यह किस्त भी झाँसी यात्रा की क्षेपक ही है। इसमें भी बुंदेलखंड ही है। इसे आज के संदर्भ में अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे आपको बुंदेलखंड की दुर्गम भौगोलिक स्थिति का अंदाज़ लगेगा। यह 1982 की बात है, मुझे दैनिक जागरण से हमीरपुर ज़िला दिया गया था। हालाँकि मैं रिपोर्टिंग टीम में नहीं था लेकिन उस समय दैनिक जागरण के संपादकीय प्रमुख हरि नारायण निगम ने डेस्क के साथियों को हर 15 दिन में कानपुर से बाहर के ज़िलों में घूम-घूम कर रिपोर्टिंग करने का अभिनव प्रयोग किया था। मेरे हिस्से में हमीरपुर, एटा और सुल्तानपुर ज़िले आए। ये तीनों ज़िले बहुत पिछड़े हुए थे। एटा का वृत्तांत मैं एक बार पहले लिख चुका हूँ। अब आते हैं हमीरपुर की तरफ़।
जब हमीरपुर मैं पहली मर्तबे गया था तब तारीख़ दो जून थी। लू के थपेड़ों के बीच गाँव-गाँव घूमना बहुत मुश्किल होता। मैं अपने साथ एक तौलिया रखता और उसको भिगो कर कानों में लपेटे रहता। सुबह कच्चा प्याज़ भी खाता ताकि लू से बचा रहूँ। लेकिन इसके तीन हफ़्ते बाद जब मैं 24 जून को गया तो हमीरपुर में बाढ़ से बुरा हाल था। लेकिन तब पत्रकारिता से अधिक ज़रूरी काम हम लोग पीड़ितों की मदद समझते थे। कोई पानी में डूब रहा है, तो उसकी फ़ोटो नहीं खींचते थे बल्कि उसका हाथ पकड़ कर उसे बाहर खींचते थे। हम अखबारी पत्रकारों में इतनी ममता और मानवता हुआ करती थी कि हम अक्सर अपनी खबर के लिए जूझना बंद कर लोगों को बचाने की कोशिश किया करते थे। खबर इंसानों के लिए होती थी इसलिए जोखिम में पड़े इंसानों को बचाना बड़ा काम था बजाय अपनी खबर को तत्काल अपने दफ्तर पहुंचाने के। हो सकता है कि आप कहें कि आप लोग प्रोफेशनल नहीं थे। सही है हम प्रोफेशनल नहीं थे।
दैनिक जागरण के कानपुर ऑफ़िस से जैसे ही मैं यमुना पुल पार कर हमीरपुर में दाखिल हुआ, सूचना मिली कि कानपुर को जोड़ने वाला जवाहर नाला टूट गया है। इसलिए अब कानपुर वापसी संभव नहीं। पूरे हमीरपुर में चारों तरफ पानी ही पानी था। एक तरफ यमुना उफन रही थीं और दूसरी तरफ बेतवा। उरई जाने वाली सड़क पर नाले ने रास्ता ब्लाक कर दिया था। और चौथी तरफ यमुना और बेतवा का संगम था। पूरे शहर में कमर तक पानी भरा हुआ था और बीच-बीच में खुले नाले। मैने कवरेज बंद कर पहला काम यह किया कि जिला प्रशासन के साथ नाव में बैठकर डूबे हुए गांवों में खाना पहुंचाना शुरू किया। दिन भर बेतवा की धार में समाए गांवों और ऊँचे पेड़ों पर पनाह पाए बैठे गांव वालों को खाना पानी पहुंचाते तथा उन्हें निकाल कर शहर लाते। एक दिन तो अपने साथ लाया मटका बेतवा में गिर गया इसलिए बेतवा के पानी को पीकर हमने यानी हमीरपुर के तत्कालीन डीएम सत्यप्रकाश गौड़, एसडीएम विद्यानंद गर्ग और वहां के ग्रामीण बैंक के चेयरमैन रवींद्र कौशल ने प्यास लगने पर बेतवा का पानी चिल्लू में भर कर पिया। आज हम सारे चैनलों में देखते हैं कि कैसे विजुअल मीडिया के पत्रकार किसी भूखे बेहाल और मृतपाय यात्री को राहत पहुंचाना तो दूर उलटे उनसे यह पूछ रहे हैं कि आपको डूबते हुए, मरते हुए कैसा लग रहा है? क्या आपको काले भैंसे पर सवार यमराज दिख रहे हैं? यही फर्क है तब की और अब की पत्रकारिता में!
हमारी कुशलता की ज़िम्मेदारी डीएम साहब ने ली और उन्होंने वाया लखनऊ मेरे घर सूचना पहुँचाई कि बाढ़ की वजह से एक हफ़्ते नहीं लौट पाऊँगा। किंतु मेरे सुरक्षा के प्रति निश्चिंत रहें।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (16)
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