Thursday, 12 January 2023

स्वामी विवेकानंद और खेतड़ी नरेश अजीत सिंह की अनोखी मित्रता / विजय शंकर सिंह


स्वामी विवेकानंद का, विविदिशानंद से विवेकानंद का नामकरण, राजस्थान की एक रियासत, खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने ही किया था। आज विविदिशानंद नाम अल्प ज्ञात है और विवेकानंद, जगतख्यात। खेतडी नरेश महाराजा अजित सिंह, स्वामी विवेकानंद के निकट मित्र और शिष्य भी थे। विवेकानंद की अजित सिंह से कुल तीन मुलाक़ातें हुयी हैं। यह मुलाकातें, 1891. 1893 और 1897 में हुयी थीं। अजित सिंह से स्वामी जी की पहली मुलाकात, जब राजस्थान के आबू में हुई, तो दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया। अजित सिंह अंग्रेज़ी पढ़े लिखे और विद्वान् व्यक्ति थे। वे स्वामी जी के अंग्रेजी भाषा के ज्ञान और उनके तार्किक  विमर्श से प्रभावित हुए। उधर, विवेकानंद जी , महाराजा अजीत सिंह के अंग्रेजी परिवेश में पढ़े लिखे होने के बावज़ूद,  भारतीय दर्शन में उनकी रूचि और अध्ययन से प्रभावित हुए। यह वह समय था जब प्राच्य साहित्य, दर्शन, वांग्मय आदि को पाश्चात्य समाज और ईसाई मिशनरियाँ एक योजनाबद्ध तरीके से हेय और निम्न स्तरीय साबित करने के काम में जुटी थीं। हालांकि प्राच्य वांग्मय से प्रभावित अंग्रेजों की संख्या भी कम नहीं थी। वे भी इस वांग्मय के अद्भुत रहस्य से चमत्कृत थे। अंग्रेज और अन्य यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय दर्शन, इतिहास और परंपरा पर अध्ययन भी खूब किया था। हालांकि, ईसाई मिशनरियाँ, भारतीय दर्शन और आध्यात्म परंपरा की विरोधी तो थीं, पर उनके  विरोध का आधार बहुत मजबूत नहीं था। विवेकानन्द से ईसाई मिशनरियों की भिड़ंत, उनके किशोर वय से ही शुरू हो गयी थी। आगे चल कर जब वे, अमेरिका और इंग्लॅण्ड गए तो, उनका वहां भी कुछ ईसाई मिशनरियों ने विरोध किया, पर विवेकानंद का भारतीय वांग्मय की समझ, ज्ञान, तर्क,  ओज और तेज, बहस और विरोध करने वाली मिशनरियों पर भारी पड़ा।

1891 में जब अजित सिंह के संपर्क में विवेकानंद आये तो, महाराजा को स्वामी जी के पारिवारिक स्थिति की जानकारी हुयी। विवेकानंद के पिता का निधन हो गया था पर उनकी माँ जीवित थीं। उनके अन्य छोटे भाई भी थे। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। 1891 से ही खेतडी नरेश ने 100 रूपये मासिक धन राशि, विवेकानंद की माँ भुवनेश्वरी देवी के लिए नियत कर दी थी। 1 दिसंबर 1898 को बेलूर से स्वामी विवेकानंद ने महाराज को एक पत्र लिख कर इस धनराशि को आजीवन जारी रखने का अनुरोध किया था। यह पत्र खेतड़ी के राजकीय अभिलेखागार में आज भी सुरक्षित है। विवेकानंद का निधन तो 1902 में ही हो गया था पर उनकी माता, उनकी मृत्यु के बाद भी 1911 तक जीवित रहीं। जब तक वह जीवित रहीं, खेतड़ी राज से निर्धारित धन राशि उनके उपयोग के लिये भेजी जाती रही।  महाराज स्वयं भुवनेश्वरी देवी ( 1841 - 1911 ) के नियमित संपर्क में रहे। खेतडी के अभिलेखागार में जो पत्राचार सुरक्षित है उस से यह प्रमाणित होता है। 22 नवम्बर 1898 के लिखे एक पत्र में विवेकानंद ने अजित सिंह को अपना एक मात्र मित्र कह कर उनके सहयोग और मित्रता को स्वतः स्वीकार किया है।

 खेतड़ी नरेश अजित सिंह से स्वामी जी की पहली भेंट..

1891 में स्वामी जी और अजित सिंह के बीच पहली भेंट हुयी थी। रामकृष्ण परमहंस का निधन 1887 में हो गया था। नरेंद्र नाथ दत्त और इनके आठ साथी जो परम हंस के शिष्य थे ने, संन्यास ग्रहण कर गुरु की गद्दी संभालने का निश्चय किया। यह काम 1888 में बारानागर मठ में हुआ। लेकिन उसी साल, विवेकानंद ने घुमक्कडी सन्यासी का जीवन जीने का निश्चय किया और वे भ्रमण पर निकल पड़े। घुमक्कडी के दौरान वे, राजस्थान के माउंट आबू पहुंचे और वहीं, शाम के समय भ्रमण करते हुए, अजित सिंह से उनकी पहली और संक्षिप्त मुलाक़ात हुयी। विवेकानंद थक कर पार्क में बैठे थे और अजीत सिंह वहीं टहल रहे थे। दोनो एक दूसरे को नहीं जानते थे। बस एक परिचय हुआ, और मुलाकात की भूमिका बनी। इसके बाद, विवेकानंद, खेतड़ी नरेश से मिलने उनके उनकी रियासत खेतड़ी गए। संक्षिप्त मुलाक़ात तो संक्षिप्त और परिचयात्मक ही होती है। लेकिन, राजा और संन्यासी के बीच, लंबी मुलाकात  खेतडी, राजमहल में ही हुयी। विवेकानंद के जीवनीकार मणि शंकर मुख़र्जी ने अपनी पुस्तक 'द मोंक ऐज़ ए मैन द अननोन लाइफ ऑफ़ स्वामी विवेकानंद' में 4 जून 1891 में दोनों महापुरुषों के बीच हुयी भेंट का रोचक और प्रमाणिक वर्णन किया है. पुस्तक के अनुसार,
"अजित सिंह सुबह साढ़े छः बजे, सो कर उठ गए थे। दिन भर अपना काम करने के बाद वे उसी शाम जोधपुर नरेश प्रताप सिंह से मिले। उनसे आधे घंटे की बातचीत के बाद जब वे थोड़ा फुरसत में हुए तो उन्हें बताया गया कि, एक सन्यासी उन से मिलने के लिए आया हुआ है। उन्होंने सन्यासी को बुलाया और पहचान लिया कि, यह तो वही साधु हैं, जिनसे वे, थोड़े समय के लिए आबू में मिल चुके हैं। जब दोनों में बात हुयी तो, महाराजा, सन्यासी के अंग्रेज़ी ज्ञान और वार्तालाप से बहुत प्रभावित हुए। अजित सिंह को महसूस हुआ कि, सन्यासी अंग्रेज़ी ही नहीं, बल्कि संस्कृत और बांग्ला भी धाराप्रवाह बोल सकता है।  तब तक अजित सिंह को, विवेकानंद के बंगाली होने का कोई संज्ञान नहीं था। अजित सिंह और सन्यासी में सभी विषयों पर गंभीरता से बातचीत हुयी। फिर दोनों ने साथ साथ भोजन ग्रहण किया और वार्तालाप का सिलसिला रात के 11 बजे तक चलता रहा। रात 11 बजे वह सन्यासी, खेतड़ी के राज प्रासाद से विदा होता है। वह सन्यासी कोई और नहीं बल्कि विवेकानंद थे।"
इस लंबी और आत्मीय भेंट में, दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया और एक ऐतिहासिक मित्रता का प्रारंभ हुआ।

विवेकानंद एक घुमक्कड़ सन्यासी थे। सन्यासी तीन रातों से अधिक एक स्थान पार कभी और कहीं नहीं रुकते हैं। ऐसा विधान संभवतः किसी स्थान, वस्तु या मित्र से, मोह न उपज जाय, इस लिए रखा गया होगा। पर स्वामी जी का खेतड़ी प्रवास इस नियम का अपवाद सिद्ध हुआ। वह खेतड़ी में 4 जून 1891 से 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। किसी एक स्थान पर यह उनका, तब तक का सबसे लंबा प्रवास रहा। जून का महीना तो वैसे भी गर्मी का होता है, ऊपर से राजस्थान की गर्मी तो विकट ही होती है।  धूल भरी गरम हवाएँ और दोपहर की लू उन्हें बेचैन कर देती थी। स्वामी जी ठहरे बंगाल के, जहॉ गर्मी बहुत नहीं पड़ती थी और पड़ती भी थी तो बारिश हो जाती थी। खेतड़ी नरेश ने विवेकानंद को धूप , धूल और ताप से बचने के लिए राजस्थानी पगड़ी या साफा बाँधने की सलाह दी। विवेकानंद ने वहीं साफा बांधना सीखा और वही साफा, आगे चलकर, उनकी पहचान बन गया। राजपूती शान और ढंग से बंधा साफा विवेकानंद के सुन्दर और ओजस्वी व्यक्तित्व पर फबता भी बहुत था। उन्होंने राजस्थानी रीति रिवाजों का अध्ययन भी किया और अपने भाषणों और लेखों तथा पत्रों में इसका स्थान स्थान पर उल्लेख भी किया है।


० स्वामी विवेकानंद की खेतडी नरेश अजित सिंह से दूसरी मुलाकात.

1893 में दोनों महानुभावों के बीच दूसरी बार मुलाकात हुयी थी। अमेरिका के शहर शिकागो में, प्रथम विश्व धर्म संसद ( Parliament of world religion ) का अधिवेशन होने वाला था। यह अपनी तरह का अनोखा आयोजन था। औद्योगिक क्रान्ति के बाद दुनिया में एक नए तरह का साम्राज्यवाद पनप रहा था। पहले साम्राज्य विस्तार का एक मुख्य साधन, युद्ध ही हुआ करता था। बाद में साम्राज्यवाद का चेहरा बदला और वह व्यापार हो गया। इन सब के बीच धर्म की अपनी भूमिका थी ही। जब सभी धर्मों में, आपसी संपर्क   बढ़ने लगा तो, दार्शनिक वैचारिक आदान प्रदान की पीठिका भी तैयार हुयी। इसी क्रम में धर्म संसद के आयोजन की भूमिका तैयार हुयी। अमेरिका के शहर शिकागो में विश्व कोलंबियन एक्सपोज़िशन का आयोजन किया गया था। इस अवसर पर वहाँ अनेक सभाएं और सम्मलेन जो विविध विषयों पर आयोजित थे संपन्न किये गए। उन्ही सम्मेलनों में एक आयोजन विश्व धर्म संसद का भी था। शिकागो में जो वृहद् मेला लगा उसमे सबसे अधिक आकर्षण और भीड़, धर्म ससद में ही हुयी थी। इस संसद की जनरल कमेटी के अध्यक्ष एक ईसाई पादरी जॉन हेनरी बारोस चुने गए थे। 11 सितम्बर 1893 को इस धर्म संसद के अधिवेशन का शुभारम्भ वर्ल्ड कांग्रेस आक्ज़िलरी बिल्डिंग जिसमे अब शिकागो का आर्ट इंस्टिट्यूट है में संपन्न हुआ था।

इसी धर्म संसद में भाग लेने के लिए अजित सिंह ने विवेकानंद को प्रोत्साहित  किया। विवेकानंद की खेतड़ी नरेश से दूसरी भेंट के समय एक रोचक घटना का भी विवरण मिलता है। जब विवेकानंद खेतडी में रह रहे थे तो उन्हें, एक दिन, खेतड़ी राज दरबार में, नृत्य देखने का निमंत्रण मिला। नृत्य का आयोजन दरबार में अक्सर होता रहता था। राज दरबार में, विभिन्न नर्तकियों के नृत्य और अन्य संगीत का आयोजन किया गया था।  विवेकानंद ने यह कह कर कि, वे एक सन्यासी हैं, और इस प्रकार के नृत्य के आयोजनों में नहीं भाग ले सकते, दरबार में जाने से मना कर दिया। अजित सिंह तो मान गए. पर वह राज नर्तकी नहीं मानी। उसने स्वयं विवेकानंद से अनुरोध किया कि, वह उसका गाया और नर्तन पर आधारित एक भजन सुनने की कृपा करें।  स्वामी जी समारोह में गए। नर्तकी ने उनसे कहा कि, "जब सब कुछ ईश्वर की कृति है तो, वह भी तो उसी की रचना है. उसमें भी तो ईश्वर का ही अंश है।" वेदांत की यह चुनौती पूर्ण व्याख्या विवेकानंद को निरुत्तर कर गयी। वे मुस्कुरा कर रह गए। नर्तकी ने सूरदास का अत्यंत प्रदिद्ध भजन, " प्रभु मेरे अवगुन , चित न धरो " गाया। अद्भुत स्वर से गाया हुआ यह भजन विवेकानंद को स्तब्ध कर गया। विवेकानंद खुद एक भजन गायक थे। उन्होंने कहा कि संसार में जो है वह सब उसी ईश्वर का ही प्रतिरूप है। उन्होंने नर्तकी को माँ कह कर संबोधित किया और सबको आशीर्वाद दे कर दरबार से विदा हुए। उस रात उस नर्तकी ने केवल भजन ही गाया।

विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में जाने का निश्चय किया और अजित सिंह को अपने निश्चय से, अवगत भी करा दिया। अजित सिंह ने कहा कि, "अगर आप उस धर्म संसद में जा रहे हैं तो आप हिन्दू धर्मं और भारत का प्रतिनिधित्व कीजिए और संसार के सामने इस महान धर्म की देन और विरासत को प्रस्तुत कीजिए।" खेतड़ी नरेश ने, विवेकानंद के शिकागो, आने जाने और रहने का सारा व्यय सहर्ष  वहन करने का वचन भी दिया। धर्मसंसद में विवेकानंद के जाने की योजना उनके मद्रास यात्रा के दौरान ही बनी थी। पर वे थोड़े ऊहापोह में भी थे।  विवेकानंद ने अपने मित्र हरिदास विहारीदास देसाई को मई 1893 में जो पत्र लिखा है उस से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी की दूसरी खेतडी यात्रा और प्रवास, धर्म संसद की भूमिका ही थी. पत्र में वे लिखते हैं ,
"आप को तो पता ही है कि शिकागों की धर्म संसद में जाने का मेरा मन था। जब मैं मद्रास में था तभी मैंने इस आयोजन की बात सुनी और जाने का मन बनाया। यह बात जब महाराजा मैसूर को ज्ञात हुयी तो उन्होंने भी मुझे जाने के लिए उत्साहित किया और व्यवस्था करने का आश्वासन दिया। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं, खेतडी के महाराजा से मेरा स्नेह, मित्रता तथा अत्यंत आत्मीय सम्बन्ध है। मैंने, उन्हें भी, शिकागो जाने की अपनी इच्छा से अवगत कराया। उन्होंने, मुझसे अमेरिका जाने के पूर्व एक बार खेतडी आने और रहने का आग्रह भी किया। ईश्वर की कृपा से अजित सिंह को पुत्र रत्न की भी प्राप्ति भी हुयी है। उन्होंने राजकुमार को आशीर्वाद देने का भी अनुरोध किया। यही नहीं उन्होंने अपने निजी सचिव को स्वयं मुझे लेने के लिए मद्रास भेजा।"
इसके बाद विवेकानंद खेतड़ी जाते हैं यह उनकी दूसरी भेंट की भूमिका थी। इसके बाद दिसंबर 1897 में स्वामी जी तीसरी और अंतिम बार खेतडी आते हैं। अपने अमेरिका प्रस्थान हेतु बम्बई से एक दिन पूर्व 9 मई को वे राज महल के रनिवास में अजित सिंह के नवजात पुत्र जय सिंह को आशीर्वाद देने के लिए भी गए।

10 मई 1893 को , विवेकानंद ने बम्बई के लिए खेतडी से प्रस्थान किया। अजित सिंह ने अपने एक अत्यंत विश्वासपात्र कर्मचारी मुंशी जगमोहन लाल को, विवेकानंद के बम्बई में प्रवास करने और अमेरिका के लिए प्रस्थान करने तक, सारी व्यवस्था करने के लिए खेतडी से साथ साथ भेजा। अजित सिंह स्वयं, स्वामी जी को छोड़ने के लिए उनके साथ जयपुर तक आये। जब स्वामी जी बोस्टन पहुँच गए तो, अजित सिंह ने उनके अमेरिका में होने वाले व्यय के लिए अमेरिकन डॉलर भेजे। अमेरिका में जाते ही विवेकानंद के साथ एक दुर्घटना घट गयी। उनका कुछ सामान और डॉलर चोरी हो गए। कहा जाता है यह, ईसाई मिशनरियों के कुछ दुष्ट पादरियों के इशारे पर की गयी चोरी थी। उन्हें अचानक धन की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने यह बात मुंशी जगमोहन लाल को बतायी और तब अजित सिंह ने उन्हें तार से तत्काल 150 डॉलर भेजा। अजित सिंह स्वामी जी के अमेरिका प्रवास के दौरान लगातार उनके संपर्क में बने रहे।


इसी सन्दर्भ में एक अन्य रोचक विवरण मिलता है। विवेकानंद , सन्यासी थे और स्वभावतः मितव्ययी भी थे। उन्हें खेतड़ी नरेश ने अमेरिका के टिकट के लिए जो धन दिया था, उस से उन्होंने सामान्य दर्ज़े का टिकट लिया। सामान्य दर्ज़ा में डॉरमेट्री होती थी। सब को एक साथ ही रहना होता था। खान पान की व्यवस्था भी बहुत अच्छी नहीं होती थी। जब जगमोहन लाल को यह बात पता चली तो, उन्होंने स्वामी जी से तो कुछ नहीं कहा. पर उन्होंने यह बात महाराज को बता दी। खेतडी नरेश ने तत्काल सामान्य टिकट वापस करा कर पहले दर्ज़ा का टिकट उनको दिलवाया। स्वामी जी के आपत्तिं करने पर अजित सिंह ने तार से अनुरोध किया कि, "केबिन में आप को स्वाध्याय और ध्यान आदि करने की सुविधा रहेगी।" तब जा कर स्वामी जी पहले दर्ज़े में यात्रा करने के लिए सहमत हुए।

स्वामी विवेकानंद , अमेरिका से अजित सिंह को नियमित पत्र लिखते रहते थे। अजित सिंह भी उन्हें नियमित उत्तर देते हुए उनका उत्साह वर्धन करते रहे।
अपनी तीसरी और अंतिम खेतड़ी यात्रा में , स्वामी जी ने 17 दिसंबर 1897 को खेतडी में अपने अभिनन्दन में आयोजित एक समारोह में अजित सिंह से अपनी मित्रता और सदाशयता का आभार व्यक्त करते हुए कहा,
"मैंने भारत और हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए जो कुछ भी  थोडा बहुत किया है, वह संभव भी नहीं हो पाता अगर मेरी मित्रता खेतडी नरेश से न हुुई होती तो। "
पुनः वह 11 अक्टूबर 1897 को मुंशी जगमोहन लाल को लिखे एक पत्र में अपने और अजित सिंह के संबंधों के बारे में उल्लेख करते हैं,
"Certain men are born in certain periods to perform certain actions in combination. Ajit Singh and myself are two such souls—born to help each other in a big work for the good of mankind.… We are as supplement and complement."

(कुछ लोग निश्चित अवधि में कुछ कार्यों को एक साथ करने के लिए पैदा होते हैं। अजीत सिंह और मैं दो ऐसी आत्माएं हैं - मानव जाति की भलाई के लिए एक बड़े काम में एक दूसरे की मदद करने के लिए पैदा हुए हैं। ... हम पूरक एक दूसरे के पूरक हैं।)


० विवेकानंद की खेतडी के महाराजा अजित सिंह से तीसरी भेंट.

1897 तक स्वामी जी की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गयी थी। अमेरिका में उन्होंने वेदांत की विधिवत शिक्षा देना शुरू कर दिया था और विविध विषयों पर व्याख्यान देने का क्रम भी बढ़ा दिया था। भारतीय इतिहास और संस्कृति के बारे में लार्ड मैकाले के चश्मे से देखने वाले ईसाई पादरियों की जमात भारतीय दर्शन की मेधा, तर्क शक्ति और विराट फलक को देख कर अचंभित भी थी पर ईर्ष्या का अतिरेक जो उनमें  शासक होने के नाते भरा पड़ा था, से वे मुक्त भी नहीं हो पा रहे थे। शास्त्रार्थ और आ नो भद्रा कृतवो यन्तु विश्वतः की परम्परा और दर्शन जो भारतीय दर्शन की मूल आत्मा में विद्यमान था, ने तर्क और विचार विमर्श में, स्वामी विवेकानंद को कभी पराजित नहीं होने दिया। उन्हें व्याख्यानों के लिए धन भी मिलने लगा। उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरने लगी। उनके व्याख्यान पूरे अमेरिका में स्थान स्थान पर आयोजित होने लगे थे। अजित सिंह जी भी उन्हें अमेरिका भेज कर उनसे दूर नहीं हों पाये थे। वे पत्रों और तार द्वारा स्वामी जी के निरंतर संपर्क में रहते थे. उन्होंने 1897 में विवेकानंद को अनेक पत्र भेजे और भारत आने पर खेतडी आने और कुछ दिन साथ रहने का निमन्त्रण भी दिया। 1897 में स्वामी जी भारत में आ भी गए थे। वे जब देहरादून थे तभी उन्हें खेतड़ी नरेश का सन्देश मिला कि "वे खेतड़ी का कार्यक्रम बना लें। महाराज उनका खेतड़ी में सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहते हैं।" देहरादून से वे, दिल्ली, अलवर, और जयपुर होते हुए खेतडी पहुंचे। अजित सिंह ने अपने महल से 12 मील यानी 19 किलोमीटर दूर जा कर विवेकानंद का स्वागत किया। खेतडी तक जुलूस के रूप में विवेकानंद आये। महल के सभी कर्मचारियों और दरबारियों ने चाँदी के दो दो रूपये के सिक्के स्वामी जी का चरण स्पर्श कर उन्हें प्रदान किये। इस प्रकार कुल 3000 सिक्के विवेकानंद को खेतडी के कर्मचारियों की ओर से भेंट में दिए गए थे।

17 दिसंबर 1897 को, विवेकानंद ने सार्वजनिक रूप से एक समारोह में , खेतडी रियासत और महाराजा अजित सिंह का आभार प्रगट किया. उन्होंने इस अवसर पर कहा, 
"it would not have been possible for me to do what little I have done for India but my friendship with Khetri's Maharaja."

(मैने, भारत के लिये, थोड़ा बहुत जो कुछ भी किया है, खेतड़ी के महाराजा के साथ, मेरी दोस्ती के बिना वह करना मेरे लिए संभव ही नहीं था।)

20 दिसंबर 1897 को खेतडी में विवेकानंद का वेदांत दर्शन और राज योग पर एक लंबा व्याख्यान हुआ. इस में अगल बगल की रियासतों के विद्वानों के अतिरिक्त कुछ यूरोपीय विद्वान् भी सम्मिलित हुए। जो कुछ भी अजित सिंह ने अपने मित्र विवेकानंद के लिए किया था, विवेकानंद ने भी उस मित्रता और आत्मीयता का मान जीवन पर्यन्त रखा।

खेतड़ी रियासत द्वारा विवेकानंद के परिवार को 1891 से नियमित सहायता दी जाती रही। 100 रूपये की एक निश्चित धन राशि, विवेकानंद के परिवार के लिए निश्चित की गयी थी। 1 दिसंबर 1898 को विवेकानंद ने बेलूर से अजित सिंह को पत्र लिख कर यह धनराशि नियमित रूप से भेजने का अनुरोध किया था। विवेकानंद को संभवतः यह आभास था कि वे अपनी माता से पहले संसार छोड़ेंगे अतः वे चाहते थे कि यह धन राशि नियमित रूप से उनकी माता भुवनेश्वरी देवी के व्यय के लिए भेजी जाय , ताकि विवेकानंद के निधन के बाद भी भुवनेश्वरी देवी को कभी अर्थाभाव न हो सके. अपने पत्र में विवेकानंद ने लिखा था,
"One thing more will I beg of you — if possible, the 100 Rs. a month for my mother be made permanent, so that even after my death it may regularly reach her. Or even if your Highness ever gets reasons to stop your love and kindness for me, my poor old mother may be provided  remembering the love you once had for a poor Sâdhu."

(एक बात और। मैं आप से, भिक्षा माँगता हूँ - यदि संभव हो तो, मेरी माँ के लिए 100 रुपये प्रति माह स्थायी रूप से भेजे जाएँ, ताकि मेरी मृत्यु के बाद भी, यह नियमित रूप से उनके पास पहुँचे। और मेरे लिए आप की यह कृपा, मेरी गरीब बूढ़ी माँ और, एक अकिंचन साधु के लिए आप के स्नेह को याद करते हुए प्रदान किया जा सकता है।)

अजित सिंह ने विवेकानंद के अनुरोध और अपने प्रदत्त वचन का सम्मान जीवनपर्यंत किया तथा जीवन पर्यन्त वे 100 रुपये की धनराशि विवेकानंद की माँ भुवनेश्वरी देवी को भेजते रहे। इतिहास के शोधार्थियों ने इस धन राशि की कीमत के आज के अनुसार 20,000 रुपये आंकी है. मणि शंकर मुख़र्जी जो विवेकानंद के जीवनी कार थे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक , द मोंक ऐज़ ए मैन में इस आर्थिक सहायता पर टिपण्णी करते हुए लिखते हैं कि,
"यह एक आर्थिक सहयोग ही नहीं था , न ही यह किसी राजा का किसी ज़रुरत मंद प्रजा के लिए दी गयी राज्याश्रित सहायता थी। यह एक मित्र का मित्र और उसके परिवार के लिए दी गयी सहायता थी। एक शिष्य ( अजित सिंह ) की अपने शिक्षक और गुरु ( विवेकानंद ) के लिए दी गयी गुरुदक्षिणा थी।"

अजित सिंह जब तक जीवित रहे यह सहायता गोपनीय ही रही। केवल राज्य के कुछ ही अधिकारियों को इसकी जानकारी थी। धनराशि बेलूर मठ के नाम भेजी जाती थी। जहां से विवेकानंद के गुरु भाई शरत महाराज, योगेन महाराज , उस धनराशि को उनकी माता भुवनेश्वरी देवी को भेज दिया करते थे। इस बात का उल्लेख स्वयं विवेकानंद के भाई महेँद्रनाथ दत्त ने अपनी पुस्तक में किया है। विवेकानंद के परिवार के साथ महाराजा अजित सिंह का जो पत्र व्यवहार हुआ है, वह सब खेतडी रियासत के अभिलेखागार में सुरक्षित है। उसके अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अजित सिंह ने न केवल स्वामी जी के परिवार  की आर्थिक सहायता ही की बल्कि एक योग्य अभिभावक की तरह उनके भाइयों के शिक्षा आदि की भी व्यवस्था की. विवेकानंद के अनुज महेँद्रनाथ दत्त से वे अक्सर परिवार का कुशल क्षेम लेते रहते थे।

1958 में खेतडी में अजित सिंह के पौत्र बहादुर सरदार सिंह के द्वारा दान में दिए गए एक महल जिसमें स्वामी जी अपने खेतडी प्रवास के दौरान निवास करते थे, में राम कृष्ण मिशन की स्थापना हुयी। इस महल को विवेकानंद मंदिर नाम दिया गया. इस में विवेकानंद और अजित सिंह की संगमरमर की दो प्रतिमाएं लगी हैं. एक राजा और एक साधु की यह अद्भुत और ऐतिहासिक मित्रता थी।

(विजय शंकर सिंह)

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