Thursday, 17 January 2019

जेएनयू देशद्रोह मामले पर जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का अदालत से अनुरोध / विजय शंकर सिंह

9 फरवरी 2016 को जेएनयू में आपत्तिजनक नारे लगाने के आरोप में दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान के विरुद्ध आरोप पत्र दायर कर दिया है। 19 जनवरी से इस मामले में अदालत सुनवाई शुरू करेगी। देशद्रोह की धारा 124 सदैव से विवादों के घेरे में रही है। कुछ विधिवेत्ताओं की राय के अनुसार यह धारा मौलिक अधिकारों के विपरीत है तो कुछ के अनुसार राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिये इसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिये। यह बहस शुरू हो चुकी है और अलग अलग दृष्टिकोण के लोग अपनी अपनी बात कह रहे हैं। पर कानून कभी भी भावुकता भरे तर्क से नहीं चलता है । अदालत का मौसम शहर के मौसम से हमेशा अलग रहता है। कानून की बारीकियों, अपराध के इरादे, उद्देश्य, मनोदशा, तात्कालिक स्थिति के अनुसार अभियोजन और बचाव पक्ष के लोग अपनी अपनी बात कहते हैं। इसी क्रम में यह पत्र जो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का है जिसे  मैं यहां साझा कर रहा हूँ।

जस्टिस काटजू ने अदालत को एक पत्र लिखा है और कहा है कि कोई भी उनके पत्र की हार्ड कॉपी लेकर अदालत में इसे प्रस्तुत कर सकता है। जस्टिस काटजू के अनुसार,
" मैंने अखबारों में आज पढ़ा है कि दिल्ली कोर्ट ( पटियाला हाउस ) में 19 जनवरी को अदालत, जेएनयू के छात्रों कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान आदि के खिलाफ पुलिस द्वारा दी गयी चार्जशीट पर  विचार करेगी। मैं किसी से भी अनुरोध करूँगा कि वह मेरे इस पत्र का प्रिंट आउट लेकर जज को निर्धारित तारीख पर दे दे। "
" I read today media reports that a Delhi Court ( Patiala House ) has fixed 19th January as the date for considering the police charge sheet against JNU students Kanhaiya Kumar, Umar Khalid, Anirban etc. I request someone to place a print out of the note given below before the Judge concerned on that date."

जस्टिस काटजू ने इस मामले में अपने पेशेवराना अनुभव से यह बताया है कि इस मामले में Sedition यानी देशद्रोह का कोई मामला नहीं बनता है।
उनकी इस धारणा का आधार निम्न है।

संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अनुसार, सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, पर निश्चित रूप से इस प्राविधान से प्राप्त अधिकारों के साथ साथ कुछ प्रतिबंध भी हैं। पर क्या आज़ादी के बारे में नारे लगाना उक्त प्रतिबन्धों में आता है या नहीं ?

इस बारे में वे आगे कहते हैं।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने एक मुक़दमे ब्रांडेनबुर्ग बनाम ओहियो राज्य 1969 के मामले में सुनवायी के बाद अपने फैसले में कहा है कि,
" अदालत ( अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ) संविधान द्वारा वाक स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाने के अधिकार या कृत्य को विधिसम्मत नहीं मानती, जब तक कि ऐसे उकसावे वाली कार्यवाही से तत्काल कोई कानून व्यवस्था की स्थिति या हिंसा की घटना न हो जाय, जिससे राज्य को तत्काल हस्तक्षेप करना पड़े। "
ऐसी स्थिति को तत्काल विधिविहीनता की कार्यवाही कह सकते हैं।  यानी हिंसक घटना तत्काल हो सकती है या हो गयी है और राज्य को तत्काल हस्तक्षेप करना पड़ सकता है।

अब ज़रा ब्रांडेनबुर्ग बनाम ओहियो राज्य के प्रकरण पर दृष्टि डालते हैं। 1864 की गर्मियों में कू क्लक्स क्लान नामक एक नस्लवादी संघटन के नेता क्लेरेंस ब्रांडेनबुर्ग ने क्लान की रैली में एक भाषण दिया था। उस भाषण में उसने अमेरिका की सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह काकेशियन नस्ल का दमन कर रही है। उसे ओहियो राज्य में हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उस पर ओहियो आपराधिक सिंडीकैलिज़्म   कानून के अनुसार मुक़दमा चला। उक्त कानून में औद्योगिक और राजनीतिक सुधारों के लिये, अपराध, तोड़फोड़, हिंसा, और आतंकवाद को दंडनीय अपराध माना गया है। इन आरोपों में उसे सजा हो गयी और उसने फिर इस सज़ा के खिलाफ अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

9 जून 1969 को अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने ब्रांडेनबुर्ग की अपील स्वीकार की और उसे सजा से मुक्त कर दिया। अदालत ने ओहियो स्टेट कोर्ट के फैसले उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अतिक्रमण माना और यह टिप्पणी की कि, अदालत ने उसके भाषण की पृष्ठभूमि और परिणामों के बारे में कोई विचार नहीं किया। क्योंकि ब्रांडेनबुर्ग के भाषण के बाद तत्काल विधिविहीनता ( Lawlessness ) की कोई स्थिति उत्पन्न ही नहीं हुयी थी।

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आलोक में भारत की सुप्रीम कोर्ट ने भी तीन मामलों में अपने फैसले दिए हैं। ये मामले हैं,
* अरूप भुयां बनाम आसाम राज्य।
* श्री इन्द्रदास बनाम आसाम राज्य।
* आंध्र प्रदेश बनाम पी लक्ष्मी देवी।
इन तीन मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय, उपरोक्त अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट पर आधारित रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने अरूप भुइया बनाम आसाम सरकार (2011, 3 एससीसी 377) और श्री इंदिरा दास बनाम आसाम राज्य (2011, 3 एससीसी 380) मामलों में यह फैसला दिया था कि केवल किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता के आधार पर किसी व्यक्ति पर आई.पी.सी. के सैक्शन 124 ए या यू.ए.पी.ए. के तहत अपराध का इल्ज़ाम लगाकर, उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

इन मुकदमों में दी गयी व्यवस्था के आधार पर जस्टिस काटजू कहते हैं कि केवल भारत विरोधी या आज़ादी के नारे लगाने से, कोई उकसावे वाली स्थिति उत्पन्न नहीं हुयी है अतः यह तत्काल विधिविहीनता का कृत्य (  imminent lawless action ) नहीं है।

उनके अनुसार, भारत मे बहुत से लोगों और संगठनों ने आज़ादी के नारे लगाए और आज़ादी की मांग की है। जैसे, खालिस्तान, कश्मीर और नागालैंड के आंदोलनकारी थे। ( अकालियों का आनन्दपुर साहब प्रस्ताव तो आज़ादी के समर्थन में ही था। ) लेकिन यह कोई अपराध नहीं माना गया। यह तभी अपराध होगा, जब कोई
(1) हिंसा हो जाय,
(2) संगठित हिंसा की घटना फैल जाय, या
(3) हिंसा के लिये तत्काल लोगों को उकसाया या भड़काया जाय।
लेकिन ऐसा कुछ भी जेएनयू के छात्रों द्वारा नहीं किया गया है। यदि उन्होंने ये नारे लगाए भी हों तो भी उनके ऊपर देशद्रोह सेडिशन का अपराध नहीं बनता है। 
***
जस्टिस काटजू का पत्र नीचे प्रस्तुत है।

Your Honour,
I have come to know that you will be considering today the police charge sheet against JNU students Kanhaiya Kumar, Umar Khalid, Anirban and others relating to some alleged anti-India slogans raised in a function held in the JNU campus in 2016.

In this connection I wish to clarify the legal position to you.
The right to free speech is guaranteed by Article 19(1)(a) of the Constitution of India. No doubt some restrictions can be placed on this right, but the question is whether prohibiting anti-India slogans or demand for azadi would be a valid restriction ? I submit it would not, for the reasons given below.

The US Supreme Court in Brandenburg vs Ohio, 1969 ( see online ) observed " The Constitutional guarantee of free speech does not permit the state to forbid or proscribe the advocacy of the use of force or law violation except where such advocacy is directed to inciting or producing imminent lawless action, and is likely to produce such action ". Thus, this decision has laid down the ' imminent lawless action ' test.

This decision of the US Supreme Court was followed by the Indian Supreme Court in 3 of its own decisions viz Arup Bhuyan vs State of Assam ( see online ), Sri Indra Das vs State of Assam ( see online ) and Govt of Andhra Pradesh vs P. Laxmi Devi ( see online para 79 ). Thus, it has become the law of the land in India too.

Surely mere raising anti-India or azadi slogans does not amount to inciting or producing imminent lawless action.

Many people in India demand azadi and raise slogans for it e.g. Khalistanis, Kashmiris, Nagas etc. This by itself is no crime. It becomes a crime if one goes further and (1) commits violence (2) organises violence, or (3) incites to imminent or immediate violence. That has not been done by these students, even if one disapproves of the slogans, and even assuming they raised such slogans or incited others to raise them.

Your Honour is bound by the aforementioned Supreme Court decisions, and is therefore requested to reject/quash the said chargesheets.

Respectfully
Justice Markandey Katju
Former Judge, Supreme Court
16.1.2019
***
इस पत्र द्वारा उन्होंने अदालत से अनुरोध किया है कि प्रचलित कानून और व्यवस्थाओं के आलोक में यह मुकदमा खत्म कर दे।

© विजय शंकर सिंह

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