Saturday, 26 January 2019

पद्म पुरस्कारों पर विवाद और चयन प्रक्रिया - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

हर साल 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर भारत सरकार अपने नागरिकों को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारतरत्न के सम्मानों से सम्मानित करती रहती है। लेकिन इन पुरस्कारों के लिए चयन प्रक्रिया का, क्या कोई निर्धारित मापदंड है कि, किसे यह पुरस्कार दिया जाय, या किसे न दिया जाय ?  इसे तय करने के लिये कोई अधिकारप्राप्त चयन कमेटी है या यह सरकार की केवल अपनी मर्ज़ी पर निर्भर करता है, कि अचानक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर यह घोषणा कर दी जाती है कि अमुक अमुक महानुभावों को अमुक अमुक सम्मान दिया जा रहा है। पहले भी इन पुरस्कारों पर विवाद हो चुका है और इन्हीं विवादों के कारण,  एक बार यह पुरस्कार प्रक्रिया बंद भी हो चुकी है।

भारतरत्न पर तो अक्सर विवाद उठता रहता है। यह विवाद किसी महानुभाव को सम्मानित करने के सवाल पर कम बल्कि अमुक महानुभाव को क्यों छोड़ दिया गया इस पर अधिक उठता रहा है। इसपर भी उठा कि  इंदिरा और नेहरू जी ने खुद को ही यह इनाम कैसे दे दिया। लगभग हर साल कोई न विवाद इस सम्मान के साथ उठता रहा है। ऐसे विवाद, सम्मानित व्यक्ति और उनके समर्थकों तथा परिजनों को अकसर असहज भी करते रहते हैं। ऐसे विवादों से बचे रहने के उपाय भी खोजे जाने चाहिये। जब भी स्वेच्छाचारिता से सरकारी फैसले होंगे तो सवाल उठेंगे ही। कभी सरकार के विशेषाधिकार से जुड़े फैसलों को, 'जो हुक्म मेरे आका' की मुद्रा में मान लिया जाता था, पर अब जैसे जैसे सूचना क्रांति परवान चढ़ रही है, लोग अपने अधिकारों, दायित्वों और कर्तव्यों के प्रति सचेत होने लगे हैं, तो ये सवाल भी उठने लगे हैं।  संसार मे शायद ही कोई ऐसा शेष हो जिसके साथ विवाद न जुड़े हों। पर जैसे ही वह शख्शियत खबरों में आती है, उससे विवाद सतह पर आ जाते हैं। प्रश्नचिह्न तो अंकुश की तरह ही होते हैं।

कुछ उदाहरण पर गौर करें। क्या यह विडंबना नहीं है कि पहला भारतरत्न डॉ राधाकृष्णन को उनके शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान के लिये मिला और यही पुरस्कार मदन मोहन मालवीय जी को उनके मृत्यु के कई दशक बाद मिला। जबकि डॉ राधाकृष्णन को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में लाने वाले मालवीय जी ही थे ! कम से कम शिक्षा के क्षेत्र को ही मान लिया जाय तो मदन मोहन मालवीय, डॉ राधाकृष्णन ने कहीं अधिक ऊंचे हैं। उनके अन्य राजनीतिक योगदान को तो फिलहाल अलग रख दीजिए।
कभी भी चुनाव न हारने वाले, देश के सबसे सम्मानित दलित नेता और 1971 के भारत पाक युद्ध के समय देश के रक्षामंत्री रहे, बाबू जगजीवन राम को यह सम्मान आज तक नहीं मिला । क्यों ?
सचिन तेंदुलकर को खेल के क्षेत्र में भारतरत्न तो मिलता है पर गुलाम भारत मे हॉकी में अपना जलवा बिखेर कर कई ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक दिलाने वाले और एक आख्यान बन चुके मेजर ध्यानचंद को इस पुरस्कार के लायक आजतक नहीं समझा गया ?
क्या क्रिकेट की अभिजात्यता है या पुरस्कृत किये जाने में किसी प्रकार का पक्षपात है ? बात अब निकली है तो दूर तक जाएगी। कुछ हो या न हो यह अलग बात है।

आज नानाजी देशमुख, भूपेन हजारिका और प्रणव मुखर्जी को इस सम्मान से सम्मानित किया गया है। ये नामचीन लोग हैं। अपने अपने क्षेत्रों, समाज सेवा, कला और राजनीति में इनके योगदान भी कम नहीं है। पर भूपेन हजारिका को छोड़ दें तो इनके साथ भी कई विवाद जुड़े हैं। पद्म पुरस्कार से जुड़े इन्ही विवादों के कारण गीता मेहता जो एक प्रसिद्ध लेखिका हैं ने पद्मश्री पुरस्कार लेने से मना कर दिया। वे ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बहन हैं। उनका कहना है कि आगामी चुनाव को देखते हुये उनके पद्मश्री सम्मान पर लोग सवाल उठा सकते हैं। उनकी आशंका निर्मूल भी नहीं है। आज कुछ अखबारों में प्रणव मुखर्जी और भूपेन हजारिका को यह सम्मान देने के पीछे बंगाल और आसाम के चुनाव को भी एक कारक के रूप में देखते हुये खबर और टिप्पणियां छपी है। नानाजी की, दीनदयाल उपाध्याय की हत्या में कथित संलिप्तता और 1984 के सिख विरोधी दंगों में उनके द्वारा लिखे गए एक लेख की भी चर्चा है। बलराज मधोक की चर्चित आत्मकथा का उल्लेख अक्सर अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख से जुड़े कुछ विवादित प्रसंगों के लिये किया जाता रहा है।

सरकार को अपने देश के महत्वपूर्ण नागरिकों को पुरस्कृत और सम्मानित किये जाने का पूरा अधिकार है। इसमे कुछ भी बुरा नहीं है। पर किसे किस आधार पर इस सम्मान के योग्य समझा जा रहा है इसे भी सभी नागरिकों को जानने का अधिकार है। किसी मित्र को ऐसे पुरस्कारों के बारे में निर्धारित प्रक्रिया और तयशुदा मापदंड हों तो ज्ञानवर्धन करें। सम्मान, पुरस्कार, और दंड की प्रक्रिया स्पष्ट, पारदर्शी और भेदभाव रहित नहीं है तो वे सम्मानित या दंडित व्यक्ति को विवादित ही बना देते हैं।

#पद्मपुरस्कार
पद्म पुरस्कारों के लिये एक उच्चस्तरीय कमेटी और नियमावली बनायी जाय.

हर साल 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर भारत सरकार अपने नागरिकों को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारतरत्न के सम्मानों से सम्मानित करती रहती है। लेकिन इन पुरस्कारों के लिए चयन प्रक्रिया का, क्या कोई निर्धारित मापदंड है कि, किसे यह पुरस्कार दिया जाय, या किसे न दिया जाय ?  इसे तय करने के लिये कोई अधिकारप्राप्त चयन कमेटी है या यह सरकार की केवल अपनी मर्ज़ी पर निर्भर करता है, कि अचानक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर यह घोषणा कर दी जाती है कि अमुक अमुक महानुभावों को अमुक अमुक सम्मान दिया जा रहा है। पहले भी इन पुरस्कारों पर विवाद हो चुका है और इन्हीं विवादों के कारण,  एक बार यह पुरस्कार प्रक्रिया बंद भी हो चुकी है।

भारतरत्न पर तो अक्सर विवाद उठता रहता है। यह विवाद किसी महानुभाव को सम्मानित करने के सवाल पर कम बल्कि अमुक महानुभाव को क्यों छोड़ दिया गया इस पर अधिक उठता रहा है। इसपर भी उठा कि  इंदिरा और नेहरू जी ने खुद को ही यह इनाम कैसे दे दिया। लगभग हर साल कोई न विवाद इस सम्मान के साथ उठता रहा है। ऐसे विवाद, सम्मानित व्यक्ति और उनके समर्थकों तथा परिजनों को अकसर असहज भी करते रहते हैं। ऐसे विवादों से बचे रहने के उपाय भी खोजे जाने चाहिये। जब भी स्वेच्छाचारिता से सरकारी फैसले होंगे तो सवाल उठेंगे ही। कभी सरकार के विशेषाधिकार से जुड़े फैसलों को, 'जो हुक्म मेरे आका' की मुद्रा में मान लिया जाता था, पर अब जैसे जैसे सूचना क्रांति परवान चढ़ रही है, लोग अपने अधिकारों, दायित्वों और कर्तव्यों के प्रति सचेत होने लगे हैं, तो ये सवाल भी उठने लगे हैं।  संसार मे शायद ही कोई ऐसा शेष हो जिसके साथ विवाद न जुड़े हों। पर जैसे ही वह शख्शियत खबरों में आती है, उससे विवाद सतह पर आ जाते हैं। प्रश्नचिह्न तो अंकुश की तरह ही होते हैं।

कुछ उदाहरण पर गौर करें। क्या यह विडंबना नहीं है कि पहला भारतरत्न डॉ राधाकृष्णन को उनके शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान के लिये मिला और यही पुरस्कार मदन मोहन मालवीय जी को उनके मृत्यु के कई दशक बाद मिला। जबकि डॉ राधाकृष्णन को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में लाने वाले मालवीय जी ही थे ! कम से कम शिक्षा के क्षेत्र को ही मान लिया जाय तो मदन मोहन मालवीय, डॉ राधाकृष्णन ने कहीं अधिक ऊंचे हैं। उनके अन्य राजनीतिक योगदान को तो फिलहाल अलग रख दीजिए।
कभी भी चुनाव न हारने वाले, देश के सबसे सम्मानित दलित नेता और 1971 के भारत पाक युद्ध के समय देश के रक्षामंत्री रहे, बाबू जगजीवन राम को यह सम्मान आज तक नहीं मिला । क्यों ?
सचिन तेंदुलकर को खेल के क्षेत्र में भारतरत्न तो मिलता है पर गुलाम भारत मे हॉकी में अपना जलवा बिखेर कर कई ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक दिलाने वाले और एक आख्यान बन चुके मेजर ध्यानचंद को इस पुरस्कार के लायक आजतक नहीं समझा गया ?
क्या क्रिकेट की अभिजात्यता है या पुरस्कृत किये जाने में किसी प्रकार का पक्षपात है ? बात अब निकली है तो दूर तक जाएगी। कुछ हो या न हो यह अलग बात है।

आज नानाजी देशमुख, भूपेन हजारिका और प्रणव मुखर्जी को इस सम्मान से सम्मानित किया गया है। ये नामचीन लोग हैं। अपने अपने क्षेत्रों, समाज सेवा, कला और राजनीति में इनके योगदान भी कम नहीं है। पर भूपेन हजारिका को छोड़ दें तो इनके साथ भी कई विवाद जुड़े हैं। पद्म पुरस्कार से जुड़े इन्ही विवादों के कारण गीता मेहता जो एक प्रसिद्ध लेखिका हैं ने पद्मश्री पुरस्कार लेने से मना कर दिया। वे ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बहन हैं। उनका कहना है कि आगामी चुनाव को देखते हुये उनके पद्मश्री सम्मान पर लोग सवाल उठा सकते हैं। उनकी आशंका निर्मूल भी नहीं है। आज कुछ अखबारों में प्रणव मुखर्जी और भूपेन हजारिका को यह सम्मान देने के पीछे बंगाल और आसाम के चुनाव को भी एक कारक के रूप में देखते हुये खबर और टिप्पणियां छपी है। नानाजी की, दीनदयाल उपाध्याय की हत्या में कथित संलिप्तता और 1984 के सिख विरोधी दंगों में उनके द्वारा लिखे गए एक लेख की भी चर्चा है। बलराज मधोक की चर्चित आत्मकथा का उल्लेख अक्सर अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख से जुड़े कुछ विवादित प्रसंगों के लिये किया जाता रहा है।

सरकार को अपने देश के महत्वपूर्ण नागरिकों को पुरस्कृत और सम्मानित किये जाने का पूरा अधिकार है। इसमे कुछ भी बुरा नहीं है। पर किसे किस आधार पर इस सम्मान के योग्य समझा जा रहा है इसे भी सभी नागरिकों को जानने का अधिकार है। किसी मित्र को ऐसे पुरस्कारों के बारे में निर्धारित प्रक्रिया और तयशुदा मापदंड हों तो ज्ञानवर्धन करें। सम्मान, पुरस्कार, और दंड की प्रक्रिया स्पष्ट, पारदर्शी और भेदभाव रहित नहीं है तो वे सम्मानित या दंडित व्यक्ति को विवादित ही बना देते हैं।

इस ब्लॉग पर एक विद्वान मित्र की टिप्पणी भी प्रस्तुत है,
" पं० मदन मोहन मालवीय जैसे व्यक्ति को भारतरत्न का सम्मान देना वैसा ही था जैसे महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले या योगिराज अरविंद, विवेकानन्द या टैगोर जैसी विभूतियों को इस दायरे मे लाना।कांग्रेस शासन में लोग इस तथ्य को समझते थे।मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारतरत्न देकर यह संदेश देने की कोशिश की कि इतने महान् व्यक्ति को कांग्रेस ने अपनी हिन्दू विरोधी नीति की वजह से सम्मान नहीं दिया और देखिये हम उन्हें सम्मान दे रहे हैं।हाँ, कांग्रेस ने डा० अाम्बेडकर को यह सम्मान नहीं दिया था-कारण बहुत से हैं पर मैं उसमें नहीं पड़ना चाहता।
   डा० राधाकृष्णन् भारतरत्न के लिये सर्वथा योग्य विद्वान् थे।इस विन्दु पर विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।
भारतरत्न के लिये दलित नेता होना कोई आदर्श मापदण्ड नहीं है।आपको शायद वह मामला याद न हो जब उन्होंने मंत्री रहते हुये दस साल तक इन्कम टैक्स रिटर्न नहीं भरा था और मोरारजी ने उनपर तोहमत लगाई थी।वे तो इस्तीफ़ा देने जा रहे थे लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें रोका।मामले पर लीपापोती कर दी गई।
  यह पुरस्कार पाने से वंचित रह गये लोगों में बहुत से वैज्ञानिक और विद्वान हैं जैसे-एस. रामानुजन, डा० गोरख प्रसाद,मेघनाद साहा,डा० भाभा, ई सी जी सुदर्शन, एम जी के मेनन, राहुल सांस्कृत्यायन, आर.जी. भण्डारकर अादि।
इन लोगों का योगदान पुरस्कार पा चुके कई लोगों से ज्यादा है। "

पद्म पुरस्कारों पर विवाद और चयन प्रक्रिया - एक चर्चा  /  विजय शंकर सिंह  https://vssraghuvanshi.blogspot.com/2019/01/blog-post_26.html
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© विजय शंकर सिंह

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