मुगलों ने सल्तनत बख्श दी
( भगवतीचरण वर्मा )
हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्य है, दुर्भाग्य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्चय समझ लें कि आपका संसार के एक बहुत बड़े विद्वान से परिचय हो गया। हीरोजी को जाननेवालों में अधिकांश का मत है कि हीरोजी पहले जन्म में विक्रमादित्य के नव-रत्नों में एक अवश्य रहे होंगे और अपने किसी पाप के कारण उनको इस जन्म में हीरोजी की योनि प्राप्त हुई। अगर हीरोजी का आपसे परिचय हो जाय, तो आप यह समझ लीजिए कि उन्हें एक मनुष्य अधिक मिल गया, जो उन्हें अपने शौक में प्रसन्नतापूर्वक एक हिस्सा दे सके।
हीरोजी ने दुनिया देखी है। यहाँ यह जान लेना ठीक होगा कि हीरोजी की दुनिया मौज और मस्ती की ही बनी है। शराबियों के साथ बैठकर उन्होंने शराब पीने की बाजी लगाई है और हरदम जीते हैं। अफीम के आदी हैं; पर अगर मिल जाय तो इतनी खा लेते हैं, जितनी से एक खानदान का खानदान स्वर्ग की या नरक की यात्रा कर सके। भंग पीते हैं तब तक, जब तक उनका पेट न भर जाय। चरस और गाँजे के लोभ में साधु बनते-बनते बच गए। एक बार एक आदमी ने उन्हें संखिया खिला दी थी, इस आशा से कि संसार एक पापी के भार से मुक्त हो जाय; पर दूसरे ही दिन हीरोजी उसके यहाँ पहुँचे। हँसते हुए उन्होंने कहा - यार, कल का नशा नशा था। रामदुहाई, अगर आज भी वह नशा करवा देते, तो तुम्हें आशीर्वाद देता। लेकिन उस आदमी के पास संखिया मौजूद न थी।
हीरोजी के दर्शन प्राय: चाय की दुकान पर हुआ करते हैं। जो पहुँचता है, वह हीरोजी को एक प्याला चाय का अवश्य पिलाता है। उस दिन जब हम लोग चाय पीने पहुँचे, तो हीरोजी एक कोने में आँखें बंद किए हुए बैठे कुछ सोच रहे थे। हम लोगों में बातें शुरू हो गईं, और हरिजन-आंदोलन से घूमते-फिरते बात आ पहुँची दानवराज बलि पर। पंडित गोवर्धन शास्त्री ने आमलेट का टुकड़ा मुँह में डालते हुए कहा - "भाई, यह तो कलियुग है। न किसी में दीन है, न ईमान। कौड़ी-कौड़ी पर लोग बेईमानी करने लग गए हैं। अरे, अब तो लिख कर भी लोग मुकर जाते हैं। एक युग था, जब दानव तक अपने वचन निभाते थे, सुरों और नरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। दानवराज बलि ने वचनबद्ध हो कर सारी पृथ्वी दान कर दी थी। पृथ्वी ही काहे को, स्वयं अपने को भी दान कर दिया था।"
हीरोजी चौंक उठे। खाँस कर उन्होंने कहा - "क्या बात है? जरा फिर से तो कहना!"
सब लोग हीरोजी की ओर घूम पड़े। कोई नई बात सुनने को मिलेगी, इस आशा से मनोहर ने शास्त्रीजी के शब्दों को दोहराने का कष्ट उठाया - "हीरोजी! ये गोवर्धन शास्त्री जो हैं, सो कह रहे हैं कि कलियुग में धर्म-कर्म सब लोप हो गया। त्रेता में तो दैत्यराज बलि तक ने अपना सब कुछ केवल वचनबद्ध होकर दान दिया था।"
हीरोजी हँस पड़े - "हाँ, तो यह गोवर्धन शास्त्री कहनेवाले हुए और तुम लोग सुननेवाले, ठीक ही है। लेकिन हमसे सुनो, यह तो कह रहे हैं त्रेता की बात, अरे, तब तो अकेले बलि ने ऐसा कर दिया था; लेकिन मैं कहता हूँ कलियुग की बात। कलियुग में तो एक आदमी की कही हुई बात को उसकी सात-आठ पीढ़ी तक निभाती गई और यद्यपि वह पीढ़ी स्वयं नष्ट हो गई, लेकिन उसने अपना वचन नहीं तोड़ा।"
हम लोग आश्चर्य में पड़ गए। हीरोजी की बात समझ में नहीं आई, पूछना पड़ा - "हीरोजी, कलियुग में किसने इस प्रकार अपने वचनों का पालन किया है?"
"लौंडे हो न!" हीरोजी ने मुँह बनाते हुए कहा - "जानते हो मुगलों की सल्तनत कैसे गई?"
"हाँ, अँगरेजों ने उनसे छीन ली।"
"तभी तो कहता हूँ कि तुम सब लोग लौंडे हो। स्कूली किताबों को रट-रट कर बन गए पढ़े-लिखे आदमी। अरे, मुगलों ने अपनी सल्तनत अँगरेजों को बख्श दी।"
हीरोजी ने यह कौन-सा नया इतिहास बनाया? आँखें कुछ अधिक खुल गईं। कान खड़े हो गए। मैंने कहा - "सो कैसे?"
"अच्छा तो फिर सुनो!" हीरोजी ने आरम्भ किया - "जानते हो शाहंशाह शाहजहाँ की लड़की शाहजादी रौशनआरा एक दफे बीमार पड़ी थी, और उसे एक अँगरेज डॉक्टर ने अच्छा किया था। उस डॉक्टर को शाहंशाह शाहजहाँ ने हिन्दुस्तान में तिजारत करने के लिए कलकत्ते में कोठी बनाने की इजाजत दे दी थी।"
"हाँ, यह तो हम लोगों ने पढ़ा है।"
"लेकिन असल बात यह है कि शाहजादी रौशनआरा - वही शाहंशाह शाहजहाँ की लड़की -हाँ, वही शाहजादी रौशनआरा एक दफे जल गई। अधिक नहीं जली थी। अरे, हाथ में थोड़ा-सा जल गई थी, लेकिन जल तो गई थी और थी शाहजादी। बड़े-बड़े हकीम और वैद्य बुलाए गए। इलाज किया गया; लेकिन शाहजादी को कोई अच्छा न कर सका - न कर सका। और शाहजादी को भला अच्छा कौन कर सकता था? वह शाहजादी थी न! सब लोग लगाते थे लेप, और लेप लगाने से होती थी जलन। और तुरन्त शाहजादी ने धुलवा डाला उस लेप को। भला शाहजादी को रोकनेवाला कौन था। अब शाहंशाह सलामत को फिक्र हुई! लेकिन शाहजादी अच्छी हो तो कैसे? वहाँ तो दवा असर करने ही न पाती थी।
"उन्हीं दिनों एक अँगरेज घूमता-घामता दिल्ली आया। दुनिया देखे हुए, घाट-घाट का पानी पिए हुए पूरा चालाक और मक्कार! उसको शाहजादी की बीमारी की खबर लग गई। नौकरों को घूस देकर उसने पूरा हाल दरियाफ्त किया। उसे मालूम हो गया कि शाहजादी जलन की वजह से दवा धुलवा डाला करती है। सीधे शाहंशाह सलामत के पास पहुँचा। कहा कि डॉक्टर हूँ। शाहजादी का इलाज उसने अपने हाथ में ले लिया। उसने शाहजादी के हाथ में एक दवा लगाई। उस दवा से जलन होना तो दूर रहा, उलटे जले हुए हाथ में ठंडक पहुँची। अब भला शाहजादी उस दवा को क्यों धुलवाती। हाथ अच्छा हो गया। जानते हो वह दवा क्या थी?" हम लोगों की ओर भेद भरी दृष्टि डालते हुए हीरोजी ने पूछा।
"भाई, हम दवा क्या जानें?" कृष्णानन्द ने कहा।
"तभी तो कहते हैं कि इतना पढ़-लिख कर भी तुम्हें तमीज न आई। अरे वह दवा थी वेसलीन - वही वेसलीन, जिसका आज घर-घर में प्रचार है।"
"वेसलीन! लेकिन वेसलीन तो दवा नहीं होती," मनोहर ने कहा।
हीरोजी सँभल कर बैठ गए। फिर बोले - "कौन कहता है कि वेसलीन दवा होती है? अरे, उसने हाथ में लगा दी वेसलीन और घाव आप-ही-आप अच्छा हो गया। वह अँगरेज बन बैठा डॉक्टर - और उसका नाम हो गया। शाहंशाह शाहजहाँ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस फिरंगी डॉक्टर से कहा - ''माँगो।" उस फिरंगी ने कहा - ''हुजूर, मैं इस दवा को हिन्दुस्तान में रायज करना चाहता हूँ, इसलिए हुजूर, मुझे हिन्दुस्तान में तिजारत करने की इजाजत दे दें।" बादशाह सलामत ने जब यह सुना कि डॉक्टर हिंदुस्तान में इस दवा का प्रचार करना चाहता है, तो बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा - ''मंजूर! और कुछ माँगो।" तब उस चालाक डॉक्टर ने जानते हो क्या माँगा? उसने कहा - ''हुजूर, मैं एक तंबू तानना चाहता हूँ, जिसके नीचे इस दवा के पीपे इकट्ठे किए जावेंगे। जहाँपनाह यह फरमा दें कि उस तंबू के नीचे जितनी जमीन आवेगी, वह जहाँपनाह ने फिरंगियों को बख्श दी।" शाहंशाह शाहजहाँ थे सीधे-सादे आदमी, उन्होंने सोचा, तंबू के नीचे भला कितनी जगह आवेगी। उन्होंने कह दिया - ''मंजूर।"
"हाँ तो शाहंशाह शाहजहाँ थे सीधे-सादे आदमी, छल-कपट उन्हें आता न था। और वह अँगरेज था दुनिया देखे हुए। सात समुद्र पार करके हिंदुस्तान आया था! पहुँचा विलायत, वहाँ उसने बनवाया रबड़ का एक बहुत बड़ा तंबू और जहाज पर तंबू लदवा कर चल दिया हिंदुस्तान। कलकत्ते में, उसने वह तंबू लगवा दिया। वह तंबू कितना ऊँचा था, इसका अंदाज आप नहीं लगा सकते। उस तंबू का रंग नीला था। तो जनाब, वह तंबू लगा कलकत्ते में, और विलायत से पीपे-पर-पीपे लद-लदकर आने लगे। उन पीपों में वेसलीन की जगह भरा था एक-एक अँगरेज जवान, मय बंदूक और तलवार के। सब पीपे तंबू के नीचे रखवा दिए गए। जैसे-जैसे पीपे जमीन घेरने लगे, वैसे-वैसे तंबू को बढ़ा-बढ़ा कर जमीन घेर दी गई। तंबू तो रबड़ का था न, जितना बढ़ाया, बढ़ गया। अब जनाब, तंबू पहुँचा प्लासी। तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्लासी का युद्ध हुआ था। अरे सब झूठ है। असल में तंबू बढ़ते-बढ़ते प्लासी पहुँचा था, और उस वक्त मुगल बादशाह का हरकारा दौड़ा था दिल्ली। बस यह कह दिया गया कि प्लासी की लड़ाई हुई। जी हाँ, उस वक्त दिल्ली में शाहंशाह शाहजहाँ की तीसरी या चौथी पीढ़ी सल्तनत कर रही थी। हरकारा जब दिल्ली पहुँचा, उस वक्त बादशाह सलामत की सवारी निकल रही थी। हरकारा घबराया हुआ था। वह इन फिरंगियों की चालों से हैरान था। उसने मौका देखा न महल, वहीं सड़क पर खड़े होकर उसने चिल्ला कर कहा - ''जहाँपनाह, गजब हो गया। ये बदतमीज फिरंगी अपना तंबू प्लासी तक खींच लाए हैं, और चूँकि कलकत्ते से प्लासी तक की जमीन तंबू के नीचे आ गई है, इसलिए इन फिरंगियों ने उस जमीन पर कब्जा कर लिया है। जो इनको मना किया तो इन बदतमीजों ने शाही फरमान दिखा दिया।'' बादशाह सलामत की सवारी रुक गई थी। उन्हें बुरा लगा। उन्होंने हरकारे से कहा - "म्याँ हरकारे, मैं कर ही क्या सकता हूँ। जहाँ तक फिरंगियों का तंबू घिर जाय, वहाँ तक की जगह उनकी हो गई, हमारे बुजुर्ग यह कह गए हैं।'' बेचारा हरकारा अपना-सा मुँह ले कर वापस आ गया।
"हरकारा लौटा और इन फिरंगियों का तंबू बढ़ा। अभी तक तो आते थे पीपों में आदमी, अब आने लगा तरह-तरह का सामान। हिंदुस्तान का व्यापार फिरंगियों ने अपने हाथ में ले लिया। तंबू बढ़ता ही रहा और पहुँच गया बक्सर। इधर तंबू बढ़ा और उधर लोगों की घबराहट बढ़ी। यह जो किताबों में लिखा है कि बक्सर की लड़ाई हुई, यह गलत है भाई। जब तंबू बक्सर पहुँचा, तो फिर हरकारा दौड़ा।
"अब जरा बादशाह सलामत की बात सुनिए। वह जनाब दीवान खास में तशरीफ रख रहे थे। उनके सामने सैकड़ों, बल्कि हजारों मुसाहब बैठे थे। बादशाह सलामत हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे -सामने एक साहब जो शायद शायर थे, कुछ गा-गा कर पढ़ रहे थे और कुछ मुसाहब गला फाड़-फाड़ कर ''वाह-वाह' चिल्ला रहे थे। कुछ लोग तीतर और बटेर लड़ा रहे थे। हरकारा जो पहुँचा तो यह सब बंद हो गया। बादशाह सलामत ने पूछा - "म्याँ हरकारे, क्या हुआ - इतने घबराए हुए क्यों हो?" हाँफते हुए हरकारे ने कहा - "जहाँपनाह, इन बदजात फिरंगियों ने अंधेर मचा रखा है। वह अपना तंबू बक्सर खींच लाए।" बादशाह सलामत को बड़ा ताज्जुब हुआ। उन्होंने अपने मुसाहबों से पूछा - "म्याँ, हरकारा कहता है कि फिरंगी अपना तंबू कलकत्ते से बक्सर तक खींच लाए। यह कैसे मुमकिन है?" इस पर एक मुसाहब ने कहा - "जहाँपनाह, ये फिरंगी जादू जानते हैं, जादू !" दूसरे ने कहा - "जहाँपनाह, इन फिरंगियों ने जिन्नात पाल रखे हैं - जिन्नात सब कुछ कर सकते हैं।" बादशाह सलामत की समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने हरकारे से कहा - "म्याँ हरकारे, तुम बतलाओ यह तंबू किस तरह बढ़ आया।" हरकारे ने समझाया कि तंबू रबड़ का है। इस पर बादशाह सलामत बड़े खुश हुए। उन्होने कहा - "ये फिरंगी भी बड़े चालाक हैं, पूरे अकल के पुतले हैं।" इस पर सब मुसाहबों ने एक स्वर में कहा - "इसमें क्या शक है, जहाँपनाह बजा फरमाते हैं।" बादशाह सलामत मुस्कुराए - "अरे भाई, किसी चोबदार को भेजो, जो इन फिरंगियों के सरदार को बुला लावे। मैं उसे खिलअत दूँगा।" सब मुसाहब कह उठे - ''वल्लाह! जहाँपनाह एक ही दरियादिल हैं - इस फिरंगी सरदार को जरूर खिलअत देनी चाहिए।" हरकारा घबराया। वह आया था शिकायत करने, यहाँ बादशाह सलामत फिरंगी सरदार को खिलअत देने पर आमादा थे। वह चिल्ला उठा - "जहाँपनाह! इन फिरंगियों ने जहाँपनाह की सल्तनत का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने तंबू के नीचे करके उस पर कब्जा कर लिया है। जहाँपनाह, ये फिरंगी जहाँपनाह की सल्तनत छीनने पर आमादा दिखाई देते हैं।" मुसाहब चिल्ला उठे - "ऐ, ऐसा गजब।" बादशाह सलामत की मुस्कुराहट गायब हो गई। थोड़ी देर तक सोच कर उन्होंने कहा - "मैं क्या कर सकता हूँ? हमारे बुजुर्ग इन फिरंगियों को उतनी जगह दे गए हैं, जितनी तंबू के नीचे आ सके। भला मैं उसमें कर ही क्या सकता हूँ। हाँ, फिरंगी सरदार को खिलअत न दूँगा।" इतना कह कर बादशाह सलामत फिरंगियों की चालाकी अपनी बेगमात से बतलाने के लिए हरम में अंदर चले गए। हरकारा बेचारा चुपचाप लौट आया।
"जनाब! उस तंबू ने बढ़ना जारी रखा। एक दिन क्या देखते हैं कि विश्वनाथपुरी काशी के ऊपर वह तंबू तन गया। अब तो लोगों में भगदड़ मच गई। उन दिनों राजा चेतसिंह बनारस की देखभाल करते थे। उन्होंने उसी वक्त बादशाह सलामत के पास हरकारा दौड़ाया। वह दीवान खास में हाजिर किया गया। हरकारे ने बादशाह सलामत से अर्ज की कि वह तंबू बनारस पहुँच गया है और तेजी के साथ दिल्ली की तरफ आ रहा है। बादशाह सलामत चौंक उठे। उन्होंने हरकारे से कहा - "तो म्याँ हरकारे, तुम्हीं बतलाओ, क्या किया जाय?" वहाँ बैठे हुए दो-एक उमराओं ने कहा - "जहाँपनाह, एक बड़ी फौज भेज कर इन फिरंगियों का तंबू छोटा करवा दिया जाय और कलकत्ते भेज दिया जाय। हम लोग जा कर लड़ने को तैयार हैं। जहाँपनाह का हुक्म भर हो जाय। इस तंबू की क्या हकीकत है, एक मर्तबा आसमान को भी छोटा कर दें।" बादशाह सलामत ने कुछ सोचा, फिर उन्होंने कहा - "क्या बतलाऊँ, हमारे बुजुर्ग शाहंशाह शाहजहाँ इन फिरंगियों को तंबू के नीचे जितनी जगह आ जाय, वह बख्श गए हैं। बख्शीशनामा की रूह से हम लोग कुछ नहीं कर सकते। आप जानते हैं, हम लोग अमीर तैमूर की औलाद हैं। एक दफा जो जबान दे दी वह दे दी। तंबू का छोटा कराना तो गैरमुमकिन है। हाँ, कोई ऐसी हिकमत निकाली जाय, जिससे फिरंगी अपना तंबू आगे न बढ़ा सकें। इसके लिए दरबार आम किया जाय और यह मसला वहाँ पेश हो।"
"इधर दिल्ली में तो यह बातचीत हो रही थी और उधर इन फिरंगियों का तंबू इलाहाबाद, इटावा ढकता हुआ आगरे पहुँचा। दूसरा हरकारा दौड़ा। उसने कहा - "जहाँपनाह, वह तंबू आगरे तक बढ़ आया है। अगर अब भी कुछ नहीं किया जाता, तो ये फिरंगी दिल्ली पर भी अपना तंबू तान कर कब्जा कर लेंगे।" बादशाह सलामत घबराए - दरबार आम किया गया। सब अमीर-उमरा इक्ट्ठा हो गए तो बादशाह सलामत ने कहा - "आज हमारे सामने एक अहम मसला पेश है। आप लोग जानते हैं कि हमारे बुजुर्ग शाहंशाह शाहजहाँ ने फिरंगियों को इतनी जमीन बख्श दी थी, जितनी उनके तंबू के नीचे आ सके। इन्होंने अपना तंबू कलकत्ते में लगवाया था; लेकिन वह तंबू है रबड़ का, और धीरे-धीरे ये लोग तंबू आगरे तक खींच लाए। हमारे बुजुर्गों से जब यह कहा गया, तब उन्होंने कुछ करना मुनासिब न समझा; क्योंकि शाहंशाह शाहजहाँ अपना कौल हार चुके हैं। हम लोग अमीर तैमूर की औलाद हैं और अपने कौल के पक्के हैं। अब आप लोग बतलाइए, क्या किया जाए।" अमीरों और मंसबदारों ने कहा - "हमें इन फिरंगियों से लड़ना चाहिए और इनको सजा देनी चाहिए। इनका तंबू छोटा करवा कर कलकत्ते भिजवा देना चाहिए।" बादशाह सलामत ने कहा - "लेकिन हम अमीर तैमूर की औलाद हैं। हमारा कौल टूटता है।" इसी समय तीसरा हरकारा हाँफता हुआ बिना इत्तला कराए ही दरबार में घुस आया। उसने कहा - "जहाँपनाह, वह तंबू दिल्ली पहुँच गया। वह देखिए, किले तक आ पहुँचा।" सब लोगों ने देखा। वास्तव में हजारों गोरे खाकी वर्दी पहने और हथियारों से लैस, बाजा बजाते हुए तंबू को किले की तरफ खींचते हुए आ रहे थे। उस वक्त बादशाह सलामत उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा - "हमने तय कर लिया। हम अमीर तैमूर की औलाद हैं। हमारे बुजुर्गों ने जो कुछ कह दिया, वही होगा। उन्होंने तंबू के नीचे की जगह फिरंगियों को बख्श दी थी। अब अगर दिल्ली भी उस तंबू के नीचे आ रही है, तो आवे! मुगल सल्तनत जाती है, तो जाय, लेकिन दुनिया यह देख ले कि अमीर तैमूर की औलाद हमेशा अपने कौल की पक्की रही है," - इतना कह कर बादशाह सलामत मय अपने अमीर-उमरावों के दिल्ली के बाहर हो गए और दिल्ली पर अँगरेजों का कब्जा हो गया। अब आप लोग देख सकते हैं, इस कलियुग में भी मुगलों ने अपनी सल्तनत बख्श दी।"
हम सब लोग थोड़ी देर तक चुप रहे। इसके बाद मैंने कहा - "हीरोजी, एक प्याला चाय और पियो।"
हीरोजी बोल उठे - "इतनी अच्छी कहानी सुनाने के बाद भी एक प्याला चाय? अरे, महुवे के ठर्रे का एक अद्धा तो हो जाता।"
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भगवती चरण वर्मा.
चित्रलेखा उपन्यास आप को याद है ? अच्छा कोई बात नहीं, फ़िल्म जिस में अशोक कुमार और प्रदीप कुमार ने अभिनय किया था स्वामी का और प्रदीप कुमार ने राजा का । भगवती चरण वर्मा इस उपन्यास से लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे और उन्होंने अपने घर का ही नाम चित्रलेखा रख दिया । आज उन्ही भगवती चरण वर्मा की एक कहानी पढ़ें , मुगलों ने सल्तनत बख्श दी । भगवती चरण वर्मा, केवल चित्रलेखा के ही कारण प्रसिद्ध नहीं हुए । बल्कि अपने कालजयी उपन्यास भूले बिसरे चित्र , सबहि नचावत राम गुसाई सहित अन्य उपन्यासों और ढेर सारी कहानियों के लिए भी जाने जाते हैं । उनका जन्म 30 अगस्त 1903, उन्नाव ज़िले के शफीपुर ग्राम में और शिक्षा इलाहाबाद में हुयी थी। उन्होंने वहाँ से बी.ए. एल-एल. बी. की उपाधि ली । प्रारंभ उन्होंने कविता लेखन किया फिर वे उपन्यास लेखन की ओर मुड़ गए । १९३६ में फ़िल्म कारपोरेशन कलकत्ता में कार्य किया। विचार नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन संपादन और फिर इसके बाद बम्बई में फ़िल्म कथा लेखन तथा दैनिक नवजीवन का संपादन किया। उन्होंने आकाशवाणी के कई केन्द्रों में कार्य किया और 1957 से स्वतंत्र लेखन करने लगे थे । उनके उपन्यास 'चित्रलेखा' पर दो बार फ़िल्म निर्माण और भूले बिसरे चित्र पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से भी सम्मानित किया और वे राज्यसभा के मानद सदस्य भी रहे ।
उनका निधन 5 अक्टूबर 1981 में हुआ ।
( विजय शंकर सिंह )
प्रस्तुति के लिए धन्यवाद!
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