‘स्टीफन हाकिन्स’ ने निस्सन्देह विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में बड़ा योगदान दिया है। उनके राजनीतिक विचार भी आमतौर से प्रगतिशील थे। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में भी उन्होंने खुलकर अपने विचार रखे और साफ कहा कि वे नास्तिक हैं।
लेकिन जिस भौतिक विज्ञान का स्टीफन हाकिन्स प्रतिनिधित्व करते थे, वहां एक बड़ा संकट मौजूद है, जिसे ‘क्रिस्टोफर काडवेल’ ‘Crisis in Physics’ कहते थे और इसी नाम से अपनी मशहूर किताब भी लिखी थी। स्टीफन हाकिन्स तक आते आते यह संकट और गहरा गया है। विशेषकर आइन्स्टाइन के बाद ही भौतिक विज्ञान का (विशेषकर अन्तरिक्ष विज्ञान,Cosmology का) प्रयोगों और परीक्षण से रिश्ता बहुत कम हो गया और एक तरह से पूरा भौतिक विज्ञान विशेषकर अन्तरिक्ष विज्ञान गणित-आधारित हो गया, या यो कहे कि ‘गणित का कैदी’ हो गया। और इसी रास्ते से भौतिक विज्ञान में अध्यात्मवाद ने प्रवेश किया। स्टीफन हाकिन्स की पूरी थ्योरी (‘ब्लैक होल’ और ‘बिग बैंग’ से सम्बन्धित) गणित आधारित है, जिसका प्रयोगों-परीक्षणों से कोई रिश्ता नहीं रहा है।
मशहूर मार्क्सवादी विचारक ‘क्रिस्टोफर काडवेल’ ने 1939 में एक महत्वपूर्ण किताब लिखी थी- ‘दी क्राइसिस इन फिजिक्स’। इस किताब में काडवेल ने इस संकट को इस रुप में रखा था- ‘‘भौतिकी का यह संकट जो कुछ वक्त पहले तक महज भौतिकविदों तक सीमित था, अब जनता के बीच भी आ चुका है। आम आदमी भी अब यह जानता है कि भौतिक विज्ञान में सब कुछ ठीक नही चल रहा है। इसकी संरचना में जो तेजी से दरार पैदा हो रही है, उसे ऐसे रहस्यमयी विचारों से पाटा जा रहा है, जो विज्ञान के लिए नये हैं। ख्यातलब्ध भौतिकविद यह ऐलान कर रहे हैं कि ‘निश्चयता’ (determinism) और ‘कार्यकारण संबंध’ (causality) भौतिक विज्ञान से खारिज हो चुके हैं। और यह ब्रह्ंमाण्ड गणितज्ञों की रचना है, और इसकी असल प्रकृति अज्ञात है। इस तरह के विचारों के मूल प्रवक्ता हैं- Jeans, Schrodinger, Heisenberg, Dirac और Eddington. ये सभी मशहूर भौतिकविज्ञानी हैं। मैक्स प्लांक और अलबर्ट आइन्सटाइन इनके प्रबल विरोधी थे, जिनकी प्रतिष्ठा ही इनके परंपरागत विचारों की रक्षा का प्रमुख हथियार था। लेकिन ‘दुश्मन’ के ठिकानों पर प्रति आक्रमण करने में ये सक्षम नहीं थे। प्लांक के अनुसार कार्य-कारण संबध (causality) का औचित्य यह था कि यह वैज्ञानिकों का विश्वास, भरोसा व न सिद्ध किया जा सकने वाला विज्ञान का मूल गुण है। आइन्सटाइन की कार्यनीति कही अधिक सरल थी – ‘‘युवा लोग क्या कह रहे हैं यह उन्हें ‘समझ नही आता’।’’
(‘The Crisis In Physics’ page-1)
किताब के आखिरी चैप्टर में काडवेल ने इस संकट का सार बताते हुए लिखा-‘‘ भौतिकी में इस संकट की जड़े काफी गहरी हैं और यह सामान्य व अंतिम संकट का एक हिस्सा हैै।’’ (पेज-161)
पूरी किताब में भौतिकी के इस संकट को समझाते हुए काडवेल ने इसे उचित ही ‘बुर्जुआ संकट’ से जोड़ा है।
तब से लेकर आज तक न सिर्फ यह संकट बढ़ा है, वरन इस संकट की पहचान भी काफी धुंधली पड़ गयी है। ‘बिग बैंग’ से लेकर ‘गाड पार्टिकल’ थ्योरी के माध्यम से अवैज्ञानिक और प्रतिक्रियावादी दर्शन ने जिस तरह से आज विज्ञान विशेषकर भौतिक विज्ञान को एक कुंहासे से ढक रखा है वह अभूतपूर्व है। यह कोई आश्चर्य की बात नही कि बिग बैंग थ्योरी को आज पोप के साथ साथ साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था का वरद हस्त प्राप्त है। जबकि इसके बरक्स दूसरी अनेक वैज्ञानिक स्थापनाएं हैं जिन्हे सुनियोजित तरीके से दरकिनार कर दिया जाता है।
‘सिंगुलैरिटी’, ‘ब्लैकहोल', ‘डार्क एनर्जी’, ‘डार्क मैटर’, 4th, 5th, 6th.. डाइमेन्सन, ‘बिग क्रन्च’, ‘बिग बैंग’ ब्रह्माण्ड की ‘हीट डेथ’ आदि के माध्यम से जो परोसा जा रहा है, वह विज्ञान से दूर विज्ञान फंतासी के ज्यादा निकट लगता है। एंगेल्स (Dialectics of nature और Anti Duhring), लेनिन (Materialism and Empirio Criticism) और एक हद तक काडवेल ने अपने अपने समयों पर द्वन्दात्मक भौतिकवाद [Dialectical materialism] की जमीन पर खड़े होकर उस समय के कुंहासे को काफी हद तक साफ किया था।
काडवेल के बाद भले ही यह संघर्ष कमजोर पड़ा हो, लेकिन यह रुका कभी नहीं। David bohm, Shoichi Sakata जैसे अनेक वैज्ञानिकों ने अपने अपने समय के अधिभूतवाद (Metaphysics) से टक्कर ली और भौतिकवादी परम्परा को धूमिल नही होने दिया।
इसी परम्परा में 2007 में एक किताब आयी थी- ‘The New Scientific Worldview’ इसके लेखक हैं- ‘Glenn Borchardt’ जो स्वयं एक वैज्ञानिक है और इनके अब तक 300 से ज्यादा पेपर प्रकाशित हो चुके हैं।
हांलांकि यह किताब मुकम्मल रुप से द्वन्दात्मक भौतिकवाद की जमीन पर खड़ी नही है और समाज विज्ञान के विश्लेषण में तो काफी कमजोर है। लेकिन इसके बावजूद यह आज के भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में छाये कुंहासे को काफी हद तक दूर करने में मददगार है।
किसी भी क्षेत्र में बुनियादी अवधारणायें (Assumptions) ही वह प्रस्थान बिन्दू होती हैं जो हमारे चिन्तन व प्रयोगों की दिशा निर्धारित करती है। भौतिकी के क्षेत्र में आज जो संकट व्याप्त है उसका कारण वे बुनियादी गलत अवधारणायें हैं जिन पर पूरा मुख्य धारा का भौतिक विज्ञान खड़ा है। इसलिए लेखक उन बुनियादी अवधारणाओं पर चोट करते हुए विज्ञान की 10 बुनियादी अलग अवधारणायें पेश करते हुए ब्रह्मांड का एक वैकल्पिक माडल पेश करता है। ये अवधारणायें हैं-
1. Materialism- The external world exists after the observer does not.
2. Causality- All effects have an infinit number of material causes.
3. Uncertainty- It is impossible to know everything about anything, but it is possible to know more about anything.
4. Inseparability- Just as there is no motion without matter, so there is no matter without motion.
5. Conservation- Matter and the motion of matter neither can be created nor destroyed.
6. Complementarity- All things are subject to divergence and convergence from other things.
7. Irreversibility- All processes are irreversible.
8. Infinity- The universe is infinite, both in the microcosmic and macrocosmic directions.
9. Relativism- All things have characteristics that make them similar to all other things, as well as characteristics that make them dissimilar to all other things.
10. Interconnection- All things are interconnected, that is, between any two objects exist other objects that transmit matter and motion.
लेखक ने इन अवधारणाओं के आधार पर यह साफ किया है कि इस ब्रह्माण्ड कि कोई शुरुवात या अंत नहीं है. यह माइक्रो [micro] और मैक्रो [macro] दोनों तरफ अनंत है।
लेखक ने इन अवधारणाओं पर आइन्स्टाइन को भी कसा है और उन्हे भी एक हद तक इस संकट का जिम्मेदार माना है। आइन्स्टाइन पर इससे पहले भी ये आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने भौतिक विज्ञान को प्रयोगों से हटाकर गणित का कैदी बना दिया। आइन्स्टाइन की सबसे बड़ी दार्शनिक चूक ‘समय’ को ‘मैटर’ के रुप में देखने की है। जबकि समय किसी मैटर का ‘मोशन’ है। ‘time dilation’ के उनके सिद्धांत ने समय में आगे-पीछे जाने जैसी कल्पनाओं के साथ साथ अन्य फंतासियों को भी जन्म दिया।
स्पेस को भी आइन्स्टाइन ’empty space’ के रुप में देखते थे। लेखक कहता है कि पूरे ब्रह्मांड में न ही ’empty space’ है और न ही ‘solid matter’ है। सभी मैटर इन्ही दोनों अवस्थाओं के बीच होते हैं। यही कारण है कि अभी तक कहीं भी 0 डिग्री k नही पाया गया है। जो ’empty space’ के लिए जरुरी है।
आइन्स्टाइन का ‘curved space’ का विचार इसी गलत अवधारणा से पैदा हुआ। जबकि स्पेस (और समय भी) मैटर का ‘mode of existence’ भर है।
किताब की दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना ईथर की स्वीकार्यता है। 1887 में ‘Michelson–Morley’ प्रयोग के बाद कई ऐसे प्रयोग हुए जो ईथर के अस्तित्व को साबित करते हैं। 2002 में उक्रेन के दो वैज्ञानिकों ने सफलतापूर्वक ‘aether drift’ को सिद्ध किया। लेकिन इनके पेपर व प्रयोगों को सचेत तरीके से मुख्य धारा के भौतिक विज्ञानियों व संस्थाओं ने नजरअंदाज किया। दरअसल आइन्सटाइन का पूरा माडल ईथर की अस्वीकार्यता पर निर्भर है। ईथर को स्वीकारते ही आइन्स्टाइन का पूरा माडल और उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लग जायेगी।
लेखक ने ईथर को स्वीकारने के साथ ही प्रकाश की पुरानी अवधारण को फिर से स्थापित किया है। लेखक के अनुसार प्रकाश कण नही तरंग है जो ईथर माध्यम में विचरण करती है और इसलिए प्रकाश की गति भी कास्टैन्ट नही हैं। ‘फोटान’ ईथर माध्यम का कण हैं प्रकाश का नहीं।
दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना ‘गुरुत्वाकर्षण’ को लेकर है। दरअसल विज्ञान में कार्य-कारण संबंध मानने वाले भौतिकवादी वैज्ञानिकों के लिए भी गुरुत्वाकर्षण एक गुत्थी है। यहां तक कि काडवेल ने भी गुरुत्वाकर्षण को सिर्फ ‘प्रभाव’(effect) माना जिसका कोई कारण नही है। न्यूटन की खोज इस ‘प्रभाव’ के बारे में है। इसके कारण का पता वे भी नही लगा सके। हालांकि न्यूटन ने इस पर एक जगह अपना संदेह भी जाहिर किया है कि कैसे दो सूदूर की वस्तुएं बिना किसी भौतिक बन्धन के एक दूसरे को आकर्षित करती हैं। यानी कि यदि कार्य-कारण संबंध का कोई अपवाद नही है तो गुरुत्वाकर्षण का भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए और वह कारण भौतिक होना चाहिए आध्यात्मिक नहीं। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का कारण भगवान पर छोड़ दिया। आइन्स्टाइन ‘curved space’ की शरण में चले गये। लेकिन लेखक का कहना है कि पूरे ब्रह्मांण में जो ईथर है उसके ‘फ्री कण’ का ‘काम्प्लेक्स कण’ पर जो ‘push’ बल लगता है उसके कारण गुरुत्वाकर्षण बल पैदा होता है। (इस प्रक्रिया में ‘vortex’ की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है।) इस रुप में गुरुत्वाकर्षण ‘pull’ नहीं बल्कि ‘push’ बल है। और इसका प्रभाव स्थानीय है, हालांकि इसकी व्यापकता पूरे ब्रह्माण्ड में है। किताब का यह चैप्टर थोड़ा कठिन है। लेकिन इतना तो समझ में आ जाता है कि न्यूटन की ‘आकर्षण’ व आइन्स्टाइन की ‘curved space’ वाली गुरुत्वाकर्षण की व्याख्या काफी अपूर्ण है और विज्ञान की दो बुनियादी अवधारणाओं ‘matter-motion’ व ‘causality’ पर खरी नही उतरती।
पुस्तक में लेखक ने ‘उर्जा’ के मिथक को भी साफ किया है। विज्ञान और दर्शन में उर्जा को लेकर अनेक भ्रमात्मक अवधारणायें हैं। आइन्स्टाइन के प्रसिद्ध सूत्र “E=MC2” ने भी इसमें अपना योगदान दिया है। इस सूत्र से ऐसा लगता है कि ‘मैटर’ और ‘उर्जा' [energy] अलग अलग चीज है जिसे एक दूसरे में बदला जा सकता है। इसी गलत अवधारणा से यह कल्पना की जाती है कि बिग बैंग से पहले ब्रह्मांड में ‘शुद्ध उर्जा’ थी और इसी से ‘मैटर’ का जन्म हुआ।
दरअसल इस पूरे ब्रह्मांड में दो ही मूल चीजे हैं- ‘मैटर’ और ‘मोशन’। बिना ‘मैटर’ के ‘मोशन’ नही हो सकता और बिना ‘मोशन’ के ‘मैटर’ नही हो सकता।
लेखक के अनुसार उर्जा ‘matter in motion’ के लिए एक अमूर्त टर्म है। उर्जा का विशिष्ट रुप कोई भी हो वह ‘motion of matter’ ही होगा। जैसे उर्जा का एक रुप प्रकाश है। यह ‘मोशन’ है जो ईथर नामक ‘मैटर’ के कारण संपन्न होता है। दूसरा उदाहरण ‘दौड़ना’ है जो ‘पैर’ नामक मैटर के कारण संभव होता है। क्या हम ‘दौड़ने’ (motion) को ‘पैर’ (matter) से अलग कर सकते हैं। इसी तरह ‘शुद्ध उर्जा’ जैसी कोई चीज नही होती।
“E=MC2” सूत्र एक प्रकार के ‘matter in motion’ का दूसरे प्रकार के ‘motion of matter’ में रुपान्तरण है, न कि ‘matter’ का ‘motion’ में रुपान्तरण।
यह स्थापना बेहद महत्वपूर्ण है कि क्योकि काडवेल भी इसे ठीक से नही समझ पाये थे और उन्होने भी प्रकाश को ‘motion of motion system’ जैसा अजीब नामकरण दिया था। दूसरी जगह इसकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं – ‘‘ प्रकाश जब परमाणु में जाकर अदृश्य हो जाता है तो मैटर बन जाता है और जब इलेक्ट्रान के रुप में प्रकट होता है तो प्रकाश बन जाता है।
(पेज-126)
इस किताब से इस बात का भी तीखा अहसास होता है कि समाज विज्ञान की तरह प्राकृतिक विज्ञान विशेषकर भौतिक विज्ञान भी तीखे विचारधारात्मक दार्शनिक संघर्ष का क्षेत्र होता है क्योकि जैसा कि काडवेल ने बहुत सटीक तरीके से समझाया है कि एक वैज्ञानिक, वैज्ञानिक होने से पहले एक इंसान होता है और इंसान के रुप में उसकी इस वर्ग समाज में एक जगह होती है और उसके अनुरुप उसकी अपनी एक विचारधारा होती है।
शासन व्यवस्था इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। और अपने तात्कालिक व दूरगामी हितों के हिसाब से कुछ वैज्ञानिकों व अवधारणाओं को गोद लेती है तो कुछ का दमन करती है या उन्हे दरकिनार करती है। ब्रूनों को जलाने से लेकर किसी पेपर को मुख्य धारा की साइन्स मैगजीन में ना छपने देना तक यह कुछ भी हो सकता है।
आज व्यवस्था की मदद से जिस तरह से ‘बिग बैंग’, ‘गाड पार्टिकल’, ‘शुद्ध उर्जा’ (स्पिरिट?) जैसी चीजों को धर्म के स्तर तक उठा कर ‘कामन सेन्स’ बनाया जा रहा है, उससे टकराने के लिए हमें भी अपनी ‘scientific worldview’ की धार को तेज करना चाहिए और द्वन्दात्मक भौतिकवाद [Dialectical materialism] की अपनी जड़ो की ओर लौटना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि ‘शुद्ध उर्जा’ की तरह ‘शुद्ध विज्ञान’ जैसी कोई चीज नही होती।
मनीष आज़ाद
© Manish Azad
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