Monday, 18 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (22) वह एक पत्र !

आज से 38 साल पहले जब यह पत्र मुझे मिला, तो लगा मानों कलट्टरी का ऑफ़र मिला हो। कितना लंबा, कठिन और उबाऊ टेस्ट दिया था। इसके बाद इंटरव्यू और फिर नियुक्ति। छटते-छटते कुल एक प्रतिशत लोगों का चयन हुआ। उनमें से यह नाचीज़ भी था। प्रभाष जी के उस पत्र की बानगी प्रस्तुत है। 

दैनिक जागरण में नौकरी करते हुए मुझे तीन साल हो गए थे और तब तक यह भी लगने लगा कि यहाँ पर भविष्य उज्जवल नहीं है। इसलिए अब मैने ठान लिया कि अगर कुछ नया करना है तो दिल्ली का रुख करना चाहिए। पर कहां? दिल्ली में मैं किसी को जानता नहीं था। परिवार की माली हालत ऐसी नहीं थी कि मैं रहूं दिल्ली में और खर्चा पानी घर से मंगा लूं। निराशा के इन्हीं दिनों में मैने इंडियन एक्सप्रेस में एक विज्ञापन देखा कि एक्सप्रेस ग्रुप के जल्दी ही निकलने वाले हिंदी दैनिक के लिए पत्रकारों की जरूरत है। यह मेरे लिए सुनहरा मौका था। मैने बगैर किसी से पूछे फौरन इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संपादक बीजी वर्गीज के नाम हिंदी में एक आवेदन लिखा कि मैं कानपुर के दैनिक जागरण में तीन साल से उप संपादक हूं। सबिंग, संपादन, रिपोर्टिंग व लेखन में मेरी गति अच्छी है। इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़कर पत्रकारिता करने की मेरी दिली इच्छा है। 

मार्च 1983 में मैने यह आवेदन भेजा था लेकिन महीनों बीत गए कोई जवाब नहीं। तब तक यह पता चल गया कि जागरण से कई लोगों ने आवेदन किया हुआ है। एक्सप्रेस ग्रुप के भावी हिंदी अखबार की लिखित परीक्षा के लिए उन सभी लोगों के पास बुलावा आने लगा जिन्होंने वहां आवेदन किया था। राजीव शुक्ला उन दिनों जागरण में मेरे सीनियर साथी थे। अक्सर उनकी डेस्क में मुझे रहना पड़ता। एक दिन अकेले में मैने उन्हें बताया कि ‘यार एक्सप्रेस में मैने भी एप्लीकेशन भेजी थी लेकिन मेरे पास अभी तक कोई जवाब नहीं आया’। राजीव शुक्ला भी दिल्ली जाकर एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार का टेस्ट देने जाने वाले थे। राजीव ने पूछा कि किसके नाम एप्लीकेशन भेजी थी? मैने बताया बीजी वर्गीज के नाम भेजी थी हिंदी में लिखकर। राजीव ने कहा- “तुमने हिंदी में आवेदन भेजा है वह भी बीजी वर्गीज के नाम। पता है वो हिंदी बोल भी नहीं पाते हैं पढ़ना तो दूर। मुझसे पूछ लिया होता मैं बता देता कि किसके नाम भेजनी है? और कम से कम एप्लीकेशन तो अंग्रेजी में भेजनी थी”।

आगे राजीव ने बताया कि एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अखबार का नाम जनसत्ता है और उसके संपादक प्रभाष जोशी हैं। मैने हिंदी में यह नाम ही पहली बार सुना था। मैने मान लिया कि गलती हो गई अब मेरा एक्सप्रेस समूह में काम करना सपना बनकर ही रह जाएगा। लेकिन इसके तीन चार दिनों बाद ही 26 मई की शाम पांच बजे के आसपास मेरे घर पर इंडियन एक्सप्रेस से एक तार आया जिसमें लिखा था कि 28 मई 1983 को सुबह 11 बजे दिल्ली की इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में मुझे उनके हिंदी अखबार जनसत्ता की लिखित परीक्षा में शरीक होना है। तार पढ़ते ही मैं उत्साह से उड़ान भरने लगा। फौरन तैयारी की और रात आठ बजे कानपुर सेंट्रल से इलेवन अप पकड़ कर सुबह पांच बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन आ गया।

सुबह पाँच बजे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन उतरा और वहीं पर फ़ारिग हुआ। स्नान भी वहीं किया और फिर पता किया कि दरिया गंज कितनी दूर है? पता चला कि क़रीब ही है। दरअसल दस, दरियागंज से दिनमान छपता था, उसमें अपने दोस्त संतोष तिवारी उप संपादक थे। पता चला, कि स्टेशन से बाहर जाकर बस पकड़ लूँ। वहाँ से लालक़िला और उसके बाद दरिया गंज। एक ने कहा पैदल चले जाओ, लाल क़िला भी देख लेना। मैं पैदल ही चल पड़ा, सामान के नाम पर एक बकसिया थी, जिसमें एक जोड़ी कपड़े और सौ रुपए रखे थे। तब कानपुर से दिल्ली का किराया शायद 32 रुपए हुआ करता था। लाल क़िला की पूरी प्राचीर को क़रीब से देखते व छूते हुए मैं ठीक 9.45 पर दस दरियागंज पहुँच गया। संतोष तो नहीं मिले पर सक्सेना नाम के एक सज्जन मिले, जो वहाँ चपरासी थे। उन्होंने बताया कि तिवारी जी 11 बजे आएँगे। लेकिन आप आराम से बैठो। उन्होंने मेरे लिए दो समोसे और चाय ला कर दी। मैं उनसे बातचीत करने लगा। उन्होंने बताया कि उन्हें टाइम्स से 1150 रुपए हर महीने मिलते हैं। मुझे तब दैनिक जागरण में 785 रुपए मिलते थे। उस समय मुझे लगा कि नौकरी तो अब दिल्ली में ही करूँगा। संतोष आए तो उन्होंने कहा, कि तुम तब तक घूम-घाम आओ और शाम पाँच बजे घर चलेंगे। लंच भी उन्होंने करवा दिया। और आईटीओ का रास्ता बता दिया। मैं मई की दोपहरी में ही पैदल दस दरियागंज से आईटीओ आ गया। एक्सप्रेस बिल्डिंग देख कर लगा कि काश! यहीं नौकरी मिल जाए। पर मेरा टेस्ट अगले रोज़ था। इसलिए टाइम्स हाउस चला गया, जहां श्री देवप्रिय अवस्थी काम करते थे। वे बहुत कड़क पत्रकार थे और आज भी हैं। 

सुना था कि उनका चयन जनसत्ता में डेस्क में सबसे ऊपर के पद पर हुआ है। चूँकि वे भी पहले दैनिक जागरण में काम करते थे इसलिए सौहार्दवश मिलने चला गया। टाइम्स में नीचे ही राजीव शुक्ल भी मिल गए। वे भी जनसत्ता का टेस्ट देने आए थे। हम अवस्थी जी के पास गए। उन्होंने समझा कि हम सिफ़ारिश लगवाने आए हैं इसलिए उन्होंने सीधे मुँह बात नहीं की। यहाँ तक कि पानी को भी नहीं पूछा। हम लोग भुनभुनाते हुए बाहर आ गए और नीचे प्रताप भवन में उडुपी में जाकर कॉफ़ी पी। तय हुआ कि कानपुर ज़ा कर अवस्थी जी के इस व्यवहार की भर्त्सना करेंगे। एक्सप्रेस बिल्डिंग और टाइम्स हाउस सेंट्रली एयर कंडीशंड थे और इस तरह की भव्य बिल्डिंगें मैंने पहली मरतबा देखी थीं, इसलिए आँखें चकाचौंध हो गईं। शाम को मैं संतोष तिवारी के पास आ गया। वहाँ से निकल कर 118 नम्बर की बस पकड़ी और पटपड़ गंज आ गए। यहीं पर एक गली के मकान की बरसाती को संतोष ने 125 रुपए महीने किराए पर ले रखा था। पटपड़ गंज तब एक गाँव था और इतना पिछड़ा कि कानपुर उसके मुक़ाबले कई गुना एडवांस। मैंने संतोष से कहा, कि तुम खामख़ाँ में कानपुर छोड़ कर यहाँ आए। उसने कहा कि तुम भी तो आ रहे हो। ख़ैर, अगले रोज़ ठीक साढ़े दस बजे इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुँच गए। ठीक 11 बजे बेसमेंट के एक हाल में बिठा दिया गया और एक कई पेज़ का प्रश्नपत्र मिला, इसे छह बजे तक हल करना था। राजीव शुक्ला की सीट ठीक मेरे आगे थी। 

प्रश्नपत्र में एक सवाल था, कि ‘राजस्थान की एक ढाणी’ मुझे समझ ही न आए कि यह ढाणी क्या है? मैंने राजीव से पूछा कि ‘ए राजीव ये ढाणी क्या है?’ उसने एकदम परायेपन जैसा व्यवहार किया और बोला- प्रभाष जोशी से पूछो। ठीक उसी समय मिड फ़िफ़्टीज़ के एक सज्जन जो आधी बाजू की बुशर्ट और पैंट पहने हुए थे, मेरे पास आए और बोले- “मैं प्रभाष जोशी हूँ”। मैं एकदम हड़बड़ा कर खड़ा हो गया और बोला- “नमस्ते भाई साहब! मैं शंभूनाथ” उन्होंने कहा, शंभूनाथ शुक्ल कानपुर से। मैंने कहा, जी। उन्होंने बताया कि ढाणी जैसे तुम्हारे यहाँ पुरवा! सब कुछ सहज होता चला गया। सात घंटे बाद मुझे लगा कि रिटेन में तो मुझे कोई फेल नहीं कर पाएगा। वही हुआ भी। 

13 जून को मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। चूंकि एक बार दिल्ली हो आया था इसलिए कुछ आत्मविश्वास भी था। एक्सप्रेस बिल्डिंग के हाल में तमाम लोग बैठे थे कुछ इंटरव्यू दे चुके थे कुछ का नंबर अभी आना था। वहां की फुसफुसाहट से पता चला कि अंदर सारे लोग अंग्रेजी के ही हैं। प्रभाष जोशी जो उस वक्त तक इंडियन एक्सप्रेस के रेजीडेंट एडिटर थे, बीजी वर्गीज, एलसी जैन तथा राजगोपाल। मुझे लगा कि मेरा लौट जाना श्रेयस्कर होगा। ये लोग लगता है कि हिंदी पत्रकारों से अंग्रेजी में ही अखबार निकलवाएंगे। तभी मेरा नाम बुलाया गया। अंदर पहुंचा तो पहले प्रभाष जी ने ही पूछा कि आपने ज्यादातर रपटें गांवों के बारे में लिखी हैं आप मुझे सेंट्रल यूपी के जातीय समीकरण के बारे में बताइए। मेरा आत्मविश्वास लौट आया और मैं फटाफट बोलने लगा। कुछ सवाल वर्गीज जी ने पूछे तथा कुछ एलसी जैन ने। लेकिन अब मैं आश्वस्त था कि मेरा चयन सेंट परसेंट पक्का है। 18 जुलाई को प्रभाष जी का एक पत्र आया जिसमें लिखा था- प्रिय श्री शुक्ल, बधाई! आपका जनसत्ता में चयन हो गया है। आपका नाम मेरिट लिस्ट में है। चुनने का हमारा तरीका शायद बेहद थकाऊ और उबाऊ रहा होगा लेकिन मुझे लगता है कि प्रतिष्ठाओं और सिफारिशों को छानने के लिए इससे बेहतर कोई चलनी नहीं थी। मेरा मानना है कि पहाड़ वही लोग चढ़ पाते हैं जो बगैर किसी सहारे के अपने बूते चलते हैं।'

प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी। राजीव और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था।
इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते।

साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। प्रभाष जी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था।
इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। 1983 नवंबर की 17 तारीख को जनसत्ता बाजार में आया।

हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम हिंदी था। इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था।

उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था।
भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है।

यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे।
प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी।

इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है।

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (21)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/21.html
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