( चित्र: स्तालिन, लेनिन, त्रोत्सकी )
जन-क्रांति की सबसे बड़ी समस्या है कि जितने लोग, उतनी बातें। उस समय ऐसा कोई मॉडल नहीं था कि क्रांति कैसे की जाए। अगर फ्रांसीसी क्रांति को मॉडल मानें, तो क्रांति के बाद फ़्रांस की दुर्गति हो गयी थी। आखिर, नेपोलियनी तानाशाही ने ही कुछ निजात दिलायी। 1848 में यूरोप में समाजवादी क्रांतियाँ बुरी तरह असफल रही। लोग क्रांति करें कैसे? एक सहमति कैसे बने?
अगर कोई कहता है कि लेनिन ने पूरे रूस को जागृत कर ज़ारशाही का अंत किया, तो यह मिथ्या है। बल्कि, मुझ से अगर खुल कर पूछा जाए तो इसे सर्वहारा आंदोलन भी नहीं कहूँगा। लेकिन, मुझसे पूछेगा कौन और बात मानेगा कौन? मैंने कभी इतिहास या समाजशास्त्र की पारंपरिक पढ़ाई तो की नहीं, दुनियावी समझ जो सबमें होती है, वही होगी। खैर, जब बात कह दी है तो तर्क भी रखने होंगे।
मैंने चर्चा की है कि लेनिन से पहले भी किसानों को एकजुट करने के प्रयास और क्रांतिकारी घटनाएँ हो रही थी। पोलैंड और रूस में विद्रोही घटनाएँ हो रही थी। यहाँ तक कि ज़ार पर भी हमले हुए और हत्या की गयी। उनकी अपेक्षा लेनिन की क्रांति तो अहिंसक ही कही जाएगी, भले ही उसकी वर्तमान छवि हिंसक बना दी गयी।
लेनिन का प्रथम लक्ष्य किसानों या सर्वहारा को एकजुट कर क्रांति करना था ही नहीं। यह उनके अनुसार एक असाध्य लक्ष्य था कि रूस के निरक्षर किसानों को भड़का कर कोई गुरिल्ला क्रांति की जाए। किसानों को वर्ग-संघर्ष समझाते-समझाते ज़िंदगी निकल जाती। उनका पहला लक्ष्य ज़ारशाही का अंत था, जिसके लिए किसान-क्रांति मुफ़ीद नहीं लग रही थी। वह दूसरे वर्ग में अधिक पोटेंशियल देखते थे, जो अधिक पढ़ी-लिखी थी, शहरों में बसती थी, और जिनके हाथ में अर्थव्यवस्था की चाभी थी। वे अगर एक-जुट हो जाते, तो ज़ार घुटनों पर आ सकते थे। नोट किया जाए, यह सर्वहारा वर्ग नहीं, बल्कि यह ‘मध्य वर्ग’ था।
यह भी स्पष्ट कर दूँ कि असल ‘बुर्जुआ’ वर्ग यही था, और क्रांति सर्वहारा नहीं बल्कि बुर्जुआ की क्रांति थी। यह वर्ग शोषित था, लेकिन यह सबसे निचले पायदान पर नहीं था। आज की दुनिया में जो सोशल मीडिया पर बहुतायत में मिलते हैं, उनमें अधिकांश इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘शब्दों का सफर’ पुस्तक में अजित वडनेरकर इस ‘बुर्जुआ’ शब्द (फ्रेंच शब्द bourgeoisie) की उत्पत्ति ‘बुर्ज’ से जोड़ कर बताते हैं, जिसका अर्थ है मीनार। यह नगर में बसने वाले ‘नागरिकों’ का वर्ग था, गाँव में बसने वाले ग्रामीणों का नहीं। कालांतर में कुछ लोग बुर्जुआ का प्रयोग एक ऐसे अभिजात्य वर्ग के लिए भी करने लगे जो पूँजीवाद की समर्थक है अथवा आश्रित है। कालांतर में तो नागरिक शब्द भी ऐसे लोगों के लिए प्रयोग होने लगा जिसने कभी नगर का मुँह नहीं देखा होगा।
रूस में जो लोग वाकई सर्वहारा क्रांति चाहते थे और गाँवों में किसानों को जागृत कर रहे थे, वे कहलाए ‘सोशलिस्ट डेमोक्रैट’। उन्होंने नियमित हिंसक गतिविधियाँ की, ज़ारशाही के उच्च पदाधिकारियों की हत्यायें की। लेकिन, उनके लोग या तो पकड़ कर साइबेरिया भेजे जा रहे थे, या मारे जा रहे थे।
दूसरा समूह उदारवादी बुद्धिजीवियों का था, जो पढ़े-लिखे एलीट लोगों और प्रोफेसरानों का वर्ग था। वे कहलाए ‘लिबरल्स’। मीडिया में सबसे पॉपुलर वही थे, उनके मीटिंग की खबर अखबारों में छपती। वे संवाद से एक लोकतांत्रिक हल ढूँढ रहे थे। उनकी तुलना ब्रिटिश भारत के इंडियन नैशनल कांग्रेस से की जा सकती है, हालाँकि वे भारत की तरह संगठित नहीं थे।
तीसरा समूह था मार्क्सवादियों का। लेकिन, इनमें भी एकजुटता नहीं थी। 30 जुलाई, 1903 को ब्रूसेल्स के एक आटा मिल में ये रूस के पहले मार्क्सवादी जॉर्ज प्लेखानोव की अध्यक्षता में एकत्रित हुए। वहाँ से ये लोग लंदन पहुँचे, और वहाँ बड़े ही बेतरतीब तरीके से साथ-साथ मछली मारते हुए इनकी वार्ताएँ हुई। वहाँ लेनिन के अलावा दो कद्दावर यहूदी मार्क्सवादी मौजूद थे- मार्तोव और त्रोत्सकी।
ऐसा कोई हू-ब-हू ट्रांसक्रिप्ट तो नहीं, मगर चर्चा कुछ इस तरह हुई-
मार्तोव ने कहा, “हमें एक बड़ा संगठन बनाना होगा। पूरे देश से लोगों को जोड़ना होगा”
लेनिन ने कहा, “इसमें काफ़ी वक्त लगेगा, धन लगेगा और ख़्वाह-म-ख़्वाह कई लोग पकड़े जाएँगे। हमें प्रोफ़ेशनल लोग चाहिए, जो अंडरग्राउंड रह कर ऑपरेट करें। जैसा कहा जाए, वैसा करें।”
त्रोत्सकी ने बीच में टोक कर कहा, “जैसा बोला जाए, वैसा करें? कोई तानाशाही है क्या?”
“हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है”
अक्तूबर में जेनेवा में ये लोग फिर से मिले, और इस बार इनकी सामूहिक पत्रिका ‘इस्क्रा’ को लेकर विवाद छिड़ गया। वहाँ वरिष्ठ नेता प्लेखानोव भी मौजूद थे।
मार्तोव ने कहा, “लेनिन मुझ से कह रहा था कि अगर मैं और तुम मिल जाएँ, तो इस बुड्ढे प्लेखानोव को किनारे कर देंगे। वह कुछ नहीं कर पाएगा”
प्लेखानोव ने लेनिन की तरफ़ गुस्से से देखा। लेनिन डेस्क पर मुक्का मारते हुए खड़े हुए और बिना कुछ कहे कमरे से निकल गए। यह मार्क्सवादी समूह विभाजित हो गया। लेनिन अपने समूह को गरम दल, और दूसरे समूह को नरम दल मानते थे। इतिहास में मार्तोव-त्रोत्सकी का यह आरंभिक समूह कहलाया ‘मेन्शेविक’ यानी अल्पमत। लेनिन भले ही किसी बड़ी बहुमत में नहीं थे, लेकिन उनका समूह कहलाया ‘बोल्शेविक’ (बहुमत)।
1905 में मेन्शेविक अपनी पहली क्रांति की तैयारी कर रहे थे।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/13_27.html
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