ओरछा में मैं रामराजा के मंदिर के भीतर नहीं गया, लेकिन वीर सिंह गुर्जर गए। प्रसाद भी चढ़ाया और मुझे भी लाकर खिलाया। रात को अपना कोटा चढ़ा कर बोले- “देखो पंडत जी, आप मंदिर के अंदर जाओ न जाओ लेकिन राम जी आपका कुछ नहीं बिगाड़ेंगे पर मेरी काट कर धर देंगे। पूरा हिंदू धर्म पंडितों के पीछे चलता है लेकिन आधे से ज़्यादा ब्राह्मण नास्तिक कम्युनिस्ट होते हैं। चाहे वे महापंडित राहुल संकृत्यायन हों, डाँगे हों, ईएमएस नम्बूदरीपाद हों, बीटी रणदिवे हों।” मैं मुस्कराता रहा। सुबह मूलचंद यादव सर्किट हाउस आए। वे एक लंबी-सी एकदम नई कंटेसा कार में थे। ड्राइवर भी था। औसत क़द के एकदम फ़िट मूलचंद उछलते हुए आए और कहा “चलौ, पंडित जी ने कार भी दई और एक बोट भी”। गाड़ी के ऊपर कैरियर में एक डोंगी बंधी थी। उसकी डिग्गी में दो क्रेट बीयर की और कुछ नमकीन आदि रखी थी। हमने जिप्सी सर्किट हाउस में छोड़ी और कार में बैठ कर चल दिए। रास्ते में मूलचंद ने बताया कि हमारा प्रोग्राम दो दिन का है। आज की रात हम राजघाट रुकेंगे और कल चन्देरी जाएँगे तथा वहाँ से लौट कर रात माता टीला रुकेंगे।
गाड़ी झाँसी-ललितपुर राजमार्ग पर दौड़ने लगी। यह राज मार्ग अस्सी फुट चौड़ा होगा लेकिन टू-लेन था। एकाध कोई पैदल या साइकिल से जाता मिलता बाक़ी सड़क ख़ाली। गाँव भी नहीं। बुंदेलखंड में बसावट अधिक नहीं है। झाँसी से पौन घंटे की दूरी पर है ताल बेहट क़स्बा। यह ललितपुर ज़िले में पड़ता है। छोटा-सा क़स्बा या इसे बड़ा गांव भी कह सकते हैं। सड़क किनारे तो कुछ घूरे (गोबर के ढेर) थे, कुछ जगह पानी भरा था। चार-पाँच चाय की दूक़ानें, एक में समोसा और मिठाई भी थी। आठ-दस पान के खोखे। कुछ साइकिल पंचर ठीक करने वाले बैठे थे। कोई भी मोटर मेकेनिक की शॉप नहीं। न सीमेंट, सरिया वाली दूक़ानें। घोर ग़रीबी लेकिन पान महोबा और ठाठ लखनवी। यहाँ गांव के दूसरी तरफ़ एक बड़ी झील थी, जिसे मान सरोवर कहा जाता है। ऊपर क़िला है, जिसे राजा भरत शाह ने 1628 में बनवाया था। पहाड़ी के ऊपर बने इस क़िले को मानसरोवर झील ने घेर रखा है। इसे समर पैलेस कहना ठीक होगा। भीषण गर्मी में भी क़िला ठंडाता है। रानी लक्ष्मी बाई के साथ यहाँ के राजा मर्दन सिंह भी अंग्रेजों से लड़े थे।
यहाँ तीन-चार ऐतिहासिक मंदिर हैं। झाँसी से लोग यहाँ पिकनिक के वास्ते आते हैं। झील में बोटिंग भी करते हैं। लेकिन हमें यहाँ बोटिंग नहीं करनी थी। डेढ़-दो घंटे बाद हम यहाँ से निकले और एक घंटे में ललितपुर पहुँच गए। रास्ते में तीन जगह कुछ मुच्छड़ मुस्टंडे सड़क पर आर-पार रस्सा बाँधे लोगों से वसूली करते थे। किंतु हमारी गाड़ी रोकने की हिम्मत उनकी नहीं पड़ी। मूलचंद यादव की एक हनक में वे भाग गए। मूलचंद ने बताया कि ये दादू लोग हैं, उगाही में लगे हैं। ललितपुर शहर में प्रवेश के पूर्व हम देवगढ़ चले गए। एक पहाड़ी के ऊपर कई जैन मंदिर हैं। उनकी स्थापत्य कला शानदार है। पहाड़ी के नीचे बेतवा नदी बह रही थी। इसमें खूब पानी था। बीच में एक टापू था जो ऊपर से घना जंगल दिख रहा था। हम नीचे उतरे और कार के ऊपर रखी छोटी-सी डोंगी से हम उस टापू की तरफ़ चले। यह टापू नदी तट से 60-70 मीटर दूर था। उसके भीतर कुछ लोग मिले, वे हमें अचम्भे से घूरने लगे। हमने उन्हें कुछ द्रव और द्रव्य दिया तो वे हमारे दोस्त बन गए। बहुत-सी ऐसी बातें बतायीं, जिन्हें यहाँ नहीं लिखा जा सकता। उस जमाने की पुलिस और दुर्दांत अपराधियों के गठजोड़ के बारे में। यह टापू दरअसल डकैतों के अड्डे थे। पुलिस भी दांव मारने आती थी। हम क़रीब तीन घंटे वहाँ रुके फिर उसी डोंगी पर बैठ कर इस पार आ गए। मूलचंद ने रात रुकने की व्यवस्था यहाँ से 20 किमी दूर राजघाट डैम के गेस्ट हाउस में कराई थी। राजघाट बांध उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के संयुक्त प्रयासों से बन रहा था। इससे निर्मित बिजली का बड़ा हिस्सा मध्य प्रदेश को जाएगा। गेस्ट हाउस काफ़ी ऊँचाई पर था।
सुबह नाश्ते के बाद हम चन्देरी के लिए निकले। यह मध्यप्रदेश के अशोक नगर ज़िले में आता है। राजघाट से इसकी दूरी लगभग उतनी ही है, जितनी कि ललितपुर की। यहाँ एक पहाड़ी पर विशाल क़िला बना हुआ है। आज़ादी के पहले यह सिंधियाओं का क़िला था। लेकिन हम उस क़िले तो दूर पहाड़ी की तरफ़ भी नहीं जा पाए क्योंकि उस समय यहाँ पर श्रीलंका के किसी राजनयिक को तगड़ी सुरक्षा में ठहराया गया था। परिंदा भी उस पहाड़ी की तरफ़ पर नहीं मार सकता था। महाभारत काल में चन्देरी चेदि राज की राजधानी थी। यहाँ पर कृष्ण के फुफेरे भाई शिशुपाल का शासन था। वह कृष्ण से शत्रु-भाव रखता था। कृष्ण ने बाद में अपने चक्र से उसे मार डाला। लेकिन मौजूदा क़िले को पाल राजवंश के राजा कीर्ति पाल ने 1068 में बनवाया था। किंतु चन्देरी का ज़िक्र अलबरूनी ने अपनी पुस्तक किताब-उल-हिंद में किया है। इसका अर्थ, तब भी यह शहर समृद्ध था। मालवा सुल्तानों के अधीन यह राज्य रहा। 1527 में राजपूताने के राणा सांगा को बाबर ने खानवा के मैदान में पराजित कर दिया। इसके बाद राजपूताने से राजपूत शक्ति क्षीण होने लगी। बाद में उसने मालवा राज के स्थानीय क्षत्रप मेदिनी राय को हरा कर क़िला अपने अधीन कर लिया। किंतु 1540 में शेरशाह सूरी ने मुग़लों से यह क़िला छीन लिया। शुजात ख़ान को यहाँ की सूबेदारी सौंपी। शेरशाह की मृत्यु के बाद सूरी वंश कमजोर होता गया। उसके आख़िरी क्षत्रप हेमचंद्र विक्रमादित्य को पानीपत की दूसरी लड़ाई में मुग़लों ने हरा दिया और अकबर ने सूरी के उत्तराधिकारियों से सारे क़िले ले लिए। इस तरह चन्देरी फिर से मुग़लों के अधीन हो गया। 1586 में बुंदेला राजपूत राम सिंह ने यह क़िला फिर ले लिया और 1811 तक इसी परिवार के पास रहा। इसके बाद दौलत राव सिंधिया के एक फ़्रेंच सेना नायक ने यह क़िला जीत लिया। 1844 में सिंधिया ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को यह क़िला दे दिया। झाँसी की रानी से लड़ने वाले लेफ़्टिनेंट जनरल ह्यूरोज इसी क़िले में रुका था। बाद में 1861 में अंग्रेजों ने सिंधिया से दोस्ती का बदला चुकाने के लिए क़िला उन्हें सौंप दिया। आज़ादी के बाद क़िला सरकार के पास आ गया। लेकिन इसके कुछ हिस्से को सिंधिया परिवार ने नहीं छोड़ा। उसी में श्रीलंका के इस राजनयिक को विशेष सुरक्षा में रखा गया था। इस राजनयिक को तमिल टाइगर्स से ख़तरा था।
चन्देरी अपनी सिल्क और कॉटन साड़ियों के लिए मशहूर है। इसकी सुनहली आभा अद्भुत होती है। मैंने एक सुनहरे रंग की काले बॉर्डर वाली साड़ी ली। उस समय शायद हज़ार रुपए की थी। अधिकतर व्यापारी जैन समुदाय के हैं, इसीलिए जैन मंदिर यहाँ बहुत हैं। ललितपुर और चन्देरी दोनों स्थान पर बुनकरी का काम खूब रहा है। इसके अलावा पत्थर कटिंग का तथा कुम्हारी का काम। यहाँ की दस्तकारी बहुत उम्दा है। दोनों ही शहरों में घोर ग़रीबी भी नज़र आई। संकरी गलियाँ और पानी निकासी का माकूल इंतज़ाम न होने से बुंदेलखंड के शहरों में साफ़-सफ़ाई नहीं मिलती। ग़रीबी और कुपोषण बहुत है तथा ग़रीबी-अमीरी के बीच खाई बहुत चौड़ी। छोटे-छोटे लाभ के लिए लोग खून तक करने को तैयार और चरण-चुम्बन को भी। मुझे ये दोनों शहर पसंद नहीं आए।
वहाँ से चलकर रात हम माताटीला डैम आ गए। आज का रात्रि विश्राम यहीं था।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (11)
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