नहर के किनारे रहने के कारण
नेहरू नाम पड़ा। पर मूलतः यह कश्मीर के कौल ब्राह्मण थे। 1857 के विप्लव के बाद यह
परिवार आगरा जा बसा। दिल्ली में उनके पुरखे पंडित राज कौल मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर
के कहने पर आये थे , जिन्हे
मुग़ल बादशाह ने जागीर दी थी। इन्ही के वंशज लक्ष्मी नारायण नेहरू मुग़ल बादशाह के
पहले वकील नियुक्त हुए। उनके बेटे गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल नियुक्त हुए जो
विप्लव के पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। आगरा में जब गंगाधर थे तभी मोती लाल नेहरू का
जन्म हुआ। मोतीलाल के एक बड़े भाई , नन्द लाल जो आगरा न्यायालय में वकील थे, उस न्यायालय के इलाहाबाद
स्थानांतरित होने के इलाहाबाद आ गए। जहा 14 नवम्बर 1889 को जवाहर लाल नेहरू का जन्म हुआ। जिनकी आज 125 वीं जयंती मनाई जा रही है।
नेहरू बड़े विचारक थे। वे उन
चुनींदा राजनेताओं में हैं जिन्होंने खूब लिखा, राजनीति
से इतर भी। उनकी पुस्तकें "भारत एक खोज" और "Glimpses
of world history" उनके अध्ययन के विस्तार को
प्रदर्शित करती हैं। कांग्रेस की अगली पंक्ति के नेताओं में अकेले
नेहरू थे जिनकी स्वतंत्रता के काफी पहले से ही विदेश नीति पर गहरी पकड़ थी। स्वतन्त्र
भारत के किसी भी प्रधानमंत्री को विश्व पटल पर वह सम्मान नहीं मिला जो नेहरू को
प्राप्त था। आजादी के
बाद नेहरू ने पुराने मतभेद भुलाते हुए देशहित में अनेक विरोधी पक्ष के विद्वानों
को सरकार में शामिल किया। इनमें डॉ. आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी शामिल थे। आजादी के
बाद देश को तेज गति से औद्योगीकरण की आवश्यकता थी। तब देश का निजी क्षेत्र इस
अवस्था में नहीं था कि अकेले अपने हाथों यह कार्य कर सके। इसलिए नेहरू ने
सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उपक्रमों की स्थापना की। भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे अनेक
बड़े कारखाने उन्हीं की देन हैं। नेहरू
भारत के उँगलियों पर गिने जा सकने वाले उन नेताओं में शीर्ष पर हैं जो वैज्ञानिक
दृष्टिकोण को सर्वोच्च माना करते थे। वे नास्तिक थे। इस विषय पर गांधीजी के
धार्मिक आग्रहों से उनकी सार्वजनिक असहमति थी। नेहरू का
समाजवाद के प्रति झुकाव था। लेकिन उन्होंने समय की मांग के अनुरूप मिश्रित
अर्थव्यवस्था को चुना। यह भारत के तत्कालीन वातावरण के अनुकूल नीति थी। आज बड़े
बांधों की इस देश को आवश्यकता है या नहीं है यह विमर्श का बड़ा मुद्दा है। लेकिन
आजादी के बाद सिंचाई के विस्तार के उद्देश्य से भाखड़ा नांगल और हीराकुंड जैसे अनेक
बड़ी परियोजनाएं उनकी देन हैं। आजादी और
बंटवारे के बाद भारत सहित पाकिस्तान में साम्प्रदायिक घृणा का माहौल था। ऐसे में
भारत में सत्ता नेहरू के हाथ में रही जिन्हें साम्प्रदायिकता से सख्त चिढ़ थी। यदि
किसी धर्म विशेष की और झुकाव वाला कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता तब उस
माहौल में भारत के अनेक टुकड़े हो सकते थे। लेकिन नेहरू के नेतृत्व में भारत का
पूरा ध्यान विकास और निर्माण पर लगा रहा। जबकि पकिस्तान जन्म के बाद से लेकर आज तक
स्थायित्व का एक भी दौर नहीं देख पाया है और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा
है।
इस अवसर पर अनेक समारोह मनाये जा रहे
हैं। जिसमें से एक समारोह कांग्रेस
द्वारा भी मनाया जा रहा है, जिसमें प्रधान मंत्री
मोदी जी को आमंत्रित न करने का कांग्रेस
का जो निर्णय लिया गया है , उचित नहीं है. यह निर्णय कांग्रेस के बचकानेपन पर को ही ज़ाहिर करता
है.
आज की कांग्रेस, जो 1885 ईस्वी
में गठित की गयी थी, वह, 1907, 1924, 1937, 1969 में
विभिन्न शाखाओं में बंटते हुए 1969 की
इंदिरा कांग्रेस ही है. दलों में विभाजन और मत वैभिन्नय अत्यंत सामान्य प्रक्रिया
है. यह दल और विचार की समृद्धि को ही बताते हैं. गोखले और तिलक, गांधी और
जिन्ना, नेहरू और सुभाष, ये सभी
सैद्धांतिक रूप से अलग अलग रहे हैं. जिन्ना का तो रास्ता ही एक समय में देश के
विभाजन की पीठिका बनी. लेकिन इनका देश के आज़ादी के लक्ष्य के प्रति कोई आपसी विरोध
नहीं था. इनके आपसी सम्बन्ध भी मधुर रहे है. कोई भी व्यक्तिगत आक्षेप इन नेताओं ने
अपने राजनीतिक विरोधियों के ऊपर नहीं लगाए.
सुभाष ने जब आई एन ए का गठन
किया तो जो पहली ब्रिगेड खड़ी हुयी, वह गांधी
ब्रिगेड थी. उन्होंने ही गांधी को राष्ट्र पिता का सजम्बोधन दिया.जिन्ना जब
पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुख बने तो उन्होंने एक भारतीय नेता जो बीमार जिन्ना से
मिलने गए थे से कहा था कि, जवाहर लाल से कहना मेरा मन ऊबेगा तो बम्बई में आ
कर अपने घर में रहूँगा. खुद नेहरू ने अटल बिहारी बाजपेयी के पहले भाषण को जो
उन्होंने अपने प्रथम संसदीय जीवन के दिया था, को सुनने
के बाद, अटल जी को बधाई देते हुए कहा था, यह शख्स
एक दिन देश का प्रधान मंत्री बनेगा. नेहरू की भविष्यवाणी समय के साथ सच साबित
हुयी. सैद्धांतिक मतभेदों के बावज़ूद महान लोगों में कभी आपसी वैमनस्य नहीं रहा.
सत्याग्रह, हड़ताल, सिविल नाफरमानी , याचिका , गोष्ठियां आदि रास्ते थे, जिनको भिन्न भिन्न स्वतन्त्रता सेनानियों द्वारा अपने अपने तरीके से आज़ादी के लिए समय समय पर अपनाया जाता रहा है. इसी के साथ कुछ उत्साही युवकों द्वारा सशत्र संघर्ष का मार्ग भी अपनाया गया था. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, जैसे महान क्रांतिकारियों की, विचारधारा थी, जो कांग्रेस और गांधी की विचार धारा के बिलकुल उलट थी. लेकिन देश के प्रति उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता. साध्य देश की आज़ादी थी और साधन सबके अलग अलग थे. क्रांतिकारी आंदोलन इतना गोपनीय था कि किसी को भी इनकी गतिविधियों का पता ही नहीं चल पाता था. प्रचार और अखबारों से तो कोई मतलब ही नहीं था. इसी लिए इस आंदोलन का कोई भी प्रमाणिक इतिहास नहीं लिखा जा सका है. ये नीवं के पत्थर थे.
देश की विरासत, सभी महान
नेताओं का योगदान देश की साझी थाती है, और इसे
बाँट कर नहीं देखा जाना चाहिए. 1857 के
विप्लव का नेतृत्व बहादुर शाह ज़फर को सौंपा गया था. जैसे वे नाम मात्र के मुग़ल
बादशाह थे, वैसे ही वे, इस
विप्लव के भी नायक बने. असली लड़ाई नाना साहब बेगम हजरत महल रानी लक्ष्मी बाई, बाबू
कुंवर सिंह , मंगल
पांडे आदि महान नायकों द्वारा लड़ी गयी थी. लेकिन सदारत बहादुर शाह ज़फर की ही मानी
गयी. उन्हें जलावतनी झेलनी पडी , उनके
बेटों को फांसी दे दी गयी. उनकी मृत्यु भी कारागार में ही रंगून में हुयी. अटल जी
जब 1977 में
विदेश मंत्री बने थे तो अपनी रंगून यात्रा में वह ज़फर के मज़ार पर गए थे. और इस
दिवंगत नायक के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया था.
नेहरू की आलोचना भी कम नहीं
हुयी है। सोशल
साइट्स पर नेहरु के विरोधियों के पास, ऐसा लगता है, सिवाय उनकी कुछ महिलाओं के साथ ली गयी तस्वीरों के
कुछ भी कहने को नहीं है. यह नेहरू की चारत्रिक कमी है या उनकी रंगीन मिज़ाजी, या उनकी
विशाल हृदयता इस पर सब अपने अपने विचार से तर्क रखेंगे और मीमांसा करेंगे. लेकिन
उनके विचारों के बारे में उनकी नीतियों के बारे में बहुत कम ही पोस्ट दिखीं. नेहरू
दोहरा जीवन नहीं जीते थे. उनके कपडे बांड स्ट्रीट में सिले जाते थे, वह एक
अभिजात्य जीवन जीते थे. लेकिन जब वे सारे ऐश ओ आराम छोड़ कर स्वतंत्रता
संग्राम में कूदे तो उनका अलग ही रूप दिखा. उनकी अंतरंग दोस्ती लेडी माउंट बेटन से
थी तो थी. उन्होंने इस दोस्ती को छुपाया नहीं. जैसा उन्हें लगा वैसा जीवन उन्होंने
जिया. आज कोई उन्हें जिस भी नज़र से देखे, यह देखने वाले की दृष्टि और भावना है. चरित्र को
महिलाओं की मित्रता से ही जोड़ कर देखने की प्रवित्ति एक हीन भावना का ही उदाहरण
है. मुझे नहीं लगता कि विपरीत लिंग से मित्रता का किसी को परहेज़ होगा. पर दिखावे
और पाखण्ड का क्या करें . नेहरू की खूब आलोचना कीजिये. उनके सेक्स जीवन से लेकर
उनके आध्यात्मिक रुझान तक बहस करें. बहुत सामग्री मिलेगी आप को. लेकिन आलोचना केवल
इन्ही चित्रों तक केंद्रित न रखिये. इस से उनकी आलोचना कम आप की हीन भावना और
ईर्ष्या का भी आभास होता है. नेहरू एक अच्छे इंसान थे. इंसानी कमज़ोरियों से जुदा
वे भी नहीं थे.
नेहरू के आलोचक अक्सर यह कहते हैं कि सावरकर, श्यामा प्रसाद मुख़र्जी, गोलवलकर, आदि नेताओं को जान बूझ कर इतिहासकारों ने इग्नोर किया है. इसका कारण वे वामपंथी स्कूल के इतिहासकारों का वर्चस्व होना बताते है .मेरा उनसे अनुरोध है कि इन महानुभावों के बारे में आप को बताने से किसने रोका है ? अब इनके बारे में जो भी सामग्री हो उसे साझा कीजिये. लोग तो नेहरू और गांधी, और इंदिरा गांधी तक के निजी संबंधों पर चटखारे ले कर चर्चा करते है. फिर उपरोक्त महानुभावों के बारे में मित्र गण कोई चर्चा ही नहीं करते. यह सामग्री का अभाव है या अध्ययन की अनिच्छा, या हीन भावना, यह तो वही जानें. लेकिन चाहे सावरकर हों , या श्यामा प्रसाद मुख़र्जी, दोनों की देश के प्रति निष्ठां पर किसी को संदेह नहीं है. लेकिन उनके बारे में कोई मित्र लिखता भी नहीं है.मित्रों कुछ तो ज्ञान वर्धन करें. ताकि बहस हो. और लोग जानें.
विचारधारा का अंतर सदैव रहेगा.
और सबके योगदान भी अलग अलग तरह से रहते हुए भी रहेंगे. देश और देश के प्रति सम्मान
और कुछ बेहतर करने की भावना भी एक ही रहेगी. इस अवसर पर मोदी को न बुला कर देश की
सबसे बड़ी पार्टी ने अपने संकीर्ण सोच का ही परिचय दिया है. आज़ादी के इस महानतम
नायकों में से एक, को जिनके जीवन के नौ साल से भी अधिक समय ब्रिटिश
जेलों में बीते हैं को उनके सवा सौवीं जयन्ती पर इस प्रकार राजनैतिक मतभेदों के
कारण विवादित नहीं बनाया जाना चाहिए था.
- विजय शंकर सिंह.
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