एबीपी न्यूज पर एक डिबेट के दौरान एंकर रुबिका लियाकत ने यह सवाल पूछा कि,
कांग्रेस के कितने नेताओ को कालापानी की सज़ा मिली थी ?
इसके उत्तर में कांग्रेस के प्रवक्ता ने गांधी, नेहरू, की जेल यात्राओ के विवरण दिए।
इस पर एंकर का कहना था कि वे जेल में थे, कालापानी में नहीं।
दरअसल व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से स्वाधीनता संग्राम का इतिहास पढ़ने वाले लोग,अक्सर यह पूछते हैं कि,
● गांधी को जेल के बजाय, आगा खान के पैलेस में क्यों रखा जाता था ?
● नेहरू को तो कोई यातना नहीं दी गयी, उल्टे उन्हें, लिखने पढ़ने की आज़ादी दी जाती थी और किताबे उपलब्ध कराई जाती थीं।
यह बात भी सही है कि गांधी, नेहरू को कभी भी अंडमान नही भेजा गया, पर हर बार उन्हें आगा खान पैलेस में रखा भी नही गया। गांधी को यरवदा जेल में भी रखा गया। नेहरू को तो कभी भी आगा खान पैलेस में रखा नहीं गया। वे लखनऊ, नैनी और अहमदनगर जेल में रखे गए।
जहां तक कांग्रेस के नेताओ का सवाल है, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और नेताजी सुभाष बाबू को बर्मा के मांडले जेल में रखा गया था। तिलक, को, देशद्रोह, (सेडिशन, 124A IPC ) में सज़ा मिली थी और सुभाष बाबू को अंग्रेज, प्रशासनिक कारणों से, कलकत्ता में रखना नही चाहते थे।
सावरकर आईपीसी की जिन धाराओं में सज़ा पाए थे, वे धाराये गंभीर अपराधों की थी। और उनमे फांसी या आजीवन कारावास तक की सज़ा का प्राविधान था। सावरकर एक कन्विकटेड कैदी थे और अंडमान को उसकी दुरूहता और भौगोलिक स्थिति के कारण, अंग्रेजों ने, ऐसे कैदियों के लिये प्रशासनिक कारणों से चुना था।
स्वाधीनता संग्राम में, कांग्रेस जिस लोकतांत्रिक तरीके और सिविल नाफरमानी के मार्ग पर चल रही थी, उसमे, उसने अंगेजो के लिये ऐसा कोई स्कोप ही नही छोड़ा कि अंग्रेज उनको अंडमान भेजते, या आईपीसी की गम्भीर अपराध की धाराओं में सज़ा दिलाते। गांधी, इस बात को समझ चुके थे, कि हिंसक आंदोलनों को कोई भी सरकार, आपराधिक कानूनो की आड़ में कभी भी दबा सकती है। गांधी ने, जब वे दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने गए थे, और अपने तथा भारतीयों पर हो रहे, रंगभेद के उत्पीड़न के विरोध में सक्रिय थे, तब भी, उन्होंने ब्रिटिश पार्लियामेंट या सेक्रेटरी ऑफ कॉलोनीज को जब भी पत्र या प्रतिवेदन दिया, उसमे खुद और साथी भारतीयों के लिये ब्रिटिश राज्य की प्रजा कह कर ही सम्बोधित किया। ब्रिटेन में बसे भारतीयों को, ब्रिटिश संसद में, वोट का अधिकार था, और पहले भारतीय, दादाभाई नौरोजी, ब्रिटिश संसद के लिए चुने भी जा चुके थे। खुद को सभ्यता के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में स्वघोषित अंगेजो के सामने गांधी ने, उन्ही के संविधान और परंपराओं का उल्लेख कर के अपने शांतिपूर्ण, सिविल नाफरमानी का जो मार्ग चुना था, उसमे, अंग्रेजों के सामने न तो दंड विधानों की आड़ में, और न ही, किसी अन्य तरह से आक्रामक होने का कोई स्कोप ही नहीं था।
गांधी जी ने प्रतिरोध की इसी तकनीक को, भारत मे भी अपनाया। सिविल नाफरमानी की राह चुनी। सावरकर के अंडमान में बंद रखने, उन्हें अंग्रेजों द्वारा यातना दिए जाने पर किसी ने कोई सवाल कभी उठाया भी नहीं है। यह एक तथ्य है कि वे अंडमान में एक कोठरी में बंद थे, और उन्हें सश्रम कारावास की जो यातनाएं दी जा सकती है, वे या उनसे अधिक यातनाओं भी दी जा रही थीं। पर सवाल उठता है, उनके माफीनामे और उन शर्तो पर, जो उन्होंने अंग्रेजों से किये थे, कि, वे आज़ादी के आंदोलन और गतिविधियों से दूर रहेंगे और अंग्रेजों से पेंशन लेंगे। अंडमान की यातना कथा की तरह, सावरकर के माफीनामे और 60 रुपये पेंशन पर जीवन गुजारने की बात भी ऐतिहासिक तथ्य है। इसका भी प्रतिवाद कोई सावरकर समर्थक नहीं करता है।
सावरकर के समर्थकों से, क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि, 'उन्होंने अंग्रेजों की यह शर्त क्यों स्वीकार की कि, वे आज़ादी के आंदोलन से दूर रहेँगे ?' और वे, अंग्रेजों की शर्तों के पाबंद भी रहे, और आज़ादी के आंदोलन से दूर भी बने रहे। 1924 के लेकर 1947 तक उनकी स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी कोई भी गतिविधिया, इतिहास में नहीं मिलती हैं। यदि इतिहासकारों ने, स्वाधीनता संग्राम में, उनकी भूमिका के साथ न्याय नही किया तो, अब भी स्वाधीनता संग्राम के समस्त दस्तावेज उपलब्ध हैं, और सावरकर समग्र भी बाजार में आ गया है, उनके आधार पर इतिहास का कोई भी शोधार्थी, उनके अंडमान जेल से छोड़े जाने के बाद की, स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान पर शोध कर सकता है औऱ किताबे लिख सकता है।
सावरकर, 1921 में अंडमान के सेलुलर जेल से छोड़े गए और तीन साल के लिये रत्नागिरी में फिर से निरुद्ध रहे। इस बीच जो महत्वपूर्ण स्वाधीनता संग्राम की घटनाएं घटीं उनमे, भगत सिंह, राजगुरु सुखदेव सहित अन्य क्रांतिकारियों पर मुकदमा, शहीद त्रिमूर्ति को फांसी, और अन्य को आजीवन कारावास, काकोरी ट्रेन डकैती कांड, गांधी जी का, नमक कानून तोड़ो आंदोलन, वार्ताओं के क्रम में, गोलमेज सम्मेलन, 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1937 के आम चुनाव, 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत, नेताजी का कांग्रेस से त्यागपत्र और फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन, 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, सुभाष बाबू का स्वतः निर्वासन में भारत के बाहर भेस बदल कर निकल जाना, आज़ाद हिंद फौज की स्थापना, अंग्रेजी साम्राज्य पर हमला, इम्फाल सीमा तक आ जाना, अंडमान निकोबार को आज़ाद करा लेना, बॉम्बे नेवी में विद्रोह, 1946 में नेताजी सुभाष के आज़ाद हिंद फौज का ट्रायल सहित अनेक गतिविधियां चलती है। पर इन सारी गतिविधियों में सावरकर कहीं नजर नहीं आते हैं। क्यो ? उन्हें किसने रोका था ? गांधी, क्रांतिकारी साथी और सुभाष बाबू सबके आज़ादी की लड़ाई के तरीक़ो में अपने अपने मतभेद थे, पर वे सभी ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से मुक्ति चाहते थे। पर वीडी सावरकर क्या चाहते थे ?
न तो वे गांधी के साथ दिखते हैं और न भगत सिंह सहित अन्य क्रांतिकारी आंदोलन के साथ, न भारत छोड़ो आंदोलन के साथ, न, आज़ाद हिंद फौज के साथ। क्यो ? क्या यह सवाल सावरकर के समर्थकों से नहीं पूछा जाना चाहिए ? यदि वे अपनी अलग शैली के साथ स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान, अंडमान से छोड़े जाने के बाद देना चाहते थे, तो उन्होंने, हिन्दू महासभा के बैनर तले ही आज़ादी के लिये कोई आंदोलन क्यों नही चलाया ? पर, जो आदमी इसी वादे पर जेल से छूट कर बाहर आया हो कि, वह स्वाधीनता संग्राम से दूर रहेगा और 60 रुपये पेंशन पर गुजारा करेगा वह तो अपना वादा ही निभाएगा, न कि वह आंदोलन में भाग लेगा।
वे 1937 में सक्रिय होते हैं। पर आज़ाद होने के लिये नहीं, जिन्ना को 'एक स्टेनो और एक टाइपराइटर' के बल पर पाकिस्तान की गठन के लिये एक घातक विभाजनकारी विचारधारा में अपना साथ देने के लिये। यह था, द्विराष्ट्रवाद का घातक सिद्धांत। वे जिन्ना के हमसफ़र बनते हैं, जो इसी लाइन और लेंथ पर एक मुल्क जो इस्लाम पर आधारित थियोक्रेटिक राज्य होगा, पर न केवल सोच रहे थे, बल्कि बाकायदा इसके लिये स्वाधीनता संग्राम के विरोध में अंग्रेजों के साथ मिलकर देश के बंटवारे की भूमिका भी रच रहे थे। जिन्ना और सावरकर दोनो ही एक दूसरे के धर्मो के कट्टर विरोधी होते हुए भी एक दूसरे के हमख़याल थे। दोनो ही अपनी धर्मांधता भरी सोच के साथ हिन्दू मुस्लिम अलग अलग मुल्क पाने के, ख्वाहिशमंद हो, उसकी पूर्ति के मंसूबे बांध रहे थे।
पर जिन्ना जहां अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं, वही सावरकर नाकामयाब रहते है। पाकिस्तान धर्म के आधार पर बनता है और भारत एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील गणतंत्र की राह चुनता है। गांधी जी को अपार जनसमर्थन प्राप्त था। और सावरकर के पक्ष में उनके मुट्ठी भर सहयोगी ही थे। यही कुंठा, गांधी हत्या का कारण बनी।
अब एक नया तर्क सावरकर समर्थकों ने उनकी माफी के संदर्भ में उछाला है। वे माफी से इनकार नहीं करते हैं, बस वे यह कहते हैं कि माफी मांग कर जेल से छूट जाना एक रणनीति थी। और इसके सन्दर्भ में वे यह तथ्य देते हैं,
" अगर आप सावरकर को माफीवीर कहना चाहते हैं,तो फिर भगवान् कृष्ण और छत्रपति शिवाजी को भी डरपोक कहना पड़ेगा। कृष्ण ने तो रणनीति के तहत युद्ध का मैदान छोड़ा और उनका नाम "रणछोड़" पड़ गया और छत्रपति शिवाजी भी कई बार शत्रु को निपटाने के लिए पीछे हटे, गुफाओं-जंगलों और किलों में छुपे "
वे यह भी मानते हैं कि, कॄष्ण ने मगध के राजा जरासंध से सम्भावित एक बड़ा युद्ध बचाने के लिये मथुरा से पलायन कर गए और इतिहास में वे रणछोड़ कहलाये। पर क्या उन्होंने फिर जरासंध से इसका प्रतिकार लिए ही उसे छोड़ दिया था ?
जी नहीं। वे एक मल्ल प्रतियोगिता में मगध जाते है औऱ भीम उसमे भाग लेते हैं। भीम को वे जरासंध की शारिरिक कमजोरी को एक तिनके को बीच से फाड़ कर बताते है। भीम उसी इशारे के बाद जरासंध के शरीर को चीर देता है। जरांसध का अंत होता है और मगध के कारागार से बंदी राजाओं को मुक्ति मिलती है।
कृष्ण ने तो अपनी रणनीति को सफलतापूर्वक अंजाम दिया औऱ जैसे ही उन्हें अवसर मिला उन्होंने जरांसध का अंत करा दिया। क्या इस पर सावरकर की उपमा सही बैठती है ?
अब आइए, शिवाजी और औरंगजेब पर। राजा जसवंत सिंह, औरंगजेब की तरफ से शिवाजी को मना कर मुगल दरबार मे लाते हैं। वहां शिवाजी को कम कीमत के मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया जाता है। शिवाजी नाराज हो जाते हैं और वे वही इस का विरोध करते हैं। दरबार मे इस हंगामे पर बादशाह जानकारी चाहता है।
बादशाह से यह कहा जाता है कि, दक्षिण के इस पहाड़ी राजा, शिवाजी को, उत्तर की आबोहवा रास नही आ रही है। वह कुछ विक्षिप्त हो गया है। मुगल बादशाह, शिवाजी को गिरफ्तार करा कर आगरा किले में बंदी बना लेता है। शिवाजी कोई माफी नही मानते हैं। वे कारागार से निकल भागते हैं।
शिवाजी, मुगलों के खिलाफ जीवन पर्यंत युद्धरत रहते है। न तो वे कभी माफीनामा भेजते हैं और न ही औरंगजेब के खिलाफ अपना अभियान कम करते हैं।
क्या शिवाजी के इस इतिहास से सावरकर के माफीनामे की, जिसे एक रणनीति बताई जा रही है, कोई तुलना की जा सकती है ?
कदापि नहीं।
सावरकर समर्थक जितना ही सावरकर के बचाव में अजीबोगरीब तर्क गढ़ेंगे, वे उतने ही एक्सपोज होंगे। पर उनके तर्कों को यूं ही नही छोड़ दिया जाना चाहिए, बल्कि उनका पूरी जानकारी और गम्भीरता के साथ खंडन किया जाना चाहिए।
( विजय शंकर सिंह )
बेहतरीन तथ्यात्मक ज्ञानवर्धक लेख
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