अगली सुबह जिप्सी से सुकवा-ढुकवा बांध देख आए। उस समय यह सूखा पड़ा था। इसके रपटे भी सूखे थे। पता चला कि बांध के साथ कोई सड़क नहीं है, इसलिए लोग बांध के रपटीले रास्ते से ही गुजरते हैं। अंग्रेजों ने इसे सिंचाई के लिए बनाया था। धूप काफ़ी थी, इसलिए बहुत अंदर तक नहीं गए और झाँसी वापस लौट आए। पारीछा डैम कानपुर रोड पर है और भेल (BHEL) के अधीन है। इसका पावर हाउज़ा भी काफ़ी बड़ा है।
हम अब झाँसी पर आते हैं। बुंदेलखंड की यह राजधानी क़िले और अपने आसपास के पर्यटक स्थलों- ओरछा, तालबेहट, बरुआ सागर आदि के कारण ही जानी जाती हैं। दतिया भी यहाँ से तीस किमी है। दो बड़े जैन तीर्थ- देवगिरि और सोनागिरि जाने वाले श्रद्धालु भी झाँसी स्टेशन ही उतरते हैं। बाक़ी झाँसी में बैद्यनाथ दवा कंपनी के कारख़ाने हैं। पत्थर, ख़ासकर ललितपुर से निकले इटैलियन मार्बल की बड़ी मार्केट है। मऊ रानीपुर की खादी और वह भी खादी की टेरीकॉट तब बड़ी मशहूर थी। बरुआ सागर में अदरक की खेती बहुत होती थी। यहाँ की छावनी बहुत बड़ी है, इसके अतिरिक्त सेंट्रल रेलवे का यह डिवीजनल हेडक्वार्टर था। यहाँ का रेलवे स्टेशन बहुत बड़ा था। एक मेडिकल कॉलेज था और आज भी है। महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज लेकिन लोग शॉर्ट में इसे मलबा बोलते थे इसलिए मैं इसको कचरे का ढेर समझता रहा। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय है तथा एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय भी।
नारोशंकर जब यहाँ के सूबेदार थे तब मंदिर और इमारतें बनाने के लिए वे महाराष्ट्र से शिल्पकार लाए, उनकी बड़ी बसावट है यहाँ। सीपरी बाज़ार उन्हीं का था। उसी समय कोरी (हिंदू बुनकर) यहाँ बड़ी संख्या में बसे थे। एक कोरिन झलकारी बाई तो रानी लक्ष्मीबाई के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी भी थी। बाद में जब अंग्रेजों ने झाँसी को नष्ट किया तो ये बुनकर लोग कराची चले गए और पाकिस्तान बनने पर उनकी एक बड़ी आबादी कानपुर आ कर बस गई। कुछ बुनकर मऊ रानीपुर में ज़ा कर बस गए और आज भी वहीं पर आबाद हैं। यहाँ नारोशंकर और राजा गंगाधर राव के समय महराष्ट्र के लोगों की बड़ी आबादी थी पर अब न के बराबर बचे हैं। उत्तर प्रदेश विधान सभा के पहले स्पीकर आत्माराम गोविंद खेर यहीं के थे। ब्राह्मणों की यहाँ काफ़ी संख्या है। इनमें अधिकतर ब्राह्मण कान्यकुब्ज हैं फिर जुझौतिया हैं। बनियों में सुनार लोग काफ़ी हैं। मारवाड़ी और पंजाबी खत्री भी बहुत बड़ी संख्या में हैं। यादव लोग भी काफ़ी संख्या में हैं। झाँसी के आसपास गाँवों में यादव लोग बड़ी संख्या में थे। वे अब शहर आकर बस गए हैं। यादवों के बराबर ही लोध राजपूत हैं। ये लोग भी ओबीसी में आते हैं। अधिकतर किसान हैं और अब व्यापारी भी हैं तथा सरकारी नौकरियों में हैं। यूँ भी बुंदेलखंड के इस इलाक़े में लोध राजपूत बहुत हैं। जबलपुर के समीप रामगढ़ में तो लोध राजपूतों का एक रजवाड़ा भी था। वहाँ के राजा विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद रानी अवंती बाई अंग्रेजों से 1857 में लड़ी थीं। दलितों में चिकवा (हिंदू कसाई) आबादी भी है। मुसलमान आबादी में सबसे बड़ी संख्या पठानों की है। ये पठान लोग दिल्ली में बहादुर शाह ज़फ़र के पतन के बाद झाँसी आ कर रानी की फ़ौज में भर्ती हो गए थे।
सिविल लाइंस सुंदर है। बाक़ी के इलाक़े में मकान पत्थरों से पटे हैं। अप्रैल से मानसून तक इतनी भीषण गर्मी होती है कि एसी कमरे को ठंडा नहीं कर पाते। इसलिए यहाँ के लोग अरब देशों में बिकने वाले एसी ‘जीईसी’ का प्रयोग करते हैं। कूलर ज़रूर थोड़ा ठंडा करते हैं। पुराने मकानों की छत पत्थरों की होती थी इसलिए मकान धधकते थे। चूँकि यह बुंदेलखंड का सबसे बड़ा शहर है इसलिए होटल भी हैं। लेकिन थ्री स्टार लेबल के भी नहीं हैं। अलबत्ता गेस्ट हाउस बहुत हैं और अच्छे भी। पारीछा डैम का गेस्ट हाउस भी झाँसी के पॉश इलाक़े में है। सर्किट हाउस है और सिंचाई तथा पीडब्लूडी के गेस्ट हाउस हैं। कमिश्नर, डीआईजी, डीएम व एसएसपी के बंगले हैं। फ़ौजी अधिकारियों के बंगले तो बहुत ही शानदार हैं। शहर का धनाढ्य वर्ग सिविल लाइंस में रहता है। और शेष लोग घनी बस्तियों में। मध्य वर्ग के नाम पर सरकारी कर्मचारी हैं या टीचर। कुल मिला कर झाँसी शहर में एक तरफ़ तो खूब सम्पन्नता है और दूसरी विशाल बीपीएल आबादी।
घूमने के लिहाज़ से झाँसी आ सकते हैं।
(जारी)
© शंभूनाथ सिंह
कोस कोस का पानी (14)
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