सन 2000 की फ़रवरी में जब मैं कोलकाता (तब वह कलकत्ता था) पहुँचा। तब पहली समस्या थी मौसम की और दूसरी बोली। दिल्ली से इनर, स्वेटर और सूट पहन कर जब हवाई जहाज़ पर चढ़ा तब शीत से कँपकँपी लग रही थी। और दो घंटे बाद कलकत्ता के नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरा तब सारे कपड़े उतार फेकने का मन कर रहा था। छह महीने तो अलीपुर स्थित इंडियन एक्सप्रेस के गेस्ट हाउस में रहा, जहाँ सब कुछ हिंदी में था। किंतु जब कंपनी ने लेक टाउन में फ़्लैट दिया तब बोली से रू-ब-रू होना पड़ा। लेक टाउन का पानी खारा था, इसलिए मैं पानी का कंटेनर मँगवाता था। पहले ही दिन सुबह-सुबह डोर बेल बजी तो देखा एक युवक खड़ा है। मैंने इशारे से पूछा, क्या है? बोला- जोल! जोल! अब मेरे कुछ पल्ले नहीं पड़ा। मैंने कहा मैं क्या करूँ। तब तक पड़ोस के फ़्लैट से एक बंग महिला निकलीं और बोलीं ये ड्रिंकिंग वाटर लाया है। इसी तरह एक दिन मैं किसी से मिलने जा रहा था। ड्राइवर भी वह जगह ढूँढ़ नहीं पा रहा था। अचानक एक सरदार जी टैक्सी चलाते दिखे। मैं उनके पास गया। उनसे पंजाबी में पूछा। तब उन्होंने जो जवाब दिया, उसे सुनकर मैं सन्न रह गया। वे भोजपुरी में बोले, कि मुझे नहीं पता आप क्या कह रहे हैं? आप या तो बाँग्ला में पूछें या भोजपुरी में। बाद में उन्होंने बताया कि वे पटना के हैं और उन्हें पंजाबी नहीं आती।
तीसरा शॉक तब लगा जब मैं शिलाँग गया। वहाँ मुझे कहा गया, कि बाँग्ला बिल्कुल न बोलिएगा और न ही अपने को कलकत्ता निवासी बताना। हिंदी बोलना और दिल्ली वाला या यूपी वाला बताना। यही अनुभव पुरी और भुवनेश्वर में भी रहा। बॉम्बे में समझाया गया कि पूछताछ करते वक्त किसी को भी भैया न कह देना, भाऊ बोलना। सबसे मज़ेदार प्रवास था मद्रास और पोंडिचेरी का। जहाँ पर साफ़ कह दिया जाता था- “नो हिंदी नो इंगलिश ओन्ली तमिल!” और इसकी काट थी किसी मुस्लिम दूकानदार से ही सामान ख़रीदना। पर इसमें भी फँस गए। अतिरिक्त चातुर्य बरतने के ख़्याल से मैंने मदुरै में दूकानदार से कह दिया कि मैं मुस्लिम हूँ और नाम बताया “हसन अब्दुल्ला!” लेन-देन के बाद उसने कहा- भाईजान! नाम तो यूपी वाला रखो, जैसे मुन्ने ख़ाँ या नन्हें ख़ाँ।
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (24)
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