वो कुछ वादे थे,
कुछ तुम्हारे इरादे थे,
बेहद आत्मविश्वास के साथ,
पूरे मुल्क में घूम घूम कर,
कहा था तुमने ।
हम भी थोडा ऊबे हुए थे,
तुम भी उघाड़ उघाड़ कर,
उनकी असलियत बयाँ कर रहे थे,
निज़ात हम भी उनसे पाना चाहते थे ।
तुम थोडा साफ़ दिखे,
तुम्हारे इरादे भी नेक लगे,
वादों ने भी मन मोहा,
मशविरा भी लोगों ने दिया ।
वर्तमान वैसे भी सदैव,
छली ही दीखता है,
दूर क्षितिज पर,
कुछ उजास भी झाँक रहा था,
बयार भी सुखद थी ।
वक़्त के करवट बदलने की आहट,
कहीं कहीं सुनाई दे रही थी,
और उस बज़्म में,
तुम्ही सुन्दर और अवतारी लगे
बस तुम्हे ही कन्धे पर बिठा लिया हमने !
भीड़ और मुसीबत में ,
जब नहीं सूझती हैं राहें,
हज़ार बातें आती हैं दिमाग में,
छल भी तो मूर्तिमान हो जाता है ?
छली भी तो भरोसा जीत जाते हैं ।
अब एक बात सुनों ,
उन वादों को टटोलो ज़रा,
जो उम्मीदें जगा दी थी तुमने,
उन उम्मीदों की फेहरिस्त भी देखना
जब बैठना अपने ख्वाबगाह में,
और जब सारे दर, दरीचे बन्द हों
खो कर खुद में , पूछना खुद से ।
उन अक्षरों का क्या हुआ,
उन शब्दों का क्या हुआ,
उन वाक्यों का क्या हुआ,
उन वादों का क्या हुआ,
और सुनो,
उन इरादों का क्या हुआ,
जिन पर तैरते हुए,
उस बढ़ियाई गंगा को पार कर,
यहां तक पहुंचे हो तुम !!
© विजय शंकर सिंह
21 / 09 / 2016
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