लौटते हैं पुराने यात्रा वृत्तांत पर। अगली सुबह हम लोग अर्थात् पंडित विश्वनाथ शर्मा, मूल चंद यादव, वीर सिंह गुर्जर और मैं तथा दो लोग और चले गढ़ कुंढार की तरफ़। दो गाड़ियाँ थीं। दोनों एम्बेसडर। एक में शर्मा जी के अलावा मैं और वीर सिंह गुर्जर। तथा दूसरी में मूल चंद व बाक़ी के दो लोग। दोनों में बावर्दी ड्राइवर भी। झाँसी से निकलने के बाद कुछ देर तक तो प्लेन रास्ता मिला फिर जंगल और पठार। क़रीब दो घंटे बाद हम गढ़ कुंढार पहुँचे। दूर एक पहाड़ी पर क़िला बना था। पहाड़ी के नीचे एक गाँव था, वहीं पंडित जी ने गाड़ियाँ रुकवाईं। यह पूरा गाँव मुसलमानों का था। उनमें से कुछ लोग हमारे गाइड बन गए। उनको ख़ुशी थी कि बहुत दिनों बाद कोई तो पर्यटक आया। चलने के पहले पंडित जी ने प्रधान जैसे दिखने वाले एक सज्जन को बुलाया और हज़ार रुपए दिए। बुंदेली में कहा, कि एक बकरा कटवा लेना और जब तक हम आएँ भोजन तैयार रहे।
वहाँ से क़िला लगभग ढाई किमी चढ़ाई पर था। धूप और गर्मी से बहाल थे। लेकिन उस ऊँचे क़िले को देखने का उत्साह इतना था, कि उस कंकरीले रास्ते पर हम लगभग दौड़ते से चढ़ते रहे। बाबू वृंदावन लाल वर्मा ने गढ़ कुंढार शीर्षक से एक उपन्यास लिखा है। हमें बस उसी की याद थी। पौन घंटे में हम पहाड़ी के ऊपर आ गए। पहाड़ी के ऊपर इस हज़ार वर्ष पुराने क़िले को देख कर हम अभिभूत रह गए। कैसे बना होगा यह क़िला, जो पाँच मंज़िल का है। मज़े की बात कि दो मंज़िल ज़मीन के नीचे है और तीन मंज़िल ज़मीन के ऊपर। गाइड ने बताया कि एक मंदिर है, जहाँ मेला भी लगता है। यह क़िला 975 ईसवी में चंदेल राजा यशोवर्मा ने बनवाया था। साल 1182 में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल वंश के राजा सयाजी परमार को पराजित कर क़िला अपने अधिकार में ले लिया और खेत सिंह खँगार को यहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। पर जब मुहम्मद गोरी से तराई के युद्ध में पृथ्वी राज चौहान हार हार गए तो यहाँ के सूबेदार खेत सिंह खँगार ने ख़ुद को यहाँ का शासक घोषित कर दिया। इस तरह खँगार वंश की स्थापना हुई। खँगार राजाओं ने इस क्षेत्र का विकास किया। कुएँ, बावड़ी और तालाब खुदवाए।
खँगार राजाओं ने क़िले का भी विस्तार किया और क़रीब ढाई एकड़ में क़िला है। हालाँकि आज सब कुछ ध्वस्त अवस्था में है लेकिन इसका शिल्प देख कर उस वक्त की सामाजिक अवस्था और रहन-सहन का पता पड़ता है। दूसरी मंज़िल पर स्नानागार हैं, टॉयलेट्स हैं और शयनागार हैं। वर्ष 1507 में जब बुंदेला राजा रुद्रप्रताप सिंह ने ओरछा राज्य की स्थापना की तो इस क़िले को जीत लिया। इस तरह खँगार वंश का पतन हुआ। खँगार एक समय में बहुत बहादुर योद्धा थे और बुंदेलखंड में उनकी तूती बोलती थी। लेकिन फिर वे आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ते चले गए। आज यह क्षत्रिय वंश पिछड़ी जातियों में गिना जाता है।
क़िला देखने के बाद हम नीचे गाँव में आए। जिन मियाँ जी को हज़ार रुपए दिए गए थे, उनसे खाने के बारे में पूछा गया तो वे टालमटोल करने लगे। शायद उन्होंने सोचा रहा होगा, कि ये परदेसी लोग हैं, देर होते ही चले जाएँगे। कोई कहे आटा लेने गए हैं तो कोई कहे बकरा लेने। इसके बाद पंडित जी बुंदेली में दहाड़े। उन्होंने कहा कि झाँसी पहुँच कर तुम्हारे इलाक़े की सांसद विद्यावती चतुर्वेदी (सत्यव्रत चतुर्वेदी की मां) को फ़ोन करूँगा। विद्यावती चतुर्वेदी कांग्रेस की बड़ी नेता थीं। दो बार वे खजुराहो लोकसभा सीट से सांसद रहीं। इंदिरा-राजीव गांधी परिवार से उनके रिश्ते थे। बाद में एक ने पंडित जी को पहचान कर कहा अरे सांसद जी! इसके बाद तो फटाफट घरों में चक्कियाँ चलने लगीं और आटा पिस गया तथा मटन भी तैयार हो गया। भोजन के बाद हम लोग चार बजे वहाँ से निकले और फिर ओरछा आए। यहाँ पर एक गेस्ट हाउस में दाल, बाटी, चूरमा का इंतज़ाम था। रात दस तक झाँसी आ गए।पंडित जी से विदा ली और कहा, कल सुबह हम निकल जाएँगे।
सुबह नाश्ते के बाद हम लोग जिप्सी से दिल्ली के लिए चल दिए। झाँसी से कुल 30 किमी दतिया है। दूर से ही दतिया राजा का क़िला दिखा, किसी ने कहा कि यहाँ एक सिद्ध पीठ है। लेकिन न तो अंग्रेजों के उस वफ़ादार और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाईं के साथ घात करने वाले उस राजा का क़िला देखने की इच्छा हुई न वह सिद्धपीठ। वहाँ से टेकनपुर आए। यहाँ पर बीएसएफ का प्रशिक्षण स्कूल है। शहर बड़ा था, लेकिन हम लोग पार कर गए। फिर पड़ा ग्वालियर, जहां पर वीर सिंह ने जिप्सी रोकी और कहा, कि यह ग़द्दारों का शहर है। महल की तरफ़ मुँह कर थूक दिया। मुरैना के एक ढाबे में रुके। दाल, रोटी, चावल खा कर फिर चल दिए। इसके बाद राजस्थान पड़ा और फिर सैयाँ चौकी से यूपी में एंटर हुए। आगरा, मथुरा, कोसी, पलवल, फ़रीदाबाद होते हुए दिल्ली आ गए।
( इस तरह बुंदेलखंड यात्रा पूरी हुई। लेकिन कोस-कोस का पानी सीरीज़ आगे भी जारी रहेगी। किंतु कुछ दिनों के विराम के बाद.)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (19)
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