Monday, 28 January 2019

Ghalib - Kya kahun taareeqee e zindaan e gham / क्या करूँ तारीकी ए ज़िंदान ए ग़म - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

गालिब - 107.
क्या कहूँ तारीकी ए ज़िन्दान ए गम अंधेर है,
पुम्बा नूर ए सुबह से कम, जिसके रोज़न मैं नहीं !!

Kyaa kahuun taareeqee e zindaan e gam andher hai,
Pumbaa nuur e subah se kam, jiske rozan mein naheen !!
- Ghalib.

दुख के कारागार की कालिमा के बारे में क्या कहूँ, वहां तो सर्वत्र अंधकार का साम्राज्य है। यह अंधकार इतना विकट है कि इसके झरोखों से प्रकाश की एक भी किरण भी नहीं दिख पा रही है।

अवसाद, संत्रास, दुःख की पराकाष्ठा से भरी ग़ालिब की यह पंक्तियां उनके जीवन मे कभी कभी जो विपत्ति के अंधकार छा जाता था, उसे वह व्यक्त करती है। ग़ालिब का जीवन अर्थाभाव में बहुत बीता। कुछ तो उनका स्वभाव फक्कड़ाना और फिर स्वाभिमान का ऐसा भाव जो कहीं झुकने न दे, अक्सर आड़े आता रहा। ऊपर से, जुए और शराबखोरी की लत जीवन भर साथ रही। शराब की लत इतनी उन्हें थी कि एक बार वे जब दिल्ली दरबार से कुछ पैसा पाए तो मेरठ चले गए और वहां अंग्रेजों की छावनी से पूरे पैसों की शराब खरीद लाये। घर पर शराब की पेटियां उतरी तो उनकी पत्नी ने कहा कि इतनी शराब और उनसे दरबार से मिले धन की दरयाफ्त की तो, और जब ग़ालिब ने इनकार में सिर हिलाया तो पूछा, खाओगे कहाँ से ?  ग़ालिब ने कहा, खिलाने का वायदा अल्लाह का है, शराब उसे नापसंद है तो उसका इंतज़ाम मैंने कर लिया है। खाना वह खिलायेगा। फक्कड़ और फाकामस्ती में भी रंग लाने की उम्मीद उनमें ही थी। पर दिल ही तो है न संग ओ खैर, दर्द से भर न जाय क्यों ! जब चारों ओर तारिक़ राह है तो उन्हें रोशनी की एक किरण के लिये भी तरसना पड़ रहा है।
दुःख भरी नज़्में, गीत कविताएं बहुत दिल को छूती है। उनके सुनने का अपना अलग आनन्द और अनुभव होता है। वे रचनाएं,  फिल्में, गज़लें और क्षण कभी नहीं भूलते हैं। हृदय के तह में गम एक स्थायी भाव की तरह विद्यमान रहता है। उर्दू शायरी में गम यानी दुखवाद एक प्रमुख स्थान रखता है। यह हंसी मजाक के आवरण से मुक्त करके जीवन की वास्तविकता को सामने रख देता है। मनुष्य सबके गम को अपना हमसफ़र समझ लेता है। आज भी हिंदी साहित्य की एक काव्य पंक्ति मर्म को स्पर्श कर जाती है, सरोज स्मृति की यह पंक्ति,

दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही !!

यह पंक्ति भी महाप्राण निराला के व्यकिगत जीवन के सबसे त्रासद पल की अभिव्यक्ति है।

ग़ालिब ने अपने इस शेर में दुनिया को अंधकार से भरा और वह अंधकार भी इतना निविड़ कि रोशनदान तो है पर रोशनी की रेख तक वहां नही  है। पर इतनी त्रासदी झेलने के बाद भी ग़ालिब को महान बनाने वाली शक्ति उनकी अदम्य जिजीविषा है। यही दुर्दम्यता ही अंधकार में भी उन्हें चैतन्य रखती है। और ऐसी कोई रात भी नहीं बनी है कि जिसकी सुबह न हो। फ़िराक़ के इस कालजयी शेर की तरह, जो अब उम्मीद की फूटती किरण की आभा पहचान लेते हैं।

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा,
कुछ फ़ज़ा, कुछ हसरत ए परवाज़ की बातें करो !!

© विजय शंकर सिंह

1 comment:

  1. Excellent translation specially for us who hardly knows urdu.

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