Sunday, 3 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (9) खजुराहो में एक महाराजा!

चित्रकूट से हम वापस महोबा आ गए तब अगले रोज़ मैंने कहा, अब खजुराहो चलेंगे। महोबा से क़रीब 60 किमी दूर है खजुराहो। सुबह नाश्ते के बाद हम मलिक साहब की जीप से निकले। प्रचंड धूप और ताप के बीच चले जा रहे थे। लौंडी नाम का एक गाँव-नुमा क़स्बा मिला। यहीं रुक कर पानी पिया गया। जैसे-जैसे खजुराहो क़रीब आता गया, हरियाली बढ़ने लगी। थोड़ी देर बाद हम खजुराहो में थे। शहर में घुसते ही एक पेड़ पर एक बोर्ड लटका हुआ था, जिसमें विभिन्न प्रकारों की शराब के नाम और उनकी क़ीमत दर्ज थी। वीर सिंह गुर्जर की पसंदीदा शराब थी बैग पाइपर और उसकी क़ीमत दर्ज थी 80 रुपए। सबसे अलग लिखा था, पीटर स्कॉट और क़ीमत 500 रुपए। इंडियन व्हिस्की में यह तब सबसे ऊपर मानी जाती थी। वीर सिंह अपना ब्रांड ख़रीदने के लिए एक दूकान पर जाने लगे तो मैंने कहा तुम रुको वीर सिंह और मैं एक बॉटल पीटर स्कॉट ख़रीद लाया। आख़िर खजुराहो में कुछ तो टॉप का होना चाहिए। पूरा शहर गोरे लोगों से पटा पड़ा था। कुछ हिप्पी जैसे और कुछ सॉफ़स्टीकेटेड स्त्री-पुरुष दोनों। एक ओपन एयर रेस्तराँ में हम चाय पीने बैठे, वहाँ पर सफ़ेद रंग की एक 118 NE खड़ी थी, उसमें नम्बर प्लेट के स्थान पर लाल रंग का एक अर्धचंद्राकार बोर्ड लगा था जिसमें लिखा था- MAHARAJA OF PANNA, महाराजा ऑफ़ पन्ना शायद उस समय लोक सभा के सदस्य भी थे। मुझे इस बोर्ड को देख कर हँसी आई। कैसे ये राजा है जिन्हें अपने सांसद होने पर गर्व नहीं, अंग्रेजों की ग़ुलामी पसंद है। महाराजा साहब ने मेरी मुस्कुराहट देख ली किंतु न वे मेरे पास आए न मैं उनके पास गया। 

विंध्य की पहाड़ियों से घिरा हुआ खजुराहो सुंदर है। गर्मी में भी शीतल छाँह रहती है। सोचा गया मंदिर देखने पाँच बजे निकलेंगे क्योंकि अभी धूप और गर्मी के कारण पत्थरों पर चलना मुश्किल होगा। खजुराहो में कानपुर के अपने एक मित्र गुप्ता जी ने दस एकड़ ज़मीन ख़रीद रखी थी। एक पहाड़ी भी इसी ज़मीन पर थी। कुछ हट्स बना कर रिसॉर्ट्स की शक्ल दे रखी थी। मगर गुप्ता जी का कानपुर के नौघड़ा में कपड़ों का बड़ा काम था सो उन्हें कभी यहाँ आने की फ़ुरसत मिलती नहीं थी और न ही इस रिसॉर्ट्स के देख-भाल की। उन्होंने यहाँ पर अंबरीष निगम को इसका प्रबंधक बना रखा था। और निगम उन्हें फूटी कौड़ी न देता उल्टे उन्हीं से हर महीने इसके मेंटीनेंस का खर्चा मंगाता। गुप्ता जी यह रिसॉर्ट्स बेचना चाहते थे और ग्राहक भी उनकी गरज समझ कर ज़मीन तक का पैसा देने को तैयार नहीं थे। मैंने इस रिसॉर्ट्स में डेरा डाला। चूँकि मामला मालिक के गेस्ट का था इसलिए निगम ने मेरी आँखों पर धूल झोंकने की कोशिश की लेकिन उस रिसॉर्ट्स में ठहरे विदेशियों की गिनती मुझसे छुपा नहीं पाए। 

शाम पाँच बजे हम निकले। कई मंदिर हैं। मंदिरों में ज़्यादातर विदेशी थे। ये मंदिर 1000-1100 साल पुराने हैं। सम्भवतः गुर्जर-प्रतिहार क्षत्रियों के पतन के बाद जब यहाँ चंदेल वंशी राजपूतों का शासन हुआ, तब ये मंदिर बने। मंदिर देख कर यह तो लगता ही है जब राज्य सुरक्षित होता है और विरोधियों के हमलों का डर नहीं होता, सब लोग खुशहाल होते हैं तब मनुष्य का ध्यान भोग-विलास की तरफ़ जाता है। मनुष्य की अतृप्त कामेच्छाओं तथा अव्यक्त कामनाओं की अभिव्यक्ति हैं ये मंदिर। जब तुर्कों के हमले हुए तो चंदेल राजा पहाड़ों की तरफ़ भाग गए और यह इलाक़ा बीहड़ और जंगलों से घिर गया। इस्लाम में चूँकि स्त्री को परदे के भीतर रखने का चलन है इसलिए इस्लामी शासकों ने इस तरफ़ देखा भी नहीं। ईस्ट इंडिया कम्पनी के जमाने में ब्रिटिश इंजीनियर टीएस बर्ट जब जंगल तोड़ता हुआ यहाँ पहुँचा तो वह इन मंदिरों को देख कर दंग रह गया। उसने इन मंदिरों की साफ़-सफ़ाई करवाई। इन मंदिरों को पश्चिमी समूह अथवा पंछैंहा समूह कहा गया। पश्चिमी और दक्षिणी भाग के मंदिर विभिन्न हिंदू देवी-देवताओं को समर्पित हैं। इनमें से आठ मंदिर विष्णु को समर्पित हैं, छह शिव को, और एक गणेश और सूर्य को जबकि तीन जैन तीर्थंकरों को हैं। कंदरिया महादेव मंदिर उन सभी मंदिरों में सबसे बड़ा है, जो बने हुए हैं। मुझे उनकी कला को समझनेके लिए समय भी नहीं था इसलिए सुबह नाश्ते के बाद हम फिर महोबा के लिए रवाना हो गए। 

महोबा आकर तय हुआ, कि अब नौगाँव छावनी होते हुए झाँसी ज़ाया जाए। लेकिन कल सुबह। उस दिन हम लोग महोबा घूमे। 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (8)
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