3 दिसम्बर 2018 को बुलंदशहर के स्याना कस्बे में थाना स्याना पर एक सूचना आती है कि कुछ कटी हुयी गायें खेतों में बिखरी पड़ी। एक लाइन की यह सूचना किसी भी थाने और उस जिले के एसपी डीएम के होश उड़ाने के लिए पर्याप्त थी। ऐसा नहीं है कि ऐसी सूचनाएं 2014 के बाद आयी कथित गौभक्त या गौरक्षक सरकार के बाद संवेदनशील समझी जाने लगीं। बल्कि गौहत्या से जुड़ी हर घटना जिले की पुलिस के महत्वपूर्ण रही है। ऐसा गाय के प्रति लगाव ही एक कारण नहीं है बल्कि ऐसा इसलिए कि गाय की हत्या से दंगे भड़क सकते हैं और कानून व्यवस्था की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। स्याना में भी यही हुआ। वहां के थाना इंचार्ज इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह भी घटनास्थल पर पहुंचे और गाय के अवशेषों को ठिकाने लगाने, सैम्पल लेने का कार्य कर रहे थे कि बजरंग दल के कुछ लोग, जिला संयोजक योगेश राज के नेतृत्व में आ गए और फिर जो हुआ वह बेहद दुखद हुआ। भीड़ अनियंत्रित हुयी और बर्बरतापूर्वक सुबोध की हत्या हुयी। एक और व्यक्ति उस घटना में मारा गया।
इस मामले में दो मुक़दमे थाने पर लिखाये गये। एक योगेश राज द्वारा जो गौकशी के सम्बंध में था और दूसरा पुलिस द्वारा जिसमे बजरंग दल वाला योगेश राज मुल्ज़िम था। इसमे कुल 27 व्यक्ति मुल्ज़िम थे। फिर शुरू हुई विवेचना। इस प्रकरण का सबसे दुःखद और शर्मनाक पक्ष यह था कि ड्यूटी पर हुयी पुलिस अफसर की हत्या पुलिस के बड़े अफसरों एसपी से लेकर डीजीपी तक के लिए उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही जितनी की गाय की हत्या समझी गयी। यह भी सच है कि, गौकशी से उपजा उन्माद इस हिंसा और पुलिस अफसर की हत्या का कारण था, पर जब एक बड़ा अपराध, धारा 302 आईपीसी का घटित हो गया तो, उसके सामने गौकशी का अपराध उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा। विडंबना है कि, सरकार ने लखनऊ में जब अफसरों की बैठक की तो सरकार की चिंता राडार पर गौकशी के अभियुक्त अधिक थे बनिस्बत ड्यूटी पर मारे गए पुलिस अफसर के। सरकार ने मुआवजा दिया। यह सरकार को देना ही था। पर सरकार और पुलिस के बड़े अफसरों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे लगे कि इस घटना के मुख्य अभियुक्त को पकड़ने की कोई सार्थक कोशिश की जा रही हो। योगेश राज टीवी चैनल्स पर अपनी बेगुनाही के सुबूत बांटता रहा, बुलन्दशहर का स्थानीय विधायक, इंस्पेक्टर को ही अपनी मौत का जिम्मेदार बताता रहा, पुलिस अफसर सत्तारूढ़ दल के इतने प्रभाव में रहे कि योगेश राज पर हांथ डालने से सहमते और बचते रहे। ठीक एक महीने बाद 3 जनवरी 19 को आखिरकार योगेश राज पकड़ा ही गया। पकड़ा गया या स्वतः सामने आ गया, यह भी छानबीन का विषय है। पहले एक फौजी ज़रूर पकड़ा गया था। पर क्या योगेश राज पर इसलिए एक महीने तक हांथ नहीं डाला गया क्यों कि वह सत्तारूढ़ दल का था ? यह सवाल हम सबके मन मे उठता रहा जो पुलिस सेवा से जुड़े हैं।
दो तीन दिनों पहले एक और खबर आयी कि गौकशी के अभियुक्तों को रासुका ,एनएसए ( राष्ट्रीय सुरक्षा कानून ) के अंतर्गत निरुद्ध किया गया है। यह कदम उचित है। इसका कोई भी व्यक्ति जो कानून व्यवस्था या प्रशासन से जुड़ा है, विरोध नहीं करेगा। यह भी कोई पहली बार नहीं हुआ है कि गौकशी के अभियुक्तों के खिलाफ रासुका लगाया गया हो। हालांकि पहली बार सिंड्रोम इतना हावी है कि कुछ ने इस कदम को पहली बार उठाया गया बता कर सरकार की तारीफ भी की। सरकार का यह निर्णय सही है। गौवध निवारण अधिनियम में जमानत आसानी से हो जाती है और इस घटना की जनमानस में बहुत तीव्र और उत्तेजक प्रतिक्रिया हो सकती है इसलिए इसके मुल्जिमों को रासुका में निरुद्ध करने का निर्णय पहले भी लिया जाता रहा है,और इस बार भी यही हुआ होगा। रासुका खुद में कोई अपराध नहीं है बल्कि यह किसी बड़े और ऐसे अपराध जिससे लोकव्यवस्था भंग होने का खतरा आसन्न हो जाय, को रोकने के लिये एक कड़ा निरोधात्मक प्राविधान है। रासुका का निर्णय जिला मैजिस्ट्रेट, एसपी की सहमति से ऐसे किसी व्यक्ति के, जो लोकव्यवस्था के लिये खतरा बन रहा है, के विरुद्ध लिया जाता है। जो पहले सरकार और फिर हाईकोर्ट से अनुमोदित होता है। इसकी प्रक्रिया इतनी जटिल इस लिये रखी गयी है, ताकि उसका दुरुपयोग न हो सके। निश्चित रूप से गायों के कटने से वहां ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी होगी कि लोकव्यवस्था जिसे कानून में पब्लिक आर्डर कहा गया है के भंग होने का खतरा उत्पन्न हुआ होगा तभी अधिकारियों ने रासुका की कार्यवाही की होगी। यह एक स्वागतयोग्य निर्णय है।
लेकिन इस कदम से कई और महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़े होते है, जैसे, यही रासुका की कार्यवाही इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के हत्यारे और हत्या के मुख्य मुल्ज़िम पर क्यों नहीं की गयी ? उन्हें क्यों इस प्राविधान से वंचित रखा गया ? क्या सरकार की नज़र में ड्यूटी पर एक पुलिस अफसर का इस प्रकार भीड़ हिंसा में बर्बरतापूर्वक अंग भंग करके हत्या कर दिए जाने की घटना लोकव्यवस्था के भंग हो जाने की सूचक नहीं है ? क्या सरकार और वरिष्ठ पुलिस अफसरों ने एक क्षण के लिये भी यह नहीं सोचा कि जिन अधीनस्थों के दम और बल पर अपराध मुक्ति के बड़े बड़े दावे प्रेसवार्ता में उनके द्वारा किये जाते हैं , के मनोबल पर ऐसी जघन्य हत्याकांड से क्या असर पड़ेगा ? क्या केवल मुआवजे की रकम, आश्रित को नौकरी, शव को सलामी और कंधा के एवज में उन कानूनी कार्यवाही जिसे पाने का हर नागरिक को मौलिक हक़ है के समय पर न मिलने का दंश पुलिसजन भुला देगा ? ऐसे जघन्य हत्याकांड में तो होना ही यह चाहिये था, जब तक हत्या के सभी नामजद मुल्ज़िम गिरफ्तार कर के जेल नहीं भेज दिये जाते तब तक पुलिस बल चैन नहीं लेता। पर तब ऐसा नहीं हुआ। यह पुलिस की क्लीवता थी, या सत्तारूढ़ दल के समक्ष बेशर्मी भरा आत्मसमर्पण, पता नहीं।
पुलिस को राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ता है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल पुलिस और प्रशासन पर दबाव डालते रहते हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप से बचा भी नहीं जा सकता है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है और राजनीतिक दल, जनता के प्रतिनिधि हैं तो उनके सुझाव, परामर्श, दिशा निर्देश आदि को राजनीतिक हस्तक्षेप कह कर दरकिनार और खारिज़ भी नहीं किया जा सकता है । पर पुलिस एक ऐसी संस्था है जो सरकार के आधीन रहते हुये भी सरकार के आधीन नही है। यह कानून को कानूनी रूप से लागू करने वाली संस्था है। इसलिए अगर कभी ऐसी परिस्थिति आयी कि सरकारी आदेश ही कानून का उल्लंघन करता पाया जाय तो उक्त आदेश को न मानकर कानून को लागू किया जाना चाहिये। बुलन्दशहर मामले में सत्तारूढ़ दल के नेताओं का कथन पुलिस के विरुद्ध था। वे सारी समस्या के लिये पुलिस को ही दोषारोपित कर रहे थे। पुलिस पर उक्त घटना में अगर लापरवाही बरतने का आरोप सच हो तो भी इंस्पेक्टर की हत्या एक जघन्य हत्या है और इससे उक्त हत्या के अभियुक्तों को कोई लाभ नहीं दिया जा सकता है। पुलिस की भूमिका अगर उस बवाल में मिलती है तो पुलिस के दोषी लोगों पर कार्यवाही हो और हत्या के मुल्जिमों पर जो कानूनी कार्यवाही सम्भव हो वह हो। इस हत्याकांड के मामले में भी इसके मुख्य अभियुक्त पर कम से कम रासुका की कार्यवाही की जानी चाहिये थी, जो नहीं की गयी है। और ऐसा इसलिए नहीं किया गया है क्योंकि अभियुक्त न केवल सत्तारूढ़ दल के एक घटक बजरंग दल से जुड़ा है बल्कि उस पर स्थानीय विधायक और बड़े नेताओं का खुला संरक्षण है।
© विजय शंकर सिंह
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