‘ज़ार’ शब्द से रूस का कद अचानक बढ़ गया। यह पदवी उनके बाइबल में डेविड और सोलोमन के लिए प्रयोग हुआ था। मॉस्को ने स्वयं को नया जेरूसलम मानना शुरू कर दिया, और इसे ईश्वर का नया घर कहने लगे। उन्होंने बैजंटाइन साम्राज्य का ‘दो सर वाला बाज’ (Double headed eagle) चिह्न ले लिया। कई गिरजाघर और ईसाई मठ बन गए। राजभवन क्रेमलिन की दीवारें ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के चित्रों से सुसज्जित हो गयी। वहाँ गद्दी पर बैठा राजा अब ऐसा चमत्कारी पुरुष था, जिसके हर शब्द का वहाँ की जनता पालन करती। आज के शब्दों में कहें तो वह एक तानाशाह था!
इवान तृतीय (1462-1505) से लेकर उनके पोते इवान चतुर्थ (1530-1584) तक रूस अपना विस्तार करने लगा। वह जानते थे कि उनके एक तरफ कैथोलिक ईसाई हैं, दूसरी तरफ़ मुसलमान, और तीसरी तरफ़ मंगोल। इन सब से अपने नए जेरूसलम यानी मॉस्को की रक्षा करनी थी और अपनी ज़मीन मजबूत करनी थी।
ज़ार ने अपने राज-दरबार के लिए अभिजात्य वर्ग तैयार किया, जो ‘बोयर’ कहलाए। वे बड़े ज़मींदार बने, जिनके खेतों पर रूस के लाखों किसान काम करते, और वे इसका मुनाफ़ा कमाते। एक अन्य बड़ा जमींदार वर्ग सैनिकों का था, जिन्हें ज़ारशाही से वेतन के बजाय बड़ी जमीन मिल जाती। बमुश्किल बीस-तीस शाही अभिजात्य परिवार और उनका एक ज़ार मिल कर ही देश चलाते थे। ये ख़ानदानी परिवार सदियों तक मालिक रहे, शेष रूस उनका नौकर। खैर, यह स्थिति तो उस वक्त लगभग पूरी दुनिया में ही थी।
रूस अब वोल्गा नदी के किनारे दक्षिण तक बढ़ चुका था, और कई क्षेत्र जो मंगोल राज में थे, उन पर उनका कब्जा हो गया। वहाँ के बाशिंदे मंगोल रूसी सेना में शामिल हो गए। दक्षिण रूस में मुसलमानों की भी ठीक-ठाक जनसंख्या आ गयी। उनके मस्जिद आदि यथावत रहे, मगर अब उन पर ज़ारशाही का कानून लागू था।
यह बात तो अब पूरे यूरोप को नज़र आ रही थी कि यह अकेला देश भविष्य में उन सब पर भारी पड़ सकता है। रूस के उत्तर में एक आर्केंजेल नामक पोत बना, जहाँ ब्रिटिश और डच कंपनी जहाज पूरे नॉर्वे का चक्कर लगा कर रूस पहुँचने लगे। वे कंपनियाँ रूस से व्यापार कर इतना कमाने लगी कि उन्होंने इस धन से बाद में डच ईस्ट इंडिया कंपनी बना ली।
इन सबके बावजूद बाकी यूरोप की अपेक्षा रूस बहुत पीछे था। वहाँ क्रेमलिन और गिरजाघरों के अलावा पक्के मकान ही नहीं थे। मॉस्को जैसे शहर की भी वही स्थिति थी। उस समय इटली से कारीगर बुलवाए गए, और नए मॉस्को की संरचना हुई। बिल्कुल मिलान और रोम की इमारतों के तर्ज़ पर। यह और बात थी कि रोमन चर्च से उनका छत्तीस का आँकड़ा था।
रूस की प्रगति सही दिशा में हो रही थी। तभी, राजा इवान चतुर्थ ने कुछ ऐसा किया कि उनका नाम हमेशा के लिए पड़ गया- ‘इवान द टेरिबल’ (इवान भयंकर)!
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास (6)
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