( चित्र: ‘लेडी विद द लैंप’ फ्लोरेंस नाइटेंगल )
विश्व-युद्धों से पहले एक मिनी विश्व-युद्ध हुआ, जैसे क्रिकेट में वर्ल्ड-कप से पहले मिनी वर्ल्ड-कप होता है। यह युद्ध उस व्यापकता से नहीं पढ़ाया जाता, जितना व्यापक वह था। सिवाय अमरीका और जापान के, इस युद्ध में सभी प्रमुख शक्तियाँ थी, यहाँ तक कि मुसलमानों का देश भी था। ब्रिटिश इतिहासकार तो इसे निरर्थक युद्ध कहते रहे, लेकिन यह एक निर्णायक युद्ध था। इस युद्ध ने जहाँ रूस के मन में पश्चिमी दुनिया के लिए सदा के लिए नफ़रत पैदा कर दी, इसने यूरोप को वे नए देश दिए जो हम आज मानचित्र में देख पाते हैं। इस युद्ध ने भारत से लेकर यूरोप तक क्रांति का आग़ाज़ किया।
यह युद्ध कहलाता है- क्रीमिया का युद्ध! रूस इसे कहता है पूरब का युद्ध, जो 1853 के अक्तूबर में शुरू हुआ।
इस युद्ध का केंद्र-बिंदु वही था, जो सदियों से युद्धों का केंद्र-बिंदु रहा था। पवित्र भूमि। यानी जेरुसलम। वह भूमि जो समय-समय पर यहूदी, ईसाई और मुसलमानों के हाथ में रही।
हमने पहले पढ़ा है कि ऑर्थोडॉक्स ईसाई का केंद्र कुस्तुनतुनिया गिर गया, और वहाँ मुसलमानों का कब्जा हो गया। लेकिन, ऑटोमन तुर्क के समय ग्रीक ईसाईयों ने पवित्र भूमि थोड़ी-बहुत संभाल रखी थी। वे ऑर्थोडॉक्स ईसाई थे, जिन पर रूस का वरदहस्त था। वहीं यूरोप के कैथोलिक ईसाई चाहते थे कि पवित्र भूमि उनके हिस्से रहे। वे वहाँ जाकर बसने लगे थे। इन दोनों ईसाई समुदायों के झगड़े में तुर्की के मुस्लिम सुल्तान पंचायत लगा रहे थे। हालाँकि उन पर पहले से यह इल्जाम था कि अल्पसंख्यक ईसाइयों को प्रताड़ित करते हैं।
रूस के ज़ार निकोलस ने यह तय किया कि तुर्की पर हमला कर दिया जाए, और जेरुसलम की चाभी ऑर्थोडॉक्स चर्च को हमेशा के लिए पकड़ा दिया जाए। इसी बहाने उनका इरादा मध्य एशिया में रूस के विस्तार का था, क्योंकि तुर्क अब यूँ भी उनके सामने बहुत छोटी शक्ति थे। ज़ार की सेना काला सागर के इर्द-गिर्द मंडराने लगी और कुछ क्षेत्रों जैसे मोल्दाविया (आज का रोमानिया) पर कब्जा कर लिया। तुर्क के पाशाओं ने अपने पासे फेंके।
उस समय फ्रांस के शासक नेपोलियन तृतीय (नेपोलियन महान के भतीजे) भी रूस से पुरानी हार का बदला लेने को आतुर थे। दूसरी तरफ़, इंग्लैंड के लिए रूस को रोकना ज़रूरी था क्योंकि मध्य-एशिया पर कब्जे के बाद रूसी भारत को भी नहीं छोड़ते। इसके अतिरिक्त सार्डिनिया (अब इटली) तो कैथोलिक ईसाईयों का गढ़ था। वे भी धर्मयुद्ध समझ कर जुड़ गए।
यह ऐतिहासिक था कि तीन ईसाई शक्तियाँ और एक मुसलमान राज्य (तुर्की) एक तरफ़ थे, और दूसरी तरफ़ था अकेला रूस। यह आखिर कैसा चक्रव्यूह रचा गया था?
ज़ार निकोलस ने अपने देशवासियों को जगाया कि यह युद्ध राष्ट्र के लिए भी है, और धर्म के लिए भी। यह रूस के आन-बान-शान की लड़ाई थी। खेतों से उठ कर किसान फौज में भर्ती हो रहे थे। कुलीन परिवार के युवा कमर कस कर युद्ध में कूद पड़े थे। उन्हीं फौजियों में एक प्रतिष्ठित परिवार का युवक लियो तॉलस्तॉय भी था, जिसे इस रक्तरंजित युद्ध के बाद हिंसा से विरक्ति हो गयी। उन्होंने इस युद्ध का मार्मिक विवरण लिखा है कि किस तरह अपने ही साथियों के लाशों पर चल कर वह फ्रंट पर जाते थे।
यह पहला युद्ध था, जिसमें लाइट-कैमरा-ऐक्शन था। टेलीग्राफ़ का पहली बार उपयोग हो रहा था, जब सीमा पर फौजियों को संदेश भेजे जा रहे थे। पहली बार फ्लोरेंस नाइटेंगल नामक एक महिला हाथ में लैंप लिए फौजियों की सेवा कर रही थी, जिससे नर्सिंग पेशे का उदय हुआ। पहली बार इसका अखबारों में प्रतिदिन लाइव कवरेज हो रहा था, तस्वीरें खींची जा रही थी।
मुझे याद है कि खाड़ी युद्ध को देखने के लिए भारत में केबल टेलीविजन का आगमन हुआ था। क्रीमिया युद्ध को पढ़ने के लिए बंबई का एक अखबार ‘बॉम्बे टाइम्स’ धड़ल्ले बिकने लगा, जो बाद में कहलाया ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’। 1856 तक चले इस युद्ध की खबरों को पढ़ कर भारत में भी एक संग्राम की नींव तैयार हो रही थी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/1.html
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