क्या सोच रहे हो बैठे आज,
जीवन तो निर्झर जैसा है,
तेज कभी, जो बहने लगता,
और कभी , शुष्क हो कर
हिम जैसा जम जाता है.
क्या सोच रहे हो बैठे आज.
पवन, हिलोर हैं विचार के
मन में आते जाते रहते,
कुछ ही आह्लादित कर पाते हैं
शेष तो बस चिंतित कर जाते ।
क्या सोच रहे हो बैठे आज,
जीवन तो जीना ही है,
अमृत हो या हो हलाहल,
साँसों तक तो पीना ही है,
फिर क्यों न जियें हम हँसते हँसते,
क्या सोच रहे हो बैठे आज,
आओ अब कुछ बात करो,
अवसाद जो फैला, दूर करो,
देखो अब्र, भरा जीवन से,
हर क्षण मोहित कर जाता है.
क्या सोच रहे हो बैठे आज,
जीवन कोई संघर्ष नहीं है,
नहीं है यह कोई युद्ध प्रिये,
यह तो केवल इक मग है,
कभी कठिन और कभी सरल ।
पर चलना तो इस पर ही है,
तो क्यों न चलें हम हंस हंस कर,
जीवन एक सरिता है,
जो बहती ही रहेगी सागर तक.
अब कुछ मत सोचो, यूं बैठे,
चलते ही रहो, हँसते ही रहो !!
© विजय शंकर सिंह.
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