर्ट, बंदरगाह, कोयला खदानें आदि खरीद रहा है उसे इन सबको जोड़ने वाले रेलवे पर भी एकाधिकार चाहिए। यहीं यह सवाल उठता है कि, आखिर सरकार जिसके पास, एयरपोर्ट ऑथर्टी ऑफ इंडिया, शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, कॉन्कॉर, फ्रेट कॉरिडोर जैसे लाभ कमाने वाले बड़े बड़े इंफ्रा प्रतिष्ठान है उन्हे क्यों एक निजी समूह को बेचने जा रही है। आने वाले समय में यदि माल ढुलाई का सारा सरंजाम, किसी निजी समूह को सौंप दिया जाय तो हैरानी नही होगी। यह सरकार की निजीकरण या मुद्रीकरण की नीति नहीं है यह अपने चहेते पूंजीपतियों को सबकुछ बेच कर देश को उन खास पूंजीपतियो के रहमोकरम पर डाल देने का षडयंत्र है।
पूंजीपतियों की निगाह, न केवल रेलवे की खाली जमीनों पर है, बल्कि उनकी नज़र, रक्षा संपदा, और अन्य सार्वजनिक कंपनियों की जमीनों पर भी है। सरकार उदारता से, उन्हे, उद्योगों के विकास के नाम पर, बेहद कम कीमत पर, कभी कभी तो, नाममात्र की दर पर, जमीने देती भी आई है। पर उन्हे तो जमीन बिलकुल खाली चाहिए, क्योंकि वे जानते हैं कि, अतिक्रमण खाली कराना उनके बस की बात नही है। रेलवे अपनी जमीन लीज पर पहले ही देती रही है, पर अब से तीन महीने पहले सितंबर के महीने में, सरकार ने, रेलवे की जमीन के लंबी अवधि के पट्टे पर, पूंजीपतियों को सौंपने के लिए कैबिनेट की मंजूरी से एक कानून पास किया था, जिसमें, शुल्क में 75% की कटौती का प्राविधान लाया गया। केंद्रीय कैबिनेट द्वारा, 7 सितंबर 2022 को 35 साल के लिए कार्गो से संबंधित परियोजनाओं की स्थापना के लिए रेलवे भूमि लाइसेंस शुल्क में तीन-चौथाई कटौती करने की मंजूरी दे दी गई। प्रति वर्ष, भूमि के बाजार मूल्य का 6% से 1.5% तक मूल्य रखा गया है जिसकी, अवधि रखी गई 35 साल। पांच साल से अचानक इसे 35 साल की अवधि के लिए बढ़ा दिया गया।
रेलवे भूमि नीति में इस बदलाव से अब राज्य के स्वामित्व वाली कंटेनर कॉर्पोरेशन इंडिया (कॉनकोर) में केंद्र की हिस्सेदारी की बिक्री में तेजी आएगी। उद्देश्य है सीसीआई को बेचना और इसे खरीदने की जुगत में है, अमीरी के शिखर पर तेजी से बढ़ते जा रहे सरकार के सबसे चहेते पूंजीपति, गौतम अडानी। उनके बेटे तो कॉन्कॉर को अपना मान ही बैठे हैं। इससे रणनीतिक खरीदारों को भूमि के किराये के रूप में बहुत कम राशि का भुगतान करने में मदद मिलेगी। यानी अरबों की रेलवे की जमीन, उन्हे कौड़ियों के भाव मिलेगी। कॉनकोर बेचने की सलाह देने वाले निवेश सलाहकारों के प्रमुख सुझावों में से यह एक सुझाव था। राजा को जैसा सुझाव पसंद आता है उसके सचिव ऐसे ही सुझाव पका सजा कर उसके सामने प्रस्तुत कर देते थे। उद्देश्य राजा का हित होता है न कि जनता का।
इस कानून के पहले, ऐसे पट्टे केवल पांच साल के लिए ही मान्य होते थे। अब जमीन पांच साल के लिए कौन सेठ लेगा और 5 साल के लिए तो, उसने सरकार बनवाने में निवेश थोड़े ही कर रखा है। देश भर में, भारतीय रेलवे के पास लगभग 60,000 हेक्टेयर खाली भूमि है। मुख्य रूप से रेल पटरियों के साथ और कॉनकोर के पास लगभग 250 हेक्टेयर, देश भर में 26 स्थानों पर फैली हुई रेलवे की भूमि है। रेलवे की लीज नीति में बदलाव ऐसे समय में आया है, जब सरकार ने अगले पांच वर्षों में 300 नए कार्गो टर्मिनल विकसित करने का लक्ष्य रखा है। सरकार इन कार्गो टर्मिनल को विकसित तो करेगी पर क्या वह उनका संचालन भी करेगी या उसे भी सेठों को सौंप देगी। इसका उत्तर मंत्री महोदय के भी पास नहीं होगा।
अधिकारियों ने कहा कि मौजूदा, जमीन लीज पर लेने वाले कॉर्पोरेट, सरकार को, 6% का भुगतान करना जारी रखेंगे, जब तक कि वे नई 1.5% आधार दर के लिए बोली प्रक्रिया में भाग लेने का निर्णय नहीं लेते। "अगर वे बोली लगाने में भाग लेते हैं, तो उन्हें पहले इनकार करने का अधिकार होगा। इसका अर्थ है कि यदि कोई अन्य बोलीदाता बेहतर शुल्क उद्धृत करता है, तो मौजूदा लाइसेंसधारी को उससे मिलान करने के लिए कहा जाएगा। यदि वह इसका मिलान करने से इनकार करता है, तो अधिकतम बोली लगाने वाले को वह मिल जाएगा। ऐसा ”एक सूत्र ने कहा। मैं यहां इसे टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर से उद्धृत कर रहा हूं।
रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा, "पीएम गतिशक्ति ढांचे" के लिए नई रेलवे भूमि नीति को मंजूरी मिलने से देश के लॉजिस्टिक्स इंफ्रास्ट्रक्चर में कई गुना वृद्धि होगी।"
सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि "300 कार्गो टर्मिनलों की स्थापना से लगभग 1.25 लाख रोजगार सृजित होंगे।" अनुराग ठाकुर ने कहा कि "कार्गो टर्मिनलों के लिए भूमि को पट्टे पर देने के अलावा, इन भूमि पार्सल का उपयोग सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मोड पर अस्पतालों और केंद्रीय विद्यालय संगठन के माध्यम से स्कूलों की स्थापना के लिए सामाजिक बुनियादी ढांचे की स्थापना के लिए भी किया जाएगा। इन मामलों में, भूमि लाइसेंस शुल्क मुश्किल से 1 रुपये प्रति वर्ग मीटर प्रति वर्ष होगा।"
रेलवे की जमीन पर सोलर प्लांट लगाने के लिए शुल्क भी न्यूनतम होगा। रेलवे पैनल को रेलवे ट्रैक के किनारे लगाया जा सकता है।
सरकार ने कहा कि नई नीति कम दर पर रेलवे भूमि प्रदान करके बिजली, गैस, पानी की आपूर्ति, सीवेज निपटान और शहरी परिवहन जैसी सार्वजनिक सेवा उपयोगिताओं के एकीकृत विकास के लिए रेलवे के भूमि उपयोग और राइट ऑफ वे (आरओडब्ल्यू) को सरल बनाती है।"
ऑप्टिकल फाइबर केबल (ओएफसी) और अन्य छोटे व्यास भूमिगत उपयोगिताओं के लिए, रेलवे ट्रैक को पार करने के लिए 1,000 रुपये का एक बार का शुल्क लिया जाएगा।"
यह निजीकरण या इसे बेहतर और खुलेपन से कहें तो, सब कुछ बेच देने का यह एक तयशुदा एजेंडा है। लोक द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार, भले ही एक लोककल्याणकारी संविधान की शपथ लेकर गद्दीनशीन हुई हो, पर उसका मूल उद्देश्य ही है, देश की सारी संपदा का निजीकरण, और उसे अपने चहेते पूंजीपतियों को बेच देना। उससे रोजगार मिलने की बातें जो, मंत्रीगण कहते रहते हैं यह उनकी पेशेवर मजबूरी है वर्ना, उन बेचारों को तो यह भी पता नहीं कि, कैबिनेट में रखा गया यह सारे प्रस्ताव बना कौन रहा है और किसके इशारे पर यह सब बन रहा है। और अगर उन्हें यह पता भी हो तो वे उसे कहीं कह भी नही पाएंगे।
जहां तक निजी क्षेत्रों में रोजगार की बात है, सरकार, पिछले आठ सालों का, यही आंकड़ा दे दे कि, किस निजी क्षेत्र ने देश के कितने नौजवानों को रोजगार दिया है तो कम से कम यह भ्रम भी दूर हो जाय कि निजीकरण की नीति से लोगों को नौकरियां अधिक मिली है। निजी क्षेत्र ने, जो नौकरियां दी भी हैं, उनमें भी अधिकतर संविदा या, ठेके पर, दिहाड़ी पर दी जाने वाली नौकरियां होंगी जिनमें कोई सोशल सिक्योरिटी या पेंशन या आवास या बच्चो की पढ़ाई लिखाई की सुविधा नहीं होगी। न काम के घंटे तय होंगे और न ही काम की जगह का अनुकूल वातावरण। मैं कॉर्पोरेट क्षेत्र के बड़े मैनेजरों की बात नही कर रहा हूं, बल्कि मैं सामान्य नौकरी पाने वाले नौजवानों की बात कर रहा हूं।
अडानी समूह को जो एयरपोर्ट सौंपे गए है वे पचास साल की अवधि के लिए हैं। हो सकता है यही अवधि बंदरगाहों के लिए भी हो। यह अजीब आर्थिक नीति है कि, देश के सारे महत्वपूर्ण इंफ्रा प्रोजेक्ट, चाहे वह कोयला हो, या पेट्रोलियम, या एयरपोर्ट/एयरलाइन, या बंदरगाह या अब इन्हें जो रेलवे जोड़ती है वह सब धीरे धीरे इन्ही गोदी सेठों को सरकार सौंपती जा रही है। और कमाल यह भी है कि, अडानी समूह यह सब खरीदने के लिए सरकारी बैंकों से ही कर्ज भी ले रहा है और सरकार, उसका कर्ज एनपीए/राइट ऑफ/माफ भी करती जा रही है।
(विजय शंकर सिंह)
Excellent
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