हर बड़ी लड़ाई की शुरुआत एक छोटी लड़ाई से होती है। यूँ तो जेरूसलम यहूदियों, ईसाइयों, और मुसलमानों तीनों की पवित्र भूमि है, उन्नीसवीं सदी में यह ईसाइयों के लिए सबसे हैपेनिंग तीर्थ बन गया था। यहाँ के गिरजाघर में दूर-दूर से कोई जहाज पर बैठ कर, कोई ट्रेन पर बैठ कर, तो कोई महीनों पैदल ही चल कर तीर्थ करने आता। तुर्क सुल्तान का ख़ज़ाना इन तीर्थयात्रियों से तो भरता ही, दुकानें फिलीस्तीनी मुसलमानों की थी और रईस ईसाइयों के टूर गाइड भी मुसलमान ही रहते।
धीरे-धीरे हर बड़े यूरोपीय देश वहाँ धर्मशालाएँ, मठ, रैनबसेरा और अपने गिरजाघर बनाने लग गए। ग्रीक और रूसी मिल कर ऑर्थोडॉक्स समुदाय के इंतजाम करने लगे, वहीं शेष यूरोप के कैथॉलिक वहाँ ज़मीन खरीदने लगे। चूँकि वहाँ के गिरजाघर में एक पत्थर पर यीशु मसीह का पवित्र क्रॉस गड़ा हुआ था, तो वह दोनों के लिए पूज्य था। तुर्की के सुल्तान अपने फ़रमान से यह निर्णय करते कि कब कौन सा समुदाय पूजा करेगा। कोई झगड़ा न हो, इसलिए उन्होंने अच्छी-ख़ासी सुरक्षा-व्यवस्था भी कर रखी थी।
हुआ यूँ कि 1846 में ग्रीक और रोमन कैलेंडर के हिसाब से गुड फ्राइडे एक ही दिन पड़ गया। गिरजाघर में सुबह से ही भीड़ लगनी शुरू हो गयी। रोमन पादरी अपनी सफ़ेद चादर लेकर पूजा की वेदी की ओर बढ़ने लगे, तो देखा कि ग्रीक पादरी पहले से वहाँ रेशमी चादर लिए खड़े हैं।
उन्होंने पूछा, “तुम सुल्तान का फ़रमान दिखाओ। पहले तुम कैसे पूजा कर रहे हो?”
ग्रीक पादरी ने कहा, “तुम अपना फ़रमान दिखाओ कि तुम्हें पहले पूजा का हक कैसे है?”
फिर क्या था! रोमन पादरी ने ग्रीक पादरी को धक्का दिया, और दोनों समुदाय भिड़ गए। कोई डंडे से पीट रहा है तो कोई क्रॉस से ही लड़ रहा है। किसी ने दूसरे के कपड़े में आग लगा दी, तो कोई छुरा भोंक गया। यहाँ तक कि इस पवित्र गिरजाघर में गोलियाँ चल गयी। जब तक सुल्तान के सुरक्षा-गार्ड हलचल सुन कर अंदर पहुँचते, चालीस लाशें गिर चुकी थी!
एक चश्मदीद ने इसका वर्णन करते लिखा है, “धर्म के नाम पर ये लोग यीशु मसीह के स्थल पर जानवरों की तरह लड़ रहे थे”
उस समय जब ये पादरी अपने-अपने राजाओं के पास गुहार लेकर पहुँचे तो युद्ध की भूमिका बन गयी। हर साल पंद्रह हज़ार रूसी पदयात्री पहाड़ों और रेगिस्तानों को लाँघ कर इस तीर्थ जाते थे। यह रूस के कुलीनों से अधिक वहाँ के सर्वहारा के लिए एक ऐसा स्थल था, जहाँ वे मन्नत माँगने जाते थे। यही कारण था कि जब ज़ार ने इसे हमेशा के लिए निपटाने और जेरूसलम को रूस का हिस्सा बनाने का आह्वान किया तो सभी रूसी अपनी जान देने उमड़ पड़े।
वहीं रोम में पोप ने अलग ही घोषणा कर दी कि यीशु मसीह का स्थल तो अब हमारा ही होगा, चाहे हमें अपनी जान क्यों न देनी पड़े। इस आह्वान का अर्थ था कि जो भी देश थोड़े-बहुत रूस के मित्र थे, वे भी अब कैथोलिक पंथ के नाम पर उसके ख़िलाफ़ हो गए थे।
इन दोनों ईसाई पंथों के बीच फँस गया तुर्की। पश्चिमी यूरोप की सेना का उसकी ज़मीन पर आने के कई मायने थे। उन्हें अपने घर आमंत्रित करने का अर्थ था मुसलमान दुनिया में ईसाइयों का हस्तक्षेप। यह इतिहास में नहीं हुआ था कि मुसलमानों और ईसाइयों ने हाथ मिला कर युद्ध लड़ा हो। इतिहासकार मानते हैं कि तुर्की का वह आमंत्रण आत्मरक्षा के लिए उचित था, लेकिन यह हस्तक्षेप मध्य एशिया के मुसलमानों और रूसियों, दोनों में पश्चिम के लिए एक स्थायी नफ़रत दे गया।
फ़्लैशबैक में जाएँ तो अगर उस दिन ग्रीक पादरी और रोमन पादरी आपस में बतिया कर एक साथ चादर रखने पर राज़ी हो जाते, तो शायद आज दुनिया कुछ और होती। लेकिन, क्या पता यह खेल का हिस्सा हो। गिरजाघर में जो हुआ, वह जान-बूझ कर करवाया गया हो। इस बात के कोई सबूत नहीं लेकिन, लगे हाथ एक घटना लिख दूँ।
1842 में उज़्बेकिस्तान के बुखारा में ईस्ट इंडिया कंपनी के दो ब्रिटिश अफ़सर कड़ी धूप में जमीन पर घुटनों के बल बैठे थे। उनके हाथ पीछे बँधे थे।
वहाँ के अमीर उनसे पूछ रहे थे, “ख़ान अली! तुम मुसलमान के भेष में फिरंगी हो। तुम्हारा असली नाम क्या है और यहाँ क्या कर रहे हो?”
“मेरा नाम आर्थर कॉनली है। हम ‘ग्रेट गेम’ के लिए काम करते हैं”।
उनका सर कलम कर वहीं दफ़ना दिया गया। यह केजीबी और सीआइए से सौ साल पुरानी बात है, जब रूस और इंग्लैंड के गुप्तचर जियोपॉलिटिक्स के मोहरे बनने लगे थे। रडयार्ड किपलिंग ने इसी खेल के प्लॉट पर उपन्यास लिखा ‘किम’। क्रीमिया युद्ध को समझने के लिए इस ‘ग्रेट गेम’ को ध्यान में रखना ज़रूरी है।
‘ग्रेट गेम’ एक ऐसा शतरंज का खेल था, जिसके खिलाड़ी थे रूस और इंग्लैंड, बिसात था पश्चिम एशिया, और जीत का ईनाम था- भारत!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/2.html
#vss
No comments:
Post a Comment