अभी तक की सूचना के अनुसार अयोध्या में प्रस्तावित राम मंदिर के लिए घंटा जलेसर में बनेगा। पीतल के घंटों, घंटियों और घुँघरुओं के लिए जलेसर सैकड़ों वर्ष से मशहूर है। वैसे पीतल नगरी मुरादाबाद है किंतु वहाँ पीतल की सजावटी वस्तुएँ ही बनती हैं। मुरादाबाद की अधिकांश कारीगरी विदेशों को निर्यात होती है। पर जलेसर का उत्पाद देश में खपता है। झाँझ और मजीरा भी जलेसर में बनता है। एक तरह से सभी हिंदू मंदिरों में बजने वाला घंटा, बैलों के गले में रूनझुन बजती घंटी और नर्तक के घुँघरू जलेसर से अच्छे कहीं नहीं बन सकते। जलेसर उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में पड़ता है। दिल्ली-हावड़ा मेन ट्रैक में हाथरस के बाद जलेसर रोड स्टेशन है। वहाँ से जलेसर 28 किमी है। वैसे सड़क मार्ग से आगरा और जलेसर के बीच 47 किमी का फ़ासला है। मैं क़रीब चार दशक पहले एटा से जलेसर गया था। बरेली-आगरा हाई-वे अब फ़ोर लेन का बन रहा है, इसके किनारे जलेसर पड़ेगा।
जलेसर में पीतल के घंटे, घंटियाँ, घुँघरू व झाँझ-मजीरा बनाने वाले 90 प्रतिशत कारीगर मुस्लिम है और माल के ख़रीददार हिंदू। क्योंकि तीन चौथाई माल हिंदू पूजागृहों तथा धार्मिक कार्यक्रमों हेतु बनता है। दक्षिण भारत में जहाँ शिव के वाहन नंदी की विशाल प्रतिमाएँ हैं, वहाँ नंदी के गले में पड़ी घंटियाँ और मंदिर में लगे घंटे यहीं से सप्लाई होते हैं। घंटे से जो "टन्न" की आवाज़ निकलती है, उसी का सारा खेल है। कहते हैं, कि ऐसी ध्वनि सिर्फ़ जलेसर में बने घंटों से ही निकलती है। बंगलूरू में मैंने सुना था कि वहाँ के बुल टेम्पल में यहीं का घंटा लगा है। विश्वास है, कि जलेसर की माटी में ऐसी ख़ासियत है कि यहाँ जैसी ध्वनि और कहीं के बने घंटे या घंटियों में नहीं सुनाई पड़ते।
हस्तकौशल की कारीगरी में भारत को महारत हासिल रही है। मुग़लों के समय भी यहाँ का माल विदेशों में जाता था। बहुत से चर्च के घंटे भी यहीं से निर्यात होते थे। लेकिन भारत में कारीगरों को उनके श्रम के अनुरूप पैसा नहीं मिला, बिचौलिये पैसा ले जाते थे। फिर वह चाहे मुरादाबाद हो या जलेसर।
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (22)
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