Friday, 31 May 2019

Ghalib - Kyaa juhuud ko maanuun - क्या जूहूद को मानूं - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 108.
क्या जूहूद को मानूँ,, कि न हो गरचय रियाई,
पादाश ए अमल की तमअए, खाम बहुत है !!

Kyaa juhuud ko maanun, ki na ho garachay riyaayee,
Paadaash e amal kii tam'ae khaam bahut hai !!
- Ghalib

मैं धार्मिक कर्मकांड के पुण्य को भला कैसे स्वीकार करूँ। क्यों की ऐसा करने से मुझे बार बार धोखा छल और फरेब में नहीं पड़ना पड़ता। अपने काम का प्रतिफल प्राप्त करने की लालसा बड़ी तीव्र होती है।

प्रत्येक धर्म के मुख्यतया दो पक्ष होते हैं। एक उस धर्म का दार्शनिक पक्ष और दूसरा कर्मकांड। दर्शन का पक्ष सूक्ष्म और कर्मकांड का पक्ष स्थूल होता है। कर्मकांड में धर्माचरण और ईश्वर को पाने, मृत्युपर्यन्त जीवन मे सुख खोजने की तमाम तरकीबें और नुस्खे दिये गये होते हैं जबकि दर्शन सूक्ष्मतम भाव की ओर ले जाता है। ग़ालिब धर्म के कर्मकांड के बहुत पाबंद नहीं थे, वे खुद को एक मुक़दमे में जब अंग्रेज़ मैजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा कि क्या वे मुसलमान हैं तो ग़ालिब ने परिहास में उत्तर दिया, आधा मुसलमान हूँ। अंग्रेज़ मैजिस्ट्रेट भौचक्का रह गया और फिर पूछा कि कैसे, तो ग़ालिब ने कहा कि, ' वह सुअर नहीं खाते पर शराब पीते हैं। ' इस्लाम मे दोनों ही हराम हैं तो ग़ालिब को खुद को आधा मुस्लिम कहा। यह सवाल जवाब था तो मजाकिया पर इससे ग़ालिब के धर्म के कर्मकांडीय स्वरूप के प्रति दृष्टिकोण का पता चलता है। ग़ालिब अपने कलाम में दर्शन की अनन्त उचाईयों को छूते नज़र आते हैं। कर्मकांड उन्हें छल और फरेब सरीखा भी कभी कभी लगता है।

इसी प्रकार कबीर जो पूरे जीवन भर कर्मकांड़ों के खिलाफ झंडा उठाये रहे, का यह दोहा पढ़े।

माला फेरत युग गया, पाया न मन का फेर,
कर का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर,
हज काबे ह्वै ह्वै गया, केती बार ' कबीर '
मीरां मुझ में क्या खता, मुखां न बोले पीर !!
( कबीर )

माला फेरते हुये युग बीत गया, पर मन का द्वंद्व नहीं समाप्त हुआ। इस लिये हांथ की माला छोड़ कर मन की माला फेरना चाहिए। काबे की यात्रा तो मैं कई कई बार कर चुका हूं, पर अब भी खुदा मुझसे नहीं बोलता तो इसमें मेरी क्या खता है।

© विजय शंकर सिंह

कानून - जीएसटी में गिरफ्तारी और जमानत / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (29 मई, 2019) को हाई कोर्ट को सलाह दी कि माल एवं सेवा कर (जीएसटी) या जीएसटी कानून का उल्लंघन करने वाले आरोपियों को अग्रिम जमानत नहीं दी जाए। इस दौरान कोर्ट ने ऐसे बकायदारों को जमानत नहीं देने के तेलंगाना हाई कोर्ट के फैसले को भी बरकार रखा। अग्रिम जमानत, अभियुक्त को गिरफ्तारी के पूर्व, उक्त गिरफ्तारी से बचने का एक कानूनी उपचार है। यह दंड प्रक्रिया संहिता ( सीआरपीसी  ) की धारा 438 के अंतर्गत अभियुक्तों को राहत देती है। लेकिन जीएसटी के संबंध में अगर कोई गिरफ्तारी होती है तो अभियुक्त को 438 सीआरपीसी के अंतर्गत वैधानिक उपचार प्राप्त नहीं होगा। 

तेलंगाना हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने 18 अप्रैल को जीएसटी डिफॉल्टर्स की गिरफ्तारी के लिए केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर (CGST) आयुक्त के अधिकार और शक्ति को बरकरार रखा था। हाईकोर्ट ने सीजीएसटी अधिनियम, 2017 के उल्लंघन के आरोपियों के लिए किसी भी अंतरिम राहत को, जिसमे अग्रिम जमानत का प्राविधान था, को खारिज कर दिया। इसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में हुयी।  सुप्रीम कोर्ट ने 27, मई 2019 को तेलंगाना हाई कोर्ट के इसी आदेश के खिलाफ दायर अपील खारिज कर दी और तेलंगाना हाईकोर्ट का यह निर्णय कि अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती को बहाल रख दिया।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने यह तर्क दिया था कि सीजीएसटी अधिकारी पुलिस अधिकारी नहीं हैं, और इसलिए उन्हें आपराधिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों जो पुलिस के अधिकारियों के लिये है, का पालन करने की आवश्यकता नहीं थी, जो गिरफ्तारी से पहले एफआईआर के पंजीकरण को अनिवार्य करता है। यहां गिरफ्तारी से पहले प्रथम सूचना दर्ज करने का कोई अनिवार्य कानूनी प्राविधान नहीं है। यह जानकारी, टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर के आधार पर है।

दरअसल केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा पारित आदेशों की एक सीरीज के खिलाफ अपील की थी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सीजीएसटी अधिनियम के उल्लंघनकर्ताओं को सीआरपीसी की धारा 438 के प्राविधान के आधार पर अभियुक्तों को अग्रिम जमानत दे दी थी । बॉम्बे हाईकोर्ट का यह मानना था कि सीजीएसटी अधिकारियों ने सीआरपीसी के तहत वारंट के रूप में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की थी। लेकिन तेलंगाना हाई कोर्ट का निर्णय बॉम्बे हाईकोर्ट से उलट था। सीजीएसटी एक्ट कोई पुलिस कानून नहीं है अतः इस अधिनियम के उल्लंघन करने वालों पर सीआरपीसी का प्राविधान लागू नहीं होगा।

बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा अग्रिम जमानत दिये जाने के कई आदेशों को चुनौती देते हुए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। केंद्र सरकार की ओर से, सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया तुषार मेहता ने अपना पक्ष रखते हुये कहा कि, भारतीय संसद ने सीआरपीसी से सीजीएसटी अधिनियम को अलग कर दिया था और अपराधियों से निपटने के लिए एक अलग प्रक्रिया प्रदान की थी। मेहता ने आगे कहा कि हाई कोर्ट के आदेशों से ‘जीएसटी खुफिया महानिदेशालय के कामकाज में बाधा उत्पन्न हुई है।’ अतः इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया है कि जीएसटी खुफिया महानिदेशालय की प्रक्रिया पुलिस की प्रक्रिया से अलग है और उस पर सीआरपीसी का प्राविधान लागू नहीं होता है।

इस मामले में दायर अपील को, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की एक अवकाश पीठ ने सुनवाई करते हुए कहा,
‘चूंकि देश के विभिन्न हाई कोर्ट्स ने इस मामले में अलग-अलग विचार रखे हैं, हमारा विचार है कि इस कोर्ट द्वारा कानून में स्थिति स्पष्ट की जानी चाहिए।’
खबरों के मुताबिक इसके साथ ही पीठ ने हाई कोर्ट्स को इस तरह के मामलों में जमानत देने से पहले उस आदेश को ध्यान में रखने को कहा जिसमें उसने तेलंगाना हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था। दरअसल उस आदेश में तेलंगाना हाई कोर्ट ने कहा था कि इस तरह के मामलों में किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी से बचने की छूट नहीं दी जा सकती है। पीठ ने मामले को आगे की सुनवाई के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ के सुपुर्द कर दिया। फिलहाल तेलंगाना हाईकोर्ट का निर्णय नजीर बन गया है।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday, 29 May 2019

सरकार का शपथ ग्रहण और पुलवामा हमले के शहीद / विजय शंकर सिंह

लोकसभा का पूरा चुनाव पुलवामा की आतंकी घटना, जिसमे 40 जवान शहीद हुए थे के मुद्दे पर लड़ा गया था, पर आज जब सरकार शपथ ग्रहण करने जा रही है तो उनके आश्रितों को उक्त समारोह में कोई आमंत्रण नहीं है ! सेना, सुरक्षा बल और पुलिस के जवान शहादत के बाद बस राजनीतिज्ञों के लिये सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी बन कर रह जाते हैं। यह कटु है पर सच भी है।

बंगाल में राजनीतिक हत्याओं में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के परिजनो को शपथग्रहण समारोह में बुलाया तो गया है पर पुलवामा के शहीदों के परिजन दरबार के इस उत्सव से दूर रखें गये हैं। बंगाल के राजनीतिक हत्याओं के पीड़ितों के परिजनों को बुलाने पर कोई आपत्ति नहीं है, पर अगर इन्हें आमंत्रित किया जा रहा है तो पुलवामा के शहीदों के परिजनों को क्यों भुला दिया जा रहा है ?

यह समारोह, किसी दल विशेष का नहीं है बल्कि जनादेश प्राप्त सरकार के पदग्रहण का है। पुलवामा के शहीद सरकार की सुरक्षा बल के थे। वे किसी दलगत स्वार्थ, प्रतिद्वंद्विता, शत्रुता, या राजनीतिक उद्देश्य के कारण हत नहीं हुये हैं, बल्कि उन्होंने देश को बचाने के लिये, आतंकियों से लड़ते हुये शहीद हुये थे। अतः उन्हे नजरअंदाज कर के अपने दल के ही पीड़ितों को समारोह में बुलाना क्षुद्रता और स्वार्थपरता है।

बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का इतिहास बहुत पुराना है। मारे गए सभी बीजेपी के कार्यकर्ताओं के प्रति मेरी सहानुभूति है। उनकी हत्या भी किसी की भी हत्या के समान निंदनीय है और बंगाल सरकार की प्रशासनिक विफलता है। पर यह निमंत्रण बंगाल के ही राजनीतिक हत्याओं के पीड़ितों तक क्यों सीमित है। अगर इस आयोजन में हत्याओं के पीड़ितों के परिजनों को बुलाने का उद्देश्य राजनीतिक हत्याओं के प्रति संवेदना और सरकार की चिंता दिखाना है तो देश भर के उन सभी राजनीतिक हत्याओं के पीड़ितों के परिजनों को बुलाया जाना चाहिये था। क्या बंगाल केवल इसलिए चुना गया है कि वहां चुनाव होने वाला है और तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता लगभग निजी शत्रुता तक पहुंच गयी ?

दरअसल, पुलवामा के शहीद अब प्रासंगिक नहीं रहे। उनका जितना राजनीतिक दोहन हो सकता था हो चुका। सत्ता के शिखर पर पहुंच कर वह सीढ़ी अब समेट ली गयी है । अब बंगाल में चुनाव है और उस चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए बंगाल से ही राजनीतिक हत्याओं के पीड़ित परिजनों को बुला कर एक सीढ़ी और तैयार करनी है तो वह की जा रही है।

दो तीन पहले प्रधानमंत्री जी का संसद के सेंट्रल हॉल में दिया गया भाषण दुबारा सुनिये। यूट्यूब पर है। खूबसूरत और विश्वास से भरा हुआ, एक स्टेस्ट्समैन की तरह बोलते हुये प्रधानमंत्री दिख रहे हैं। उन्हें सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास चाहिये। उनकी यह प्रत्याशा उचित भी है। पर आज के समारोह का यह दलीय संकीर्णता और स्वार्थपरता से भरे आमंत्रण का निर्णय, जो पुलवामा के शहीदों को दरकिनार कर के लिया गया है, प्रधानमंत्री के उक्त ओजस्वी भाषण के भाव के बिल्कुल उलट है। इस पर एक बहुत मौजूं शेर है, वह भी पढ़ लिजिये,
सियासत की अपनी जुबां होती है,
लिखा हो इकरार तो इनकार पढ़ना !!

आज के समारोह में लोकसभा चुनाव 2019 के मुख्य मुद्दे पुलवामा हमले के शहीदों के परिजनों और सर्जिकल स्ट्राइक के बहादुर विंग कमांडर अभिनंदन को कम से कम इस समारोह में आमंत्रित तो किया ही जाना चाहिये । अब भी उन्हें आमंत्रित किया जा सकता है। अब टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार, एक शहीद के परिजन को जब कल से सोशल मीडिया पर हंगामा मचा तो आमंत्रित किया गया है। वे हैं, पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के एक सीआरपीएफ के शहीद जवान सुदीप विश्वास की मां ममता विश्वास । हालांकि वह खराब स्वास्थ्य कारणों से समारोह में सम्मिलित नहीँ हो पा रही हैं। 

यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि मारे गए बीजेपी कार्यकर्ताओं के परिजन और पुलवामा शहीद के परिजन भी केवल बंगाल से ही क्यों आमंत्रित किये गये हैं ? क्या इसलिए कि बंगाल बीजेपी के एजेंडे में इस समय प्राथमिकता में है और वहां विधानसभा के चुनाव हैं ? कम से कम सरकार के शपथग्रहण समारोह को दलगत, क्षेत्रगत और चुनावी लाभ हानि की राजनीति से अलग रखा जाना चाहिये । इन सारे घटनाक्रम से एक भोजपुरी कहावत याद आ गयी, ऊंट क चोरी निहुरे निहुरे !!

© विजय शंकर सिंह

सावरकर की जयंती पर चाकू वितरण / विजय शंकर सिंह

29 मई की खबरों के अनुसार, आगरा में,  अखिल भारतीय हिंदू महासभा (एबीएचएम) ने हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर की जयंती पर 10 वीं और 12 वीं के छात्रों के बीच चाकूओं का वितरण किया। एबीएचएम के प्रवक्ता ने इसकी जानकारी दी। महासभा के प्रवक्ता अशोक पांडेय ने कहा कि सावरकर का सपना 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण' था।

उनका तर्क है, "मोदीजी ने लोकसभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल कर उनके पहले सपने को पूरा कर दिया है। हम उनके दूसरे सपने को चाकू बांटकर और हिंदू को सैनिक बनाकर पूरा कर रहे हैं। अगर हिंदुओं को खुद और अपने देश की सुरक्षा करनी है तो उन्हें हथियार चलाने के बारे में सीखना चाहिए।"
महासभा की राष्ट्रीय सचिव पूजा शकुन पांडेय ने कहा कि यह हिंदुओं को प्रेरित करने और उन्हें सशक्त करने की पहल है, खासकर युवा पीढ़ी चाकुओं से खुद की सुरक्षा करेगी।

पूजा शकुन पांडे इस वर्ष तब सुर्खियों में छा गई थी जब उसने महात्मा गांधी के पुतले को पिस्तौल से गोली मारती हुई तस्वीर खिंचवाई थी। पूजा ने संवाददाताओं से कहा कि उन्होंने परीक्षाओं में अच्छा नतीजा हासिल करने वाले बच्चों के बीच भगवद गीता की एक प्रति के साथ चाकुओं का भी वितरण किया है, ताकि वे जान सकें कि कब और क्यों इसका प्रयोग करना है।

चाकू के पीछे का तर्क पढिये, "मैं चाहती हूं कि वे मजबूत और स्वतंत्र महसूस करें और अपनी बहनों व परिजनों की रक्षा कर सकें।" उसके अनुसार, महिलाओं और बच्चियों के विरुद्ध अपराध के कई मामले हो रहे हैं और उन्हें भी खुद की सुरक्षा के लिए चाकू चलाने का प्रशिक्षण लेना चाहिए।

हिंदू महासभा द्वारा सावरकर जयंती पर नाबालिग बच्चों को चाकू देने का कार्यक्रम किया गया। अगर सावरकर से जुड़ी ही कोई चीज़ देनी थी तो, 1857 के विप्लव पर उनके द्वारा लिखी उनकी पुस्तक, ही बच्चों को दे दी गयी होती। बच्चे नाबालिग थे तो यही पुस्तक चित्रों में सरल भाषा मे छाप कर दे दी गयी होती। कुछ नहीं तो सावरकर पर कुछ जानकारी ही बच्चों को उपलब्ध करा दी गयी होती। बच्चे कम से कम कुछ सकारात्मक सामग्री से रूबरू होते, कुछ पढ़ते और सावरकर के बारे में कम से कम एक बेहतर धारणा ही बनाते।

यह चाकू वाला आत्मघाती आइडिया जिस किसी भी हिंदू महासभा वाले का है वह सनातन धर्म का परम शत्रु ही होगा। चाकू पाने वाले बच्चे, सावरकर को एक चाकूबाज़ और गुंडा समझें क्या हिंदू महासभा वाले यही चाहते हैं ?

हम आप मे से कितने लोग ऐसे हैं जो अपने नाबालिक या बालिग बच्चे के हांथो में किताब की जगह चाकू छुरी और कट्टा बम देखना पसंद करेंगे ? मैं समझता हूं शायद एक भी नहीं। अगर नहीं तो हिंदू महासभा के इस गुंडागर्दी वाले अभियान के विरुद्ध खड़े होइये और पहले अपना घर, परिवार और बच्चों को देखिये और इन गुंडो से बचाइए । गुंडे घरों में बड़ी मीठी मीठी नीति और धर्म की बात करके घुसते हैं बाद में वह घर, गुंडों का ही आरामगाह बन जाता है। सावरकर के बारे में उन्हें ज़रूर बताइये, पर सावरकर के गुणों को न कि उनकी जयंती पर चाकू बांट कर उनकी क्षवि एक चाकूबाज की तो न बनाइयें।

इस घटना पर मित्र विजय शुक्ल जी ने एक कविता भेजी है, वह मैं यहां साझा कर रहा हूँ।

मां मुझे तू चाकू दे दे,
मैं भी सांसद बन जाऊं।
बम फोडूं बाजारों में,
और टिकट पा जाऊं।
सत्ता की गोद मे बैठूं,
कानून से मुक्ति पाऊं।
मां मुझे तू चाकू दे दे...

गांधी का पुतला लगवा कर,
उसपे गोली चलवाऊं।
गोड़से को याद करके,
उसे अमर कर जाऊं।
मां मुझे तू चाकू दे दे.....

सत्य अहिंसा के विरोध में,
सड़कों पर आ जाऊं।
जो नारा लगाए गांधी का,
दौड़ दौड़ पिटवाऊं।
घर घर मे नफ़रत बोकर,
उसका फल मैं खाऊं।
मां मुझे तू चाकू दे दे...

© विजय शंकर सिंह

Tuesday, 28 May 2019

जन्मदिन 28 मई - वीडी सावरकर को याद करते हुये / विजय शंकर सिंह

भारतीय इतिहास के बीसवी सदी में विनायक दामोदर सावरकर एक परस्पर विरोधी व्यक्तित्व का नाम है। सावरकर के जीवन पर अध्ययन करने के लिये उनके जीवन को दो भागों में बांट कर देखना होगा। एक अंडमान के पहले का जीवन, दूसरा अंडमान के बाद का जीवन। अंडमान के काले पानी की सज़ा उनके जीवन मे एक टर्निंग प्वाइंट की तरह रही है। यह तथ्य कभी कभी अचंभित भी करता है कि 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम घोषित करने वाला, ब्रिटेन में आज़ादी की अलख जगाने वाला, कैसे अंडमान की त्रासद यातनाओं से टूट कर माफी मांग कर आज़ाद हो गया और फिर वह उन्हीं अंग्रेज़ों के निकट भी आ गया जिनको उखाड़ फेंकने के वह मंसूबे बांधा करता था। कैसे एक नास्तिक व्यक्ति अचानक हिन्दुत्व की अलख जगाते जगाते, मुस्लिम लीग के सरपरस्त एमए जिन्ना का बगलगीर बन गया।

इतिहास और राजनीति संभावनाओं का खेल होती है, यहां कुछ भी हो सकता है। अखंड भारत और हिंदुत्व का पुरोधा जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर अंग्रेज़ों की कृपा से सरकार बनाता है, गांधी की हत्या का षडयंत्र रचता है और अंत मे बेहद उपेक्षित और खामोशी से आत्मार्पण कर के मर भी जाता है। अंडमान पूर्व और अंडमान बाद के सावरकर में यह विरोधाभासी अंतर क्यों है ? यह सावरकर के जीवन और कृतित्व पर अगर कोई शोध कर रहा है तो उसे इन दृष्टिकोण से भी सोचना होगा।

प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक ही पथ पर सदैव नहीं चलता है। पथ परिवर्तन होता रहता है। कब हो जाय यह पथ परिवर्तन, कहा नहीं जा सकता है। सावरकर के साथ भी यही बात थी। उनके जीवन को जैसा मैंने कहा दो खंडों में बांट कर देखना चाहिये बल्कि उनके जीवन के अंतिम समय को जो गांधी हत्या के बाद का है उसे भी अलग कर के देखना चाहिये। अंडमान के पहले के सावरकर, दृढ़ प्रतिज्ञ, स्वाधीनता के प्रशस्त पथ के सजग पथिक, एक इतिहास बोध सम्पन्न व्यक्तित्व के लगते हैं, अंडमान के बाद वही सावरकर अंग्रेज़ो के समक्ष आत्मसमर्पित, क्षमा याचिकाओं का पुलिंदा लिये और स्वाधीनता संग्राम से अलग हटते हुए, नास्तिकता को तिलांजलि देकर धर्म की राजनीति करते हुए नज़र आते हैं। गांधी की हत्या के बाद, वही सावरकर, निंदित और हत्या के षड़यंत्र के अभियुक्त के रूप में, जो बाद में अदालत से बरी हो जाता है और फिर पूरी ज़िंदगी अकेले संत्रास में गुजारता हुआ 1966 में अकेले ही प्राण त्याग देते हुए दिखते हैं। ज़िंदगी के तीन पक्षों में यही सावरकर अलग अलग दिखते हैं। पर किस सावरकर की सराहना की जाय, किस सावरकर की आलोचना की जाय और किस सावरकर की भर्त्सना की जाय यह सावरकर की देश के प्रति भूमिका से ही तय किया जा सकता है।

अक्सर सावरकर को माफीवीर और अंग्रेज़ो के दलाल तथा गांधी के हत्या के षड्यंत्रकर्ता के रूप में चित्रित किया जाता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि उन्होंने अंडमान की यातना से तंग आकर माफी मांग ली और अंग्रेजों के दिशा निर्देश पर वह चलते हुये राजभक्त भी बने रहे, जिन्ना के सहयोगी भी बने, और उनका नाम गांधी हत्या के साजिशकर्ताओं में भी आया, पर सुबूतों के अभाव में वे बरी हो गये। लेकिन अंडमान के पहले उन्होंने आज़ादी के लिये जो कुछ किया उसे हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। उनके अंडमान के पहले की संघर्ष गाथा को भी याद करना होगा।

वे अंडमान पूर्व काल मे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने 1857 के विप्लव के इतिहास को अलग दृष्टिकोण से  लिपिबद्ध किया है। उन्होंने इस विप्लव को प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम कह कर इतिहास लेखन में एक नयी बहस की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों की सिपाही विद्रोह की थियरी से बिल्कुल अलग यह नामकरण था। वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार थे। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद और सकारात्मकवाद, मानवतावाद और सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे। सावरकर एक नास्तिक और एक कट्टर तर्कसंगत व्यक्ति थे जो सभी धर्मों में रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे ।

लेकिन वही सावरकर अंडमान की भयंकर यातना के कारण टूट गए और माफी मांग कर अंग्रेज़ो की सरपरस्ती में आ गए। उन्होंने धर्म की राजनीति शुरू कर दी। हिन्दू महासभा से जुड़े, और हिंदुत्व का सिद्धांत दिया। अगर आप एमए जिन्ना का भी अपने अतीत देखें तो धर्म के बारे में सावरकर और जिन्ना के बीच आश्चर्यजनक समता मिलेगी। जिन्ना भी मजहबी मुस्लिम नहीं थे। न रोजा न नमाज़, न हज न जकात । पर जब वह मुस्लिम लीग के सदर बने तो, फिर मुसलमानों के सबसे बड़े नेता बन कर उभरे। सावरकर भी यही चाहते थे कि वह हिंदुओं की एकल आवाज़ होकर उभरें। दोनों ही गांधी और उनके ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलनों के विरुद्ध थे। दोनों ही अपने अपने धर्म के लिये अलग देश चाहते थे। अंग्रेज़ो के इशारे पर एक दूसरे के धर्म के विरुद्ध लड़ने वाले सावरकर और जिन्ना ने साझा सरकार चलायी, अंग्रेजों का साथ दिया और स्वाधीनता संग्राम के सबसे प्रखर आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया ! पर जिन्ना जहां धर्म के आधार पर अलग मुल्क पाने में सफल रहे वही सावरकर बुरी तरह से नकार दिए गए और उनके हिंदू राष्ट्र की थियरी को हिंदुओं ने ही कूड़ेदान में फेंक दिया।  लंदन में गांधी को मांसाहार न करने पर 'बिना मांस खाये कैसे अंग्रेज़ो से लड़ोगे  कह कर खिल्ली उड़ाने वाले सावरकर, गांधी के विराट प्रभा मंडल में ब्लैक होल की तरह खो गये। हिंदू राष्ट्र का तर्क किसी भी सनातनी हिंदू के गले नहीं उतरा। सबने गांधी, पटेल, नेहरू, आज़ाद, सुभाष आदि धर्मनिरपेक्ष सोच के नेताओं का साथ दिया, और भारत आज़ाद होकर स्वाधीनता संग्राम की सांझी विरासत के सहारे ही समृद्ध होता गया और आज भी उसी पर अडिग है।

लेकिन इन तमाम पथ विचलन, और साम्प्रदायिक राजनीति और द्विराष्ट्रवाद के प्रवर्तन के बाद भी, सावरकर के अंडमान पूर्व जीवन को नजरअंदाज कर देना उनके साथ अन्याय होगा। हम अक्सर जब किसी की समीक्षा करते हैं तो या तो उसे नायक बनाकर न भूतो न भविष्यति के रूप में महिमामंडित कर चित्रित कर देते हैं या फिर उसे खलनायक बनाकर दशानन की तरह देखने लगते हैं। सावरकर की आलोचना और निंदा, उनकी अंडमान बाद गतिविधियों और गांधी हत्या में भूमिका के लिये की जानी चाहिये, क्योकि, अखंड भारत के सपने के साथ खंड खंड भारत करने वाली साम्प्रदायिक राजनीति के वे एक हिस्सा रहे हैं, पर अंडमान पूर्व जिस उत्साह और ऊर्जा के साथ वे स्वाधीनता संग्राम में थे को भी याद करना चाहिये।

© विजय शंकर सिंह

Monday, 27 May 2019

क्या सती प्रथा प्रतिगामी प्रथा नहीं थी ? / विजय शंकर सिंह

मैं अक्सर कार्टून ढूंढता हूँ और उसे सोशल मीडिया पर मित्रों के लिये  साझा करता रहता हूँ। कार्टून सबसे मारक सम्प्रेषण हैं। नावक के तीर से भी अधिक मारक। एक अच्छा और संवेदनशील कार्टूनिस्ट बिना किसी टेक्स्ट के ही सब कुछ कह देता है और ग़ालिब का कालजयी शेर याद आ जाता है, वही तीरे नीमकश वाला। अब उसे भी यहाँ पढ़ ही लीजिए।

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ।

आज कोई कार्टून नहीं मिला पर पूरे देश को व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से एंटायर इतिहास पढा कर कार्टून बनने वाले पात्र मिलने लगे हैं तो मैंने सोचा आज का ब्लॉग उन्हीं पर हो जाय।

नीचे का ट्वीट देखे । यह ट्वीट Indianhistorypics का है जो उन्होंने आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय के एक चित्र को उनके समाज सुधार में किये गए योगदान को लेकर एक टेक्स्ट के साथ छापा है। टेक्स्ट के अनुसार, राजा राममोहन राय एक समाज सुधारक और ब्रह्मो समाज के संस्थापक थे जिन्होंने सती प्रथा के उन्मूलन के लिये अपना योगदान दिया।

राजा राममोहन राय ( 22 मई 1772 - 27 सितंबर 1833 ) का भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह माने जाते हैं। उनके समाज सुधार के आन्दोलनों ने जहाँ समाज को प्रगति मार्ग पर चलने को प्रेरित किया, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया। राजा राममोहन राय की दूर‍दर्शिता और वैचारिकता के अनेक उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। वे रू‍ढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे लेकिन संस्कार, परंपरा और राष्ट्र गौरव उनके दिल के करीब थे। यह उनका एक संक्षिप्त परिचय है जो हम सबने इतिहास की किताबों में पढ़ा ही होगा।

अब आप पायल रोहतगी का यह ट्वीट देखें। ट्वीटर पर इन्होंने अपना परिचय एक एक्टर और गुजरात बोर्ड की टॉपर के रूप में दिया है। वे अपने को भक्त टीम की भी बताती हैं। राजा राममोहन राय से सम्बंधित ट्वीट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये कहती हैं कि,
" नहीं, वे ब्रिटिश के चमचे थे, ब्रिटिशर्स ने उन्हें सती प्रथा को बदनाम करने के लिये आगे किया। सती प्रथा अनिवार्य नहीं थी, बल्कि उसे मुग़ल आक्रांताओं से बचने के लिये लागू किया गया था, और यह महिलाओं की अपनी इच्छा पर था कि वे सती हो जाँय। सती प्रथा प्रतिगामी नहीं थी।"

पायल रोहतगी को शायद एंटायर इतिहास में यह न पढ़ाया गया हो कि, सती प्रथा के रोक के  साथ साथ बंगाल में विधवा विवाह की भी परम्परा शुरू की गयी थी। फिर जब ब्रिटिशर्स आ गए थे तो बंगाल में मुग़ल राज का खात्मा तो 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद ही हो गया था। तत्कालीन बांग्ला समाज मे सती प्रथा पर रोक के लिये राजा राममोहन राय के प्रयासों के कारण गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेटिंग ने 4 दिसम्बर 1829 को सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया।

इस प्रथा का यह नाम देवी सती के नाम से मिला है जिन्हें दक्षायनी के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा अपने पति महादेव शिव के तिरस्कार से व्यथित हो यज्ञ की अग्नि में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। सावित्री और सत्यवान की वैदिक कथा में सतीत्व का भी भाव मिलता है। प्राचीन काल मे भी, यह कोई प्रथा नहीं थी, पर अपवादस्वरूप कुछ उदाहरण ज़रूर मिलते हैं।

पति की मृत्यु के बाद, सती हो जाने का एक कारण यह भी था बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा जब पुरुषों की हत्या कर दी जाती थी, उसके बाद उनकी पत्नियाँ अपनी अस्मिता व आत्मसम्मान को महत्वपूर्ण समझकर, उसकी रक्षा के लिये अपने पति की चिता पर अग्निप्रवेश  करने पर विवश हो जाती या बाध्य कर दी जाती थी। मध्यकाल में जिसमे मुस्लिम आक्रमण बहुत हुये तो अपने सतीत्व को बचाने के लिये स्वेच्छा या अक्सर बलात सती होने के भी कई उदाहरण लोक इतिहास में मिलते  है। कालांतर में महिलाओं की इस स्वैच्छिक विवशता का लोप होते-होते एक सामाजिक रीति जैसी बन गयी, जिसे सती प्रथा के नाम से जाना जाने लगा।

बलात सती होने और जबरन पति की चिता के साथ अग्निप्रवेश के लिये बाध्य करने के अनेक उदाहरण मिलेंगे। इसी के साथ इसका महिमामंडन भी शुरू हुआ। यह प्रथा कोई प्रथा नहीं बल्कि एक प्रकार की हत्या थी या आत्महत्या के लिये उकसाना था। 1829 के सती निषेध अधिनियम के बाद राजस्थान सरकार द्वारा, सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 पारित किया गया। 1988 में भारत सरकार ने इसे संघीय कानून में शामिल किया। यह कानून सती प्रथा की रोकथाम के लिए बनाया गया है जिसमें जीवित विधवाओं को जिन्दा जला दिया जाता था। सती के महिमामंडन को भी अपराध घोषित किया गया है।

पायल रोहतगी द्वारा राजा राममोहन राय को अंग्रेजों का चमचा मानना उनकी बुद्धि और ज्ञान पर तरस उपजाता है। वे इस प्रथा को प्रतिगामी नहीं मानती हैं। जब कि यह प्रथा, बर्बर, अमानवीय और एक क्रूर हत्या थी और किसी भी सभ्य समाज के लिये कलंक समान थी। यह प्रतिगामी प्रथा है। मैं ऐसे ट्वीट की निंदा करता हूँ। ट्वीट का लिंक प्रस्तुत है।

https://twitter.com/Payal_Rohatgi/status/1132105757485232128?s=19

© विजय शंकर सिंह