मारुति जिप्सी उस समय तिरपाल वाली ही आती थी। स्टील बॉडी नहीं आई थी। दो सीटें आगे थीं और पीछे की सीटों तीन-तीन लोग आमने-सामने बैठ सकते थे। हम लोग सिर्फ़ दो थे। मगर उसका एवरेज उतना ही रहता चाहे आठ लोग चलो या दो। उस समय इसका एवरेज हाई-वे पर दस किमी था और सिटी में आठ। और पेट्रोल की क़ीमत 14 रुपए के आसपास थी। अब अथाह पैसा न वीर सिंह के पास था न मेरे पास। वह तो शुक्र था कि मैं जनसत्ता में नौकरी करने के अलावा फ़्री-लांसिंग कर लेता था इसलिए 1990-91 में महीने में पाँच-छह हज़ार और आ जाता। उस समय छोटे-बड़े सभी अख़बार लिखने का पैसा देते थे। मैं हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स के रविवारी परिशिष्ट में पत्नी के नाम से लिख देता। हिंदुस्तान में परिशिष्ट के संपादक विजय किशोर मानव थे और नवभारत टाइम्स में प्रयाग शुक्ल। इसके अतिरिक्त तारिक अनवर की पत्रिका युवक धारा उस समय सुरेश सलिल देखते थे, वे पूरा अंक मुझसे लिखवा लेते। उससे तीन-साढ़े तीन हज़ार मिल जाता। कुछ काम भाई नरेंद्र तोमर करवा लेते और वहाँ से भी हज़ार रुपए मिल जाते। यह राशि उन दिनों मेरे वेतन 4500 रुपए से ड्योढ़ी हो जाती। इसलिए मैंने यात्रा के लिए 5000 रुपए निकाल रखे थे। यानी 2000 रुपए का पेट्रोल मैं डलवा दूँगा, बाक़ी का अन्य ख़र्चों के वास्ते। इतने का ही बजट वीर सिंह का था।जिप्सी का टैंक 40 लीटर का था। दिल्ली से अब तक हम लोग दो बार भरवा चुके थे।
उसी दिन दोपहर बाद हम महोबा के लिए निकले। मौदहा के बाद से ही कबरई की खदानें शुरू हो जाती हैं। चूना-पत्थर का इलाक़ा है। धुँध छायी रहती है। न कोई पेड़ न छाँह।भयानक धूप और लू को पार करते अंततः हम शाम साढ़े छह बजे 90 किमी की यात्रा तय कर महोबा पहुँचे। महोबा का मौसम बहुत सुहाना था। महोबा ऐतिहासिक शहर है। लोक-मान्यता के अनुसार आल्हा-ऊदल यहीं के थे। यहाँ के चंदेल राजाओं के तालाब बहुत सुंदर बने हैं। बारहों महीने वे लबालब भरे रहते। राणा प्रताप सागर बांध तो अभी बना था। बांध के ऊपर ही एक सरकारी गेस्ट हाउस था। लेकिन उसमें डकैत डेरा डाले रहते थे। इसलिए हमीरपुर में ही ज़िलाधिकारी ने मना कर दिया था। महोबा में तब कोई होटल भी नहीं थे। कुछ धर्मशालाएँ ज़रूर रही होंगी।
हमारे एक मित्र दीपक मलिक सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता थे और मौदहा डैम का निर्माण देख रहे थे। वे एक बार दिल्ली जब अपने घर आए तो मुझे महोबा आने का निमंत्रण दे गए थे, क्योंकि मौदहा डैम के इंजीनियरों के लिए महोबा में अस्थायी कालोनी बनाई गई थी। मैंने मालूम किया, तो उस कॉलोनी का पता चल गया। वहाँ पहुँचे तो संयोग से मलिक साहब मिल भी गए। वे बड़े खुश हुए। बेचारे अकेले रहते थे। इस कॉलोनी में एक सुपरिटेंडिंग इंजीनियर, एक एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, तीन सहायक अभियंता और आठ जूनियर इंजीनियर तथा इसके अलावा कुछ लेखा विभाग के बाबू थे। एस्बेस्टस की शीट से बनायी गई यह कॉलोनी सिंचाई विभाग के जंगल में बनी थी।
शहर से दूर। रात हो जाए तो शहर जाने और आने के रास्ते में डकैतों का डर। हर अधिकारी को एक बैरक जैसा घर मिला था। मलिक साहब की बैरक ऐसी थी, जैसे 20 फ़िट ऊँचा, इतना ही लम्बा-चौड़ा कोई डब्बा हो। एस्बेस्टस का होने के कारण धधकता भी खूब था। लेकिन मलिक साहब ने एक बड़ा-सा कूलर लगा रखा था। पर्दे लगा कर रसोई और बाथरूम भी। टॉयलेट बैरक के बाहर थी। एक टीवी लगा था जिस पर वीसीआर से वे फ़िल्में देख लेते। घरेलू सहायक था ही। इसलिए भोजन बढ़िया बनता। वे हमें अपनी बैरक में ले गए। बिस्तर थे ही, बस फ़ोल्डिंग पलंग एक था। उसे खड़ा किया गया और गद्दे डाल कर बिस्तर ज़मीन पर लगाए गए। कूलर के बावजूद रात भर गर्मी से नींद नहीं आई। हम लोग आँय-बाँय-साँय फ़िल्में ही देखते रहे।
सिंचाई विभाग की उस कॉलोनी में बिजली संकट नहीं था। और खूब हरा-भरा था। रात को बाहर टॉयलेट जाने में भय लगता। वहाँ तेंदुए आ जाते थे और डकैत तो और भयानक। सुबह तय हुआ, कहाँ ज़ाया जाए? चित्रकूट दूर था और खजुराहो क़रीब। लेकिन वीर सिंह ने कहा, चित्रकूट चलो। तब ऊबड़-खाबड़ रास्ते में जिप्सी गड़बड़ हो गई तो उन दिनों कोई मेकेनिक भी नहीं मिलता था। इसलिए दीपक मलिक ने कहा, मैं भी चलूँगा और अपनी जीप ले चलता हूँ। जिप्सी वहीं खड़ी कर दी गई और सरकारी जीप से हम पहले गए चित्रकूट। वहाँ जैपुरिया सेठ की सीतापुर में विशाल धर्मशाला है। साफ़-सुथरी और शानदार, हर कमरे में निवाड़ के पलंग और कूलर। तब एसी इतना कॉमन नहीं था। कमरे भी बड़े और खूब हवादार। तीन कमरे मिल गए। उनकी भोजनशाला में प्रति थाली दस रुपए लगते थे। हर थाली में दाल, तीन तरह की सब्ज़ियाँ, खीर, बेसन की रोटी और चावल। अगले दिन हम लोग मंदाकिनी नदी पार कर हनुमान धारा गए। लगभग सात सौ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं। मंदाकिनी नदी में तब पुल नहीं था, इसलिए पैदल ही पार की। बस एक जगह पानी कमर तक था, बाक़ी जगह घुटनों तक ही। लौट कर गुप्त गोदावरी गए। वहाँ मशहूर पत्रकार सत्य नारायण शर्मा मिल गए। पहले यह क्षेत्र उनकी ज़मींदारी में था। वे गुफा से एक ऐसी जगह ले गए, जहाँ से छाती के बल लेट कर हमने एक दर्रा पार किया और सामने प्रत्यक्ष गोदावरी नदी थी। वह स्थान क़रीब 15 फ़िट चौड़ा रहा होगा। रेत पर तमाम सांप लोटे हुए थे। इसके बाद हम लौट आए और अगले रोज़ फिर महोबा वापस। वहाँ से खजुराहो जाने का प्रस्ताव मेरा था।
(जारी)
© शभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (7)
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