Friday 23 September 2016

न्यूज़ चैनलों से जिम्मेदारी भरा आचरण अपेक्षित है / विजय शंकर सिंह

मुझे कभी कभी लगता है कि जब भी कोई संकट सामने आएगा तो सबसे अधिक गैर जिम्मेदार भूमिका इलेक्ट्रानिक मिडिया की होगी । सनसनी फैलाना इनका उद्देश्य , उन्माद पैदा करना इनकी आदत और घृणा का वातावरण बना देना इनकी फितरत बन हो गयी है । यह यही मना रहे हैं कि युद्ध का गोला कब दगे और ये उसी गोले पर बैठे बैठे  रिपोर्टिंग करने का दावा यह कर दें । फिर चाहे सेना की योजना गोपनीय रहे या न रहे, गोपनीयता भंग होने से योजना भले ही विफल हो जाय और सरकार की भले किरकिरी हो जाय पर इनका दावा पुख्ता रहना चाहिए कि, सबसे पहले इन्होंने ही यह देखा और दिखाया । यह रोग प्रिंट मिडिया में कम है अभी । इसका कारण अख़बार का एक बार छपना और उसका दस्तावेज़ी रूप होना है । मिडिया की जिम्मेदारी सच से रू ब रू कराना है न कि सच को गढ़ना है । कल पाक मिडिया ने ऍफ़ 16 हवाई जहाज को इस्लामाबाद के ऊपर उड़ते देख लिया । जियो टीवी के हामिद मीर का यह ट्वीट जैसे ही छपा  लोग यह कयास लगाने लगे कि युद्ध की शुरुआत हो गयी है । और बिना कान छुए कौवे के पीछे भाग चले । यह पत्रकारिता का परिहास काल है ।

पुलिस की सेवा के दौरान मेरी पत्रकारों से स्वाभाविक मित्रता रही है । एक तो इसका एक कारण यह है कि, पढ़ने और लिखने का शौक़ मुझे है और एक साल तक डीजीपी यूपी का जन संपर्क अधिकारी भी 1995 - 96 में रहा हूँ । वह पद मूलतः प्रेस वार्ता और पत्रकारों को समाचार देने आदि के लिए गठित है । मैं तीन डीजीपी साहबान का पीआरओ था । इस कारण लखनऊ के प्रेस से मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे , जो आज तक बने हुए हैं । इनमे से कई मित्र फेसबुक पर भी हैं और आत्मीय भी हैं । उस समय का जो अनुभव है उस से जब मैं आज मिडिया को तौलता हूँ तो आज का मिडिया सच से रू ब रु कराने और सरकार को सतर्क और सजग करने के बजाय अपुष्ट और भ्रम उत्पन्न करने वाली खबरें परोस रहा है । सभी टीवी चैनलों के ऐंकर्स की भाषा और उनका लहजा आक्रामक ही रहता है । कभी कभी तो लगता है कि लोगों की राय किसी मसले पर न ले कर खुद अपनी राय थोप रहे हैं । यह स्थिति उनके बिरादरी में व्याप्त प्रतिद्वंद्विता के कारण भी हो सकती है और खुद को देशभक्त दिखाने की होड़ भी और मीडिया का मिशन से लाभ के धंधे में परिवर्तित होना भी एक कारण हो सकता है ।

हम एक और बीमारी से गुज़र रहे हैं । वह बीमारी है हर दम सीना चीर कर देशभक्ति दिखाने की बीमारी । जब से यह सरकार आयी है, तब से यह बीमारी अधिक बढ़ गयी है । देशभक्ति , कोई मर्ज़ नहीं है यह एक उदात्त भाव है और कर्तव्य तथा दायित्व है । पर देशभक्ति की मुनादी बार बार पीट कर खुद को देशभक्त जताना भी एक प्रकार की ग्रंथि है । एक बीमार मानसिकता है । यह एक प्रकार के अपराध बोध की अभिव्यक्ति और हीन ग्रंथि का प्रदर्शन भी है । आप की देशभक्ति पर संदेह कौन कर रहा है जो आप उसका प्रमाण पत्र ले कर घूम रहे हैं ? लेकिन कहीं न कहीं ऐसे लोगों के अवचेतन में देश के प्रति कभी समय पर देश के साथ खड़े न होने का अपराध बोध छलछला जाता है, जिस से वे खुद को देशभक्त बताने और दिखाने की होड़ में लग जाते हैं । ऐसे दर्शकों को , भोंपू और प्रोपेगंडा टाइप खबरें और चैनेल अधिक पसंद आते हैं । स्थिति यह हो गयी है कि इस लिहो लिहो के साथ जो नहीं है और जो थोडा रुक कर कुछ पुष्टि करने की बात कर रहा है , या जो अपने विचार स्वातंत्र्य से इनसे विपरीत विचार रख कर बोल रहा है वह देशद्रोही है । क्यों कि वह देश , सत्ताधारी दल और मोदी सरकार के साथ नहीं खड़ा है । देश जब एक व्यक्ति में सिमटता है तो वह अमर्त्य नहीं रह पाता है ।

यह गैर जिम्मेदारी भरा रवैय्या टीवी चैनेल्स पर तो है ही सोशल मीडिया पर भी छा रहा है । अक्सर आप जब किसी महत्वपूर्ण पुल, बाँध या सुरक्षा के दृष्टिकोण से संवेदनशील स्थान पर भ्रमण के लिए जाते हैं तो वहाँ एक बोर्ड लगा होता है, जिस पर लिखा होता है कि यहां फोटोग्राफी करना मना है । पहले रील वाली फ़िल्म चलती थी । डर रहता था किसी ने चेक किया तो उसकी रील निकाल कर फेंक देगा । लोग इस डर से फ़ोटो नहीं खींचते थे । पर अब जब से स्मार्ट फोन और अत्यंत आधुनिक किस्म के कैमरे आ गए हैं तो इन सब बोर्ड्स और चेतावनी का बहुत मतलब नहीं रह गया है । फिर भी सैनिक प्रतिष्ठान, आयुध भांडार आदि स्थानों पर जाना और वहाँ फ़ोटो खींचना भी मना है । न्यूज़ चैनलों की जल्दी से जल्दी ब्रेकिंग न्यूज़ खबरों की तह तक  पहुंचाने की प्रतिद्वन्द्विता ने गोपन और अगोपन का भेद मिटा दिया है । गूगल अर्थ जब आया था तो आप अपने कमरे में बैठ कर दुनिया भर के किसी भी शहर की गलियाँ देख सकते थे । आप उस से संसद भवन और राष्ट्रपति भवन के परिसर में ऊपर से झाँक सकते थे । बाद में इसे सुरक्षा का खतरा मान कर संवेदनशील इमारतों को कैमोफ्लाज कर दिया गया । इसी प्रकार कुछ चैनेल सैन्य इमारतें , उनके ठिकाने आदि इस विस्तार से दिखाते हैं कि उनके दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है । एक चैनेल ने सेना के कैंप का अत्यंत से विस्तार से फ़ोटो दिखा कर उसका वर्णन किया । सरकार को ऐसे फ़ोटो निषेध स्थानों की फोटोग्राफी पर कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए । यहां तक कि गूगल से भी बात कर के ऐसे चित्रों को ब्लर या धुंधला कर दिया जाना चाहिए ।

आखिर इन सब दिखाने से देश का भला क्या हो रहा है ? एक तर्क यह दिया जा सकता है कि जनता में सरकार और सेना के प्रति भरोसा बढ़ेगा । भरोसा आवश्यक है पर भरोसा बढ़ेगा या नहीं, यह तो नहीं मालुम पर उस प्रतिष्ठान की गोपनीयता भंग होने का खतरा ज़रूर बढ़ जाता है । मिडिया को ऐसे समय में संयम, धैर्य और आपसी प्रतिद्वंद्विता का भाव छोड़ कर उन्माद और हास्यास्पद नाटकीयता से बचना चाहिए ।

© विजय शंकर सिंह

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