Wednesday, 14 September 2016

राजा बलि, वामन अवतार और केरल का महापर्व ओणम - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

आज ओणम हैं। हम उत्तर भारतीयों के लिये यह एक अनजाना पर्व हो सकता है पर केरल के लिए यह वैसा ही पर्व है जैसा पंजाब के लिए बैसाखी या बिहार के लिए छठ । यह किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष का पर्व नहीं है । यह सांझी विरासत और पूरे समाज का पर्व हैं। भारतीय संस्कृति एक पर्व प्रधान संस्कृति रही है । हर्ष और उल्लास इसका मूल भाव रहा है । इहलोक में आनंद और परलोक में परमानन्द की सतत खोज इस संस्कृति की परम्परा रही है । हर समाज , चाहे वह आटविक समाज हो, या नागर सभ्यता या ग्रामीण समाज सबके अपने अपने पर्व है । उल्लास, उमंग , हास और परिहास की अभिव्यक्ति के अपने अपने तरीके हैं । ओणम भी इसी प्रकार का पर्व हैं। नवधान्य घर में आता है । अन्नम् ब्रह्म । अन्न ब्रह्म होता है । किसान का कोठिला भरा रहे , इस से बड़ा सुख उसके जीवन में नहीं होता है । यह पर्व फसल के आगमन का भी है । पर इसके साथ एक कथा भी जुडी हुयी है । कथा , वेदों के काल को स्पर्श करती हुयी भारतीय सनातन धर्म की अवतारवाद की परम्परा को प्रमाणित करती हुयी , इस पर्व से जुडी हुयी है । साथ ही हाल ही में इस पर्व के साथ एक विवाद भी जुड़ गया है  उस अनावश्यक विवाद की चर्चा भी होगी पर पहले उन कथाओं को पढ़ें जो इस पर्व के साथ जुडी हुयी है ।

देव और असुर, या सुर या असुर के आपसी संघर्षों पर वेदों की अनेक ऋचाएं है । ऋग्वेद के सप्तम मंडल में देवासुर संग्राम का विवरण है । इंद्र देवराज हैं और उनकी स्तुति से वैदिक ऋचाएं भरी पडी हैं । देव आर्य थे और असुर अनार्य इस पर अलग अलग दृष्टिकोण है । कुछ का कहना है कि सुर आर्य थे और असुर अनार्य सभ्यता के थे । यह दो सभ्यताओं का संघर्ष रहा है । इस संघर्ष में बल छल सब का यथा स्थान और यथासंभव प्रयोग हुआ । आर्य इस संघर्ष में विजयी हुए और अनार्यों ने आर्य संस्कृति को अपना लिया फिर भी असुर या अनार्य संस्कृति की जड़ें गहरी थीं  जो आज भी बची हुयी हैं । सब कुछ अपनाने के बाद भी वे कहीं न कहीं शेष रह गयीं । उन्ही असुरों में एक राजा थे राजा बलि । उन्हें महाबली भी कहा जाता है । महा बलि हिरण्यकश्यप के प्रपौत्र और प्रह्लाद के पौत्र थे । यह वही प्रह्लाद हैं जिनको इनके पिता हिरण्यकश्यप ने , विष्णु की पूजा करने के कारण , अपनी बहन होलिका के गोद में बैठा कर, जला कर मारने का प्रयास किया था, पर अप्रज्वलित होने के आशीर्वाद से कीलित होने के बाद भी , होलिका तो जल गयी पर प्रह्लाद जीवित बच गए । फिर प्रहलाद को हिरण्यकश्यप ने एक खम्भे से बाँध दिया और चुनौती दी कि विष्णु को बुलाओ कि वह आ कर तुम्हे बचाये , तभी विष्णु का नृसिंहावतार हुआ और जिसने हिरण्यकश्यप का बध कर दिया । यह कथा भी सुर असुर संघर्ष की ही एक गाथा है ।

महा बलि इन्ही प्रह्लाद के पौत्र थे । पुरा कथाओं के अनुसार माह बलि ने तीनों लोकों को जीत लिया था । असुर साम्राज्य का यह शिखर काल था । सुर , इनसे युद्ध में जीत नहीं पा रहे थे । असुरों के गुरु शुक्राचार्य के सक्षम गुरुत्व में बलि की कीर्ति बढ़ती जा रही थी । उन्हें युद्ध में पराजित नहीं किया जा सकता है, यह देवगण जान गए थे । उन्होंने विष्णु से इस असुर प्रभुत्व से निपटने के लिए प्रार्थना की । यहॉँ एक अन्य कथा आती है । ऋषि कश्यप के दो पत्नियां थीं, दिति और अदिति । दिति से जो वंश चला वह असुर कहलाया और अदिति की संतति सुर कहलायी । कश्यप ऋषि ने ही अदिति को सुझाव दिया कि, वह विष्णु की आराधना करे और उनसे यह वर मांगे कि वह सुरों को असुर राजा बलि से मुक्ति दिलाएं । विष्णु ने इस आराधना पर प्रसन्न हो कर, अदिति को वचन दिया कि वह देव संतति की सहायता करेंगे । एक और कथा जुड़ती है इस से । इस क्षेपक के अनुसार, राजा बलि को अपने ऐश्वर्य और समृद्धि का अहंकार हो गया था और वे समस्त पृथ्वी पर स्वयं को अजेय समझने लगे थे । वे दान देने लगे और कोई भी याचक उनके दरबार से रिक्त हस्त नहीं जाता था । उधर विष्णु ने अदिति के गर्भ से जन्म लिया और वे वामन अवतार के रूप में जाने गए । शुक्राचार्य के परामर्श के अनुसार राजा बलि ने, नर्मदा के तट पर भृगुचम नामक स्थान पर अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और उन्होंने यह यज्ञ देवलोक के राजा इंद्र को पराजित करने के उद्देश्य से किया । उसी यज्ञ के बाद बलि ने घोषणा और प्रतिज्ञा की कि, अब वे जो भी कोई याचक मांगेगा, देंगे और कोई भी याचक उनके द्वार से रिक्त हस्त वापस नहीं जाएगा । विष्णु ने वामन रूप धरा और याचक के रूप में उनके दरबार में पहुंचे । वामन का रहस्य बलि को ज्ञात नहीं था । वामन ने कहा ,
" मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । बस मैं अपने कदम से तीन कदम नाप  कर भूमि लेना चाहूँगा महा बलि । '"
शुक्राचार्य यह रहस्य समझ गये थे । उन्होंने बलि से कहा कि
" यह सामान्य याचक नहीं हैं बल्कि विष्णु ही हैं । यह छल से तुम्हे जीतने आये हैं । उन्हें दान में याचित भूमि देने की आवश्यकता नहीं है । "
बलि ने कहा,
" जो मैंने दान में देने का संकल्प किया है वह अटल है । यह ब्राह्मण वामन जो भी मांगेगे वह उन्हें प्रसन्नता से दूंगा । मैं बचन भंग का दोषी नहीं बनूँगा । "
शुक्राचार्य के बहुत समझाने पर भी बलि नहीं माने और उन्होंने आगे कहा,
" हर व्यक्ति की जैसे दो आँखें होती हैं वैसे ही प्राण और मान भी ,जीवन के दो आधार होते हैं । अगर इनमें से प्राण चला भी जाय तो मान को तो बचाना ही चाहिए । प्राण को तो जाना ही है । इस संसार में अमर कोई भी नहीं है । पर मान तो शाश्वत है । मैं तो सौभाग्यशाली हूँ कि स्वयं विष्णु मेरे समक्ष याचक भाव से आये हैं । उनकी याचना पूरी कर के मुझे परम आनंद की प्राप्ति होगी । "
इतना कह कर उन्होंने अपने गुरु की सलाह न माने जाने पर असमर्थता व्यक्त करते हुए अपने गुरु शुक्राचार्य से क्षमा मांगी । फिर उन्होंने वामन से तीन कदम चलने और भूमि लेने का आग्रह किया । विष्णु ने एक कदम से स्वर्ग और दूसरे कदम से भूतल को नाप लिया और बलि के कहने पर तीसरा कदम उनके सिर पर रख दिया । विष्णु ने बलि का सारा साम्राज्य ले लिया । यह दानवीरता के संकल्प की पराकाष्ठा थी या विष्णु का छल या उनकी कृपा, इस पर हम सब अलग अलग तरह से ही विमर्श कर सकते हैं । विष्णु ने बलि को सुतल नामक पाताल में भेज दिया । सुर एक साम्राज्य और जीत गए । विष्णु का कदम जहां पड़ा, कहते हैं वहाँ जो गाँव है, उसका नाम है, थ्रिक्कक्करा है । जिसका शाब्दिक अर्थ पवित्र चरण है । वहाँ आज भी मंदिर है और वहाँ इस अवसर पर ओणम का मुख्य उत्सव भी मनाया जाता है । निर्वासित राजा बलि ओणम के अवसर पर अपनी पूर्व प्रजा जिनमे वे बहुत ही लोकप्रिय भी थे , का कुशल क्षेम लेने इसी अवसर पर आते हैं । ओणम इसी लिए केरल में मनाया जाता है और यह केरल का महापर्व है ।

इसके अतिरिक्त एक और कथा ओणम के बारे में मिलती है । वह कथा परशुराम से सम्बंधित है । कहा जाता है परशुराम ने अपना परशु फेंक कर केरल की भूमि को सागर से मुक्त कराया था और जिस दिन यह भूमि मुक्त हुयी उसी दिन यह पर्व मनाया जाता है । पर परशुराम की यह कथा उतनी प्रचलित नहीं है जितनी बलि और वामन अवतार की कथा है ।

महा बलि न केवल एक प्रतापी राजा थे बल्कि वह द्रविड़ सभ्यता के पुरोधा भी थे । इनके काल में जनता बहुत समृद्ध और खुश हाल थी   वह लोकप्रिय भी थे । इसी कारण सुर उनसे चिढ़ते रहते थे । विष्णु के ब्राह्मण वामन अवतार द्वारा दान में भूमि लेने को आर्यों का छल भी द्रविड़ सभ्यता में माना जाता है । आज भी ओणम के अवसर पर तटीय मालाबार के इलाके में ओणम के चार दिवसीय उत्सव में बलि की प्रशंसा में ढेरों गीत और स्वांग किये जाते हैं । वामन अवतार की कथा में बलि का ही चरित्र उभर कर सामने आता है । युध्द में जो अपराजेय रहा उसे देवताओं ने छल और छद्म से जीत लिया । देवासुर संग्राम में छल बल के अनेक आख्यान पुरा वांग्मय में भरे पड़े हैं । यह भी उनमे से एक है ।

पेरियार ईवी स्वामी नायकर के समय द्रविड़ आंदोलन बहुत ज़ोरों से चला था । था तो यह दलितोत्थान के सम्बन्ध में पर इसकी जड़ में आर्य सभ्यता और ब्राह्मणवाद का विरोध ही था । एक समय तो यह आंदोलन इतना लोकप्रिय था कि अलग द्रविड़ राज्य की मांग भी उठने लगी थी । पर उस आंदोलन का असर केरल में उतना नहीं था जितना तमिलनाडु में हुआ था । उस समय 1940 में,  स्वामी धर्म तीर्थ ने एक पुस्तक लिखी थी The History of Hindu Imperialism . हिन्दू साम्राज्यवाद का इतिहास । इस पुस्तक मैं यह लिखा गया कि राजा बलि की दानवीरता के गुण की उपेक्षा कर के वामन अवतार को कैसे महत्वपूर्ण बताया गया और बलि की धरती पर ही बलि के आगमन के उत्सव को कैसे वामनावतार के आगमन से जोड़ा गया । अब यही विवाद केरल में आरएसएस ने पैदा किया है । आरएसएस के लोगों का कहना है कि ओणम विष्णु के अवतार वामन के आगमन के उपलक्ष्य में आयोजित होता है जब कि वहाँ के अब्राह्मण समुदाय का मानना है कि राजा बलि अपनी प्रजा का कुशल क्षेम लेने के लिए इस इस अवसर पर आते हैं , अतः बलि के आगमन के अवसर पर यह पर्व मनाया जाता है । वामन बन के विष्णु ने तो छल से बलि के राज्य का अधिग्रहण कर लिया था ।

दुर्भाग्य से पहली बार राजनितिक दखलंदाज़ी से केरल का यह महापर्व ओणम, विवाद से घिरता हुआ दिख रहा है । अब इस त्योहार के माध्यम से केरल में बलि बनाम वामन की पटकथा लिखी जा रही है । कुछ इसे वामन अवतार के उद्भव के रूप में वामन को महिमामंडित कर आर्य और ब्राह्मण संस्कृति के उदय के रूप में मना रहे हैं तो अधिकांश मलयाली समाज इसे राजा बलि की याद में मनाता है । राजा बलि ने वर्ग और वर्ण विहीन समाज की स्थापना की थी जो आर्य सभ्यता के आने के बाद समाप्त हो गयी ।  इस पर्व के साथ विवाद यूँ जुड़ा कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस पर्व को वामन जयंती के रुप में मनाये जाने की शुभकामनाएं केरलवासियों को दी । जब कि वामन का जन्म या अवतार इस अवसर पर नहीं हुआ था । अतः धार्मिक आख्यान के अनुसार भी शुभकामना में वामन जयंती का उल्लेख करना तथ्यपूर्ण नहीं है । मूलतः यह नयी फसल के आने का उत्सव और महान असुर राज महाबलि के प्रति केरल की जनता का प्यार और समर्पण है । अतः बलि और वामन का यह विवाद अनावश्यक है । समाज उत्सव के रूप में आनंद को अभिव्यक्त करता हैं । समाज जब उसे स्वार्थ और राजनीतिक कारणों से बंट कर मनाने लगता है तो, वह उत्सव,  उत्सव के आनन्द भाव से दूर हो जाता है । केरल में यह सामाजिक समरसता का पर्व अब राजनीतिक अखाड़े में बदल रहा है । यह उचित नहीं है और दुःखद है ।

( विजय शंकर सिंह )

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