रूस में मार्क्सवाद पहले नहीं आया। पहले वही आया, जो यूरोप और बाकी दुनिया में आ रहा था। वह था समाजवाद। अब इसे अदल-बदल कर एक जैसी पहचान दी जाती है, लेकिन दोनों में स्पष्ट अंतर हैं।
समाजवादी कोई क्रांतिकारी फेर-बदल नहीं चाहते थे, वे वर्ग-संघर्ष को धीरे-धीरे घटाना चाहते थे। जहाँ साम्यवाद में एक तानाशाही सरकार द्वारा राज्य की संपूर्ण संपत्ति पर अधिकार की बात थी, समाजवादी एक लोकतंत्र या कम से कम एक न्यायपूर्ण राजतंत्र चाहते थे। उनका मानना था कि बुर्जुआ के हाथ में प्रशासन तो रहे, लेकिन निरंकुशता नहीं हो। किसी को गुलामी न करना पड़े। राज्य अपने संसाधनों का न्यायसंगत वितरण करे। अगर आज के अधिकांश यूरोपीय देश और ख़ास कर स्कैंडिनेविया (नॉर्वे, डेनमार्क, स्वीडन) देखें, तो वहाँ कमो-बेश ऐसी संरचना है। साम्यवाद नहीं आया, लेकिन वर्ग-संघर्ष घटता चला गया।
क्रीमिया युद्ध के बाद ज़ार अलेक्सांद्र अपनी सभा लगा कर बैठे, और कुछ इस तरह विमर्श किया-
“हमें अब राजशाही के ढर्रे को बदलने की ज़रूरत है। अन्यथा, विद्रोह होकर रहेगा।”, ज़ार ने कहा
“आपकी बात ठीक है कि युद्ध के बाद हम कमज़ोर पड़े हैं।लेकिन, विद्रोह? उसकी कोई संभावना नहीं।”
“कम से कम यह दास-प्रथा तो खत्म करनी ही होगी। अब एक भी ऐसा देश बचा है, जहाँ ऐसी प्रथा चल रही हो? इंग्लैंड ने अफ़्रीकी गुलामों को भी मुक्त कर दिया।”
“हमने कभी ग़ुलाम लाए कहाँ, जो मुक्त करेंगे। किसान तो हर देश में खेतों में ही काम करते हैं।”
“लेकिन, अन्य देशों में वे स्वतंत्र हैं। वे जहाँ चाहें, वहाँ काम कर सकते हैं।”
“फिर हमारा क्या होगा? बिना किसानों के हमारे खेत कौन सँभालेंगे?”
“मैं इस कृषि-दासता का बोझ अब नहीं उठा सकता। आपको खबर है कि किस तरह के लेख छप रहे हैं?”
“हर्ज़न के लेखों की बात अगर आप कर रहे हैं, तो वह पागल इस देश में है ही नहीं। न ही हम उसे और उसके लेखों को आने देंगे”
“कब तक रोकेंगे आप? वह उस कार्ल मार्क्स के साथ लंदन में घूम रहा है। सच पूछिए, तो मुझे उसकी बात ठीक लगती है।”
“ज़ार! अगर आप कृषि-दासों को मुक्त करना चाहते हैं तो अभी यहीं आप सभी मंत्रियों से पूछ लें। कितने लोग चाहते हैं?”
“आप भूल गए हैं कि हम ज़ार हैं। आपको मत देने का अधिकार है, निर्णय का नहीं। मैं, ज़ार अलेक्सांद्र, यह घोषणा करता हूँ कि रूस में अब एक भी किसान किसी का ग़ुलाम बन कर नहीं रहेगा।”
“आपका आदेश सर आँखों पर। लेकिन, आपकी यह घोषणा ऐसा तूफ़ान लाएगी कि आप अगर बच भी गए, आपकी आने वाली पुश्तें ज़ार नहीं रह पाएँगी।”
“हम ज़ार आखिर हैं क्या? हम ईश्वर की वजह से इस गद्दी पर हैं। उनकी इच्छा नहीं होगी, तो न यह गद्दी रहेगी, न मैं रहूँगा।”
1861 में बहुमत के विरुद्ध ज़ार ने यह फ़ैसला ले लिया कि कृषि-दासता सदा के लिए खत्म कर दी जाएगी। रूसी समाजवाद के पितामह हर्ज़न, जिनको देशनिकाला दे दिया गया था, उन्होंने लंदन में बैठ कर मुहिम चलायी थी। वह कार्ल मार्क्स के विचारों से सहमत नहीं थे, और यही कारण है कि उन्हें कम्युनिस्ट रूस में ख़ास तवज्जो नहीं मिली। लेकिन पिछले वर्ष आयी पंकज मिश्र की पुस्तक ‘धूर्त कट्टरपंथी’ (The bland fanatics) में उन पर एक पूरा अध्याय है।
हर्जन ने यह अनुमान लगाया था कि अगर धर्म खत्म भी कर दिए जाएँ तो भविष्य में एक पाँचवा धर्म जन्म लेगा- उदारवादियों का। वे ऐसे लोग होंगे जो सरकार पर आश्रित रह कर भी हमेशा सरकार का विरोध करते रहेंगे। वे अब नव-उदारवादी (नियो-लिबरल्स) कहलाते हैं।
दूसरा अनुमान यह था कि भविष्य के दुकानदार अपनी दुकान चलाएँगे, और सरकार उस दुकान में सहायक (शॉप असिस्टेंट) रहेगी, जो अब ‘क्रोनी-कैपिटलिज्म’ कहलाता है।
उनका तीसरा अनुमान यह था कि यह दोनों अगर समय पर नहीं नियंत्रित हुए तो एक तरफ़ उदारवादियों से नफ़रत पैदा होगी, दूसरी तरफ़ दुनिया में वीभत्स खूनी नस्लीय लड़ाई होगी। इस अनुमान पर चर्चा हो सकती है।
कोई हर्ज़न की बातों से प्रभावित हो या न हो, ज़ार अलेक्सांद्र तो वाकई हुए थे। ज़ार ने अपने आदर्श और पारदर्शी प्रशासन के लिए पहली बार ‘ग्लासनोस्त’ शब्द का प्रयोग किया। यह विस्फोटक शब्द जब दूसरी बार मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा बोला गया तो सोवियत रूस टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गया।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen jha
रूस का इतिहास - दो (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/4.html
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