Saturday, 26 January 2019

एसएन मिश्र का लेख - मुण्डकोपनिषद विद्या और अविद्या / विजय शंकर सिंह

मुण्डोकोपनिषद में विद्या के दो भेद किए गए हैं-परा विद्या और अपरा विद्या। इसी उपनिषद में यह भी कहा गया है कि वेद और उसके छह अंग (वेदांग)- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त छंद और ज्योतिष अपरा विद्या हैं। पराविद्या वह है जिससे ब्रह्म को जाना जाता है।

भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल विज्ञान कहते हैं उसी को उपनिषद में अपराविद्या के नाम से कहा गया है। अभ्युदय और भौतिकता अविद्या के पर्याय हैं। इसी प्रकार नि:श्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या के पर्याय हैं।
यजुर्वेद और ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है :
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदो भयंसह।
अविद्ययया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥

इस मंत्र में विद्या का अर्थ वेद से प्राप्त ज्ञान से शुद्ध कर्म और उपासना करना है। जो मनुष्य विद्या और अविद्या के सच्चे स्वरूप को साथ-साथ जान लेता है और उसी के अनुसार कर्म भी करता है वह कर्म और उपासना द्वारा यथार्थ ज्ञान से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यहां पर अविद्या ऐसी है जो विद्या के साथ मिलकर साधक के लिए हितकारी बन जाती है। अविद्या और विद्या, दोनों का ही ज्ञान कर लेना मोक्ष मार्ग का प्रथम सोपान है। यदि हम सभी इसे भलीभांति समझ लें तो हमारा जीवन सही मायने में सुखमय हो जाए।
हम जैसे अज्ञानियों के लिए सरल भाषा में आचरण और धर्म का पालन करते हुए यदि भौतिक ज्ञान से धन कमायें तो जीवन सुखमय होता है I

आजकल की शिक्षा में धर्म और आचरण के पालन की शिक्षा का ज्ञान यानी विद्या नहीं पढ़ाई जाती केवल भौतिक ज्ञान यानी अविद्या की ही शिक्षा दी जाती है ,जिसके कारण स्वार्थी और अधार्मिक प्रवृत्ति बढ़ रही है I जबकि वेद और उपनिषद् में सुखमय जीवन के लिए दोनों विद्याओं के शिक्षा की आवश्यकता है Iऐसा न होने के कारण केवल भौतिकता बढ़ रही है और आचरण और धर्म का पतन हो रहा है I

( साभार एसएन मिश्र )
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( विजय शंकर सिंह )

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