अगर मार्क्सवादी क्रांति की योजना बना रहे थे, तो पुलिस भी अपनी चालें चल रही थी। एक फूलप्रूफ तरकीब थी, जिसका प्रयोग दुनिया में आगे भी हुआ। अगर मजदूरों का संगठन सरकार ही बना कर दे दे? वहाँ अपना ही यूनियन लीडर बिठा दे?
एक पादरी फ़ादर गैपन को सेंट पीटर्सबर्ग के मजदूरों का लीडर बना दिया गया। वह मजदूरों में ज़ार और चर्च के प्रति श्रद्धा का इंजेक्शन देने लगे। अब अगर कोई मार्क्सवादी उन्हें भटकाने का प्रयास करता, तो फ़ादर गैपन उन्हें रास्ते पर ले आते। आखिर धर्मगुरु की वाक्पटुता और विश्वास का मुक़ाबला भला एक अंडरग्राउंड क्रांतिकारी क्या कर पाता?
लेकिन, बाइबल हाथ में लेकर घूमने वाले धर्मगुरु आखिर अपनी आँखें कैसे बंद रखते? मजदूरों का शोषण तो स्पष्ट था, और स्थिति बद से बदतर हो रही थी। जनवरी, 1905 को एक पुतिलोव नामक फ़ैक्ट्री में हड़ताल हुई। मजदूर फ़ादर गैपन के पास मदद माँगने पहुँचे।
उन्होंने समझाया, “हम अपनी अर्जी सीधे ज़ार के पास लेकर जाते हैं। वह हमारे साथ अवश्य न्याय करेंगे।”
फ़ादर को यह यकीन था कि ज़ार उन्हें देख कर उनका स्वागत करेंगे, और थोड़ा-बहुत आश्वासन देकर मामला सेटल कर देंगे। 9 जनवरी को रूस की उस बर्फ़ीली ठंड में मजदूरों का जत्था ‘विंटर पैलेस’ की ओर बढ़ने लगा। स्वयं फ़ादर आगे चलते हुए नेतृत्व कर रहे थे, और पीछे सैकड़ों मजदूर चले आ रहे थे। उनकी अर्जी थी-
“महामहिम ! हम मजदूर, हमारी पत्नियाँ, हमारे बच्चे, हमारे बूढ़े माता-पिता आपकी शरण में न्याय के लिए आए हैं। हम सभी गरीबी और शोषण से जूझ रहे हैं। हमें गुलाम बना कर हमारे साथ अमानवीय व्यवहार होता है। अब स्थिति यह है कि हम इस जिल्लत और भूखमरी की ज़िंदगी से बेहतर मर जाना पसंद करेंगे”
जैसे-जैसे मजदूर राजमहल की ओर बढ़ने लगे, महल के चारों ओर सुरक्षा-चक्र बनाया जाने लगा। रूस में एक वफ़ादार खानदानी योद्धा-वर्ग है- ‘कोसैक’। इसे भारत के राजपूत, सिख, गुरखा समुदायों या जापानी समुराई की तरह देखा जा सकता है। उन कोसैक को देख कर एक बार मजदूरों की भीड़ ठिठक गयी, लेकिन फ़ादर ने समझाया कि घबराने की बात नहीं। जैसे ही मजदूर महल से दो सौ गज दूर पहुँचे, अंधा-धुंध गोलियाँ चलनी शुरू हो गयी और लाशें गिरने लगी।
लेखक मैक्सिम गोर्की जो उस भीड़ में मौजूद थे, वह इस ‘ब्लडी सन्डे’ का हृदय-विदारक चित्रण करते हैं। सफ़ेद बर्फ की चादर रक्त से लाल हो गयी, और यह लाल रंग ही ज़ार के अंत का कारण बना। आखिर ज़ार या उनके मंत्री दो मिनट मजदूरों से बात कर लेते, तो क्या हो जाता?
उस दिन सौ से अधिक लाशें गिरी, और जनता में ज़ार के प्रति आक्रोश फैल गया। जापान से चल रहे युद्ध में एक रूसी जहाज पर विद्रोह हो गया। पोलैंड से साइबेरिया तक कारखानों में हड़ताल होने लगे। सेंट पीटर्सबर्ग में मज़दूरों के परिषद बनने लगे, जो कहलाए ‘सोवियत’। इन सोवियत का अध्यक्ष एक छब्बीस साल का नवयुवक लियोन त्रोत्स्की था, जिसके ओजस्वी भाषण पीटर्सबर्ग में गूँज रहे थे।
जब ज़ार ने देखा कि पानी सर के ऊपर से जा रहा है, तो उन्होंने दो कदम उठाए। रूस में पहली बार संविधान का निर्माण हुआ और ड्यूमा (संसद) को ताकत दिए जाने का निर्णय किया गया। यह कहलाया- अक्तूबर मैनिफेस्टो। दूसरा कदम था त्रोत्सकी जैसे यहूदियों के ख़िलाफ़ जनता को भड़काना, और इस पूरे आंदोलन में एक सांप्रदायिक ऐंगल लाना।
ड्यूमा बनने का मतलब ही था कि राजनैतिक दल बनेंगे, जो अपनी पोलिटिक्स खेलेंगे। दक्षिणपंथी से उदारवादी तक अपने-अपने जाल फेंकेंगे, और मजदूर गटर में ही रह जाएँगे। अक्तूबर मैनिफ़ेस्टो के ठीक बाद घोर राष्ट्रवादियों का एक समूह बना ‘ब्लैक हंड्रेड्स’। वे ज़ार के समर्थन में ईसाई धर्म का झंडा उठाए घूमने लगे, और जनता को यहूदियों के खिलाफ़ भड़काने लगे। वे कहने लगे कि इन सभी आंदोलनों के पीछे पोलैंड और रूस के ये यहूदी बुद्धिजीवी हैं। वे देशद्रोही हैं!
रूस में फिर एक बार शुरु हुआ यहूदी नरसंहार यानी ‘पोग्रोम’। ओडेसा शहर में सैकड़ों यहूदी मौत के घाट उतारे गए। यह रक्त-पिपासु जनता आंदोलन करना भूल गयी। अगले वर्ष तक ज़ार-विरोध की चिनगारियाँ बुझने लगी। आंदोलनकारी पकड़े गए, मारे गए या विदेश भाग गए।
कुछ वर्षों बाद वियना के एक कैफ़े में लिओन त्रोत्स्की एक नयी पत्रिका की प्रूफ़ देख रहे थे। पत्रिका का नाम था- प्रावदा (सत्य)। उनसे मिलने एक तगड़ी मूँछों वाले रूसी नवयुवक आए और कहा, “मेरा नाम जोसेफ़ है, लोग स्तालिन भी बुलाते हैं। मुझे लेनिन ने आपसे मिलने भेजा है।”
त्रोत्सकी खड़े होकर कहते हैं, “लेनिन ने? चलो! टहलते हुए बात करते हैं”
जब वे शॉनब्रून पार्क में टहलते हुए रूस का भविष्य टटोल रहे थे, वियना के उसी इलाके में एक बेघर नवयुवक एडॉल्फ हिटलर भी अपनी ठौर तलाश रहा था।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/14_29.html
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