आज भी और तब भी मैं सोचा करता था कि घुमक्कड़ी का मतलब क्या चीजों को बस देख लेना भर है! पत्थर की इमारत देखी, झरने देखे, हरियाली देखी और मौज-मस्ती करते लोग देखे। गाँव देखे तथा घर भी, लेकिन उनमें रहने वालों से मिले नहीं तो मेरी इस घुमक्कड़ी का क्या अर्थ है? घुमक्कड़ी से तात्पर्य घूम-घूम कर लोगों की पीड़ा, दुःख और तकलीफ़ों को समझना भी है। इसलिए बुंदेलखंड को इस नज़रिये से भी समझना आवश्यक था।
बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़ा इलाक़ा है। और आज से नहीं वर्षों से। हालाँकि खनिज संपदा से भरपूर है। जंगल भी हैं किंतु पानी के स्रोत कम हैं। इसलिए बावड़ी, बड़े-बड़े तालाब बनवाना उनका एक विकल्प हो सकता था। किंतु यहाँ का दुर्भाग्य यह रहा, कि इसे मुग़लों के समय से ही उपेक्षित रखा गया। यहाँ जंगल हैं, पठार हैं लेकिन पानी की कमी है। इसके चलते यहाँ ज़मीन उपजाऊ नहीं है। इसलिए किसानी यहाँ एक निरर्थक व्यवसाय रहा है। अंग्रेजों ने भी यहाँ के लिए कोई ध्यान नहीं दिया। न नहरें निकालीं न बरसात के पानी को इकट्ठा करने के लिए तालाब बनवाए। अलबत्ता जो तालाब यहाँ के प्राचीन राजाओं और जागीरदारों ने बनाए थे, उन्हें तोड़ा नहीं। परंतु आज़ादी के बाद शासन-प्रशासन ने उन तालाबों को नष्ट कर दिया। हमीरपुर के लोग तो नौकरी करने के लिए कानपुर चले जाते पर महोबा के लोगों के लिए आसपास कोई शहर नहीं था। बुंदेलखंड का मंडलीय हेडक्वार्टर झाँसी में था। लेकिन झाँसी भी वहाँ से 162 किमी है। और झाँसी में भी कोई रोज़गार नहीं। ऐसे में लोग अपनी खेती, गहने, कपड़े-लत्ते गिरवी रख कर काम चलाते। बुंदेलखंड में चांदी के गहने पहनने का रिवाज वर्षों से रहा है। गरीब से गरीब परिवार की औरतें भी पाँवों में आधा सेर (क़रीब 465 ग्राम) चांदी के कड़े या लच्छे ज़रूर पहने होतीं। चांदी की सुतिया, कमरबंद आदि सब मिला कर सेर भर चांदी हो जाती। ठीक-ठाक कृषक परिवारों के पास इतना ही सोना होता। लेकिन तालाबों के नष्ट होने और मानसून के धोखा देने से उपज कभी होती कभी न होती। इसलिए यहाँ सबसे अधिक कमाई महाजन लोग करते। गिरो-गाँठ का काम करने के लिए यहाँ राजस्थान के मारवाड़ी व्यापारी 19 वीं सदी में ही आकर बस गए थे। इसके अतिरिक्त बुंदेलखंड पहला क्षेत्र है, जहाँ से मज़दूरों को सपरिवार बंधक बना कर ईंट-भट्ठे वाले ले ज़ाया करते। इन्हें छत्तीसगढ़िया मज़दूर कहा जाता था। युवा, स्त्रियाँ, बुजुर्ग और बच्चे सब ईंट-गारा ढुलाई का काम करते। कुछ जो बँधुआ मज़दूरी से स्वतंत्र हो गए, वे शहरों में रिक्शा चलाने लगते, दूधियों के यहाँ नौकर हो जाते, उनकी औरतें घरों में मेड का काम करतीं। लेकिन बांग्ला-देशियों की बाढ़ ने उनकी औरतों से यह काम छीन लिया। बाँग्ला देशी मज़दूर सस्ते थे और ईद-बक़रीद के अलावा छुट्टी भी न लेते। तब महोबे वाले लोग शहरों में साग-सब्ज़ी बेचने लगे या चाट के खोंचे लगाने लगे।
बुंदेलखंड में घरों को छप्पर या लकड़ी की पाटी से छाने की बजाय मिट्टी के खपरैलों से छाते। इसलिए कुम्हारी का काम यहाँ खूब था। महोबा में लकड़ी के खिलौने भी बनाए जाते। लेकिन किसानी का स्कोप बहुत कम बचा था। इसलिए पलायन किसानों का ही होता। वे अपनी परंपरा और मर्यादा बचाये रखने के लिए खेती गिरो रख कर क़र्ज़ लेते और उसका ब्याज इतना देते जो मूल से कई गुना अधिक होता। मैं कई गाँवों में गया। उनकी पीड़ा सुन कर दुःखी होता। दूर-दूर तक बंजर ज़मीन। बड़े-बड़े ऊसर। नौगाँव छावनी से पक्की रोड मिली। इसमें जगह-जगह सड़क गड्ढे में चली जाती, जिसे खलवा कहते थे। यहाँ पर सड़क के ऊपर से बरसात में पानी बहता था। अर्थात् यदि बरसात के पानी को सहेजा जाता तो यहाँ पानी की कमी दूर हो सकती थी। लेकिन सरकारों को लूट से छुट्टी मिले तब जन-कल्याण के काम शुरू हों। यूँ भी खुशहाली लाने का मतलब महाजनी पर चोट था। और महाजन लोग ही सरकार के नियंता होते हैं।
हम शाम को झाँसी आ गए। वहाँ तब कमिश्नर डीडी मिश्रा थे। उन्होंने झाँसी के सर्किट हाउस में दो कमरों की व्यवस्था कर दी। शाम को भोजन पंडित विश्वनाथ शर्मा के सिविल लाइंस स्थित आवास “मंगलम” में था। पंडित जी उन दिनों हमीर पुर से लोकसभा सदस्य थे।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/9.html
#vss
No comments:
Post a Comment