जीतन राम मांझी बिहार के मुख्य
मंत्री हैं. वह अपने दिल की बात कहते रहते है . किसी को चुभ गयी, किसी को अखर गयी, तो किसी के दिल में उतर गयी.
इधर उन्होंने एक बात बहुत सच और ऐतिहासिक तथ्यों के अनुरूप कह दी. उन्होंने कह
दिया कि सवर्ण विदेशी हैं. कुछ को इस लिए चुभ गयी कि विदेशी क्यों कह दिया. किसी
को इस लिए अखर गयी कि अरे, जीतन राम
ने कैसे कह दिया. बहुतों के दिल में भी यह बात उतरी कि जीतन राम से सच कहने का
साहस दिखाया. जो भी हो, उनको जो
लगा कह दिया. आप को जो समझ में जो आये आप मीमांसा करते रहिये.
आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ. यह श्रेष्ठ का एक सम्बोधन भी है. अनार्य का अर्थ होता है जो आर्य नहीं है. आर्य को विदेशी माना जाता है. उनके मूल स्थान पर बड़ी बड़ी किताबें लिखी गयी हैं. तिलक कहते हैं, वे उत्तरी ध्रुव से आये थे. उन्होंने अपनी पुस्तक आर्कटिक होम ऑफ़ द वेदाज में लंबी रातें और लंबे दिनों का विवरण दिया है. कुछ ऋचाएं भी उन्होंने ढूंढी हैं जो ध्रुवीय या आस पास के प्रदेश का ही विवरण देती हैं. वहीं से किसी दैवी आफत के कारण पलायन हुआ और एक काफिला भारत में हिन्दुकुश से प्रवेश कर गया.
एक और सिद्धांत प्रतिपादित है, कि आर्य मध्य एशिया से आये थे. यह अधिक मान्यता प्राप्त सिद्धांत है। मध्य एशिया से काफिले चले और तीन भागों में बंट गए. एक शाखा पश्चिम की और, कैस्पियन सागर के दक्षिण से
होते हुए, यूराल
पर्वत श्रृंखला को पार करती हुयी यूरोप चली गयी. जर्मनी खुद को उन्ही आर्यों की
संतान मानता है. हिटलर को खुद को आर्य मानने का बड़ा गर्व था. धीरे धीरे यही शाखा
यूरोपियन आर्यों की जननी बनी. भाषा वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करते है. और इन
भाषाओं के कुल का नाम भी भारोपीय भाषा परिवार हैं.
एक शाखा जो दक्षिण की और मध्य
एशिया से चली वह दो भागों में बंट गयी.एक भाग फारस , जो अब ईरान के नाम जाना जाता है, की और चली गयी. वहाँ भी आर्यों
का साम्राज्य स्थापित हुआ .ईरान का सम्राट, शाह रज़ा पहलवी , 1979 के अयातोल्लाह खुमैनी के
इस्लामी आंदोलन होने तक, स्वयं को
आर्य मिहिर कहता था. उसके सिंहासन के पीछे सूर्य का प्रतीक चिह्न रहता था. वेदों के समान
ईरानी आर्यों ने भी एक ग्रन्थ रचा था, जिसका नाम था अवेस्ता। उनके पूर्व पुरुष हुए
ज़रथुश्त्र. और अग्नि उनके मुख्य देवता थे। यह अग्नि पूजकों की शाखा थी। मंदिरों के स्थान पर उन्होंने अग्नि कुण्ड
की स्थापना की. जहां अग्नि निरंतर जलती रहती थी. इनके धर्म के मानने वालॉ को पारसी कहा जाता था। आज भी पारसियों के मंदिर को अगियारी मंदिर कहा
जाता है. इनकी भाषा को फारसी कहा गया. फारसी संस्कृत से बहुत ही मिलती जुलती है . लगभग 80 प्रतिशत शब्द दोनों भाषाओं में एक समान हैं.
तीसरी शाखा जो दक्षिण पूर्व की
और घूमी और हिन्दुकुश पर्वत को पार कर, सिंधु सभ्यता के क्षेत्र मुअन
जो दड़ो, और
हड़प्पा को समेटते हुए, सरसवती
के किनारे स्थापित हुयी. अब मूल बात पर पर आते हैं. आर्यों में समय के साथ साथ वर्ण
व्यवस्था का स्वरुप विकसित हुयी फिर वर्णों के काम काज के ढंग पर कालान्तर में वर्ण जाति में रूढ़ हो गए.
आर्यों में द्विज और शूद्र का भेद शुरू हो गया था। प्रथम तीन वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज कहलाये
और शूद्र अलग रहे. एक धारणा यह कहती है कि जो भारत के मूल
निवासी थे, वह शूद्र
कहलाये. उन्हें आगत आर्यों ने दास बना लिया. उन्ही में से अन्त्यज, श्वपच और अन्य अस्पृश्य जातियां
बनी. लेकिन किसी भी समाज को गतिशील बनाने में आर्थिक पक्ष की भी भूमिका कम नहीं
होती है. मूलतः कृषि और पशु पालन पर आधारित आर्यों की जीवन शैली ने शूद्रो का भरपूर उपयोग किया और
खेती किसानी से जुडी अनेक जातियां बनी. लेकिन वर्चस्व ब्राह्मण और क्षत्रियों का
ही बना रहा.
श्री माँझी के कथन को अत्यंत
दुर्भावना और जातिगत पूर्वाग्रह से देखा जा रहा है. मांझी ने जो कहा है वह पूर्णतः
इतिहास सम्मत है. पूरा इतिहास आर्यों को विदेशी मानता है. हालांकि एक मत यह भी है
कि आर्य यहीं के थे, और यहीं
से बाहर गए. पर भारत की सम्पन्नता, प्रकृति प्रदत्त अद्भुत समृद्धि से यह
तर्क गले नहीं उतरता है कि आर्य यहां से बाहर गए होंगे. पलायन का मुख्य कारण युद्ध, साम्राज्य विस्तार, या जीवन यापन के साधनों की खोज
ही रही है. भारत से बाहर निकल कर साम्राज्य विस्तार के उदाहरण तो हैं पर वहाँ जा
कर बसने के नहीं है. इस तरह आर्य विदेशी ही ठहरते हैं. द्विज जो सवर्ण हुए वे
स्वतः विदेशी हो जाते हैं. अगर ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में मांझी के कथन का
विश्लेषण आप करेंगे तो उनके कथन से सहमत ही होंगे.
सनातन धर्म के चार वर्णों में
शूद्र भी एक वर्ण है. जो सेवा, दास वृत्ति हेतु है. जैसे जैसे राज्य बनते गए. उनके विस्तार
के लिए युद्ध भी हुए. फिर इन युद्धों से बड़े राज्य और विस्तारवाद की भावना ने साम्राज्य का स्वरुप निर्धारित किया. इस से कालान्तर में सामंतवाद का विकास हुआ। सामंतवाद के साथ साथ वर्ण व्यवस्था में स्पष्ट विभाजन होने लगा. तीनों वर्ण जो द्विज की मान्यता प्राप्त थे एक तरफ हो गए और दासों का वर्ण शूद्र एक तरफ
हो गया. जो समय के साथ साथ दला जाता रहा, वह दलित हो गया. जिसे आंबेडकर डिप्रेसेड क्लास
कहते थे. उन्हें हिन्दू तो माना जाता था पर किसी भी धार्मिक कर्मकाण्ड में शामिल
होने का उन्हें अधिकार इस धर्म ने नहीं दिया था. स्थानीय स्तर पर कुछ अग्रगामी सोच
के सामंतों ने ज़रूर उनकी दुर्दशा को लक्ष्य कर कुछ सुधारवादी कार्यक्रम चलाये, पर धर्म के कथित कथित ठेकेदारों ने उन्हें धर्म के कर्मकांडी स्वरुप के साथ जोड़ने के लिए कोई भी साझा
कार्यक्रम नहीं चलाया. यह तो इस धर्म की उदारता और सब कुछ समेट कर चलने की परम्परा
और समय समय पर होने वाले सुधारवादी आंदोलन थे, जिस ने इन जातियों के एक बहुत बड़े वर्ग को धर्म परिवर्तन करने से रोक लिया, जब कि क्षत्रियों में व्यापक धर्म परिवर्तन हुआ। इसका कारण भी सामंतवाद और आर्थिक ही था। साथ ही धर्म की कट्टरता के कारण भी जो छोड़ कर इस्लाम ग्रहण कर गया वह वापस सनातन धर्म में नहीं आ पाया। छोड़ कर नहीं गया. बस धर्म के स्वरुप को इसने खुद ही बदल लिया. आप भक्ति
आंदोलन से इसे प्रमाणित होते देख सकते हैं.
विंध्याचल के दक्षिण में एक और
संस्कृति थी. द्रविड़ संस्कृति. आर्यों का इस संस्कृति से संघर्ष और मेल जोल हुआ. अगस्त्य ऋषि के विंध्याचल
पार कर के जाने और विंध्याचल को झुके रहने का आशीर्वाद देने की कथा बहुत प्रचलित.
आर्य का यह प्रथम दक्षिण विस्तार था. एक धारणा के अनुसार राम का रावण से युद्ध भी आर्य और द्राविड़ संस्कृति का एक संघर्ष है। यह धारणा द्रविड़ साहित्य से निकली है। लेकिन इसी आर्य विस्तार और वर्चस्व के खिलाफ
पिछली सदी के पूर्वार्ध में 1920 के आस पास द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत हुयी. रामास्वामी नायकर पेरियार इस आंदोलन
के शिखर नेता थे. वह दक्षिण भारत के अत्यंत लोकप्रिय धर्म सुधारक थे. द्रविड़ कड़गम
की स्थापना उन्होंने की. जो बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के नाम से एक राजनीतिक
पार्टी बनी. जिसका अन्ना दुरई की मृत्यु के बाद, अन्ना डी एम के के रूप में एक और विभाजन हुआ. दक्षिण में अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव बहुत था. वहाँ के समाज में
ब्राह्मणवाद और गैर ब्राह्मण वाद का संघर्ष भी बहुत गंभीर रहा. इस विवाद का असर भाषा आंदोलन पर भी बड़ा। पहले स्वतंत्र द्रविडिस्तान की पृथकतावादी मांग भी उठ चुकी है।
जो बात मांझी ने कही है, अगर वही बात किसी सवर्ण मुख्य
मंत्री ने कही होती तो बिलकुल विवाद नहीं होता. जातिवाद का विरोध कुछ सवर्णों ने भी कम नहीं किया है. बल्कि
बहुत किया है. सामाजिक कुप्रथा के विरुद्ध ब्राह्मणों ने भी आवाज़ उठायी है. और
ऐसे आन्दोलनों का नेतृत्व भी किया है. लेकिन जब दलित समाज में जागृति फैलने लगी. और जब उन्होंने अपने आंदोलन को खुद ही संचालित करने का उपक्रम किया तो उसका व्यापक
विरोध भी सवर्ण समाज ने शुरू कर दिया. ऐसा सिर्फ इस लिए कि यह समाज अपनी मानसिकता
समय के सापेक्ष बदल नहीं पा रहा है. भग्न हो चुके सामंतवाद के खँडहर आज भी ज़िंदा
है. विडम्बना यह भी है कि खंडहरों का नाश मुश्किल से ही होता है.
बिहार मूलतः सामंती मानसिकता का
प्रांत है. भूमि सुधार कार्यक्रम वहाँ देर से लागू किया गया. जातिगत, और उपजातिगत मानसिकता वहाँ
बहुत गहरे पैठी है. शिक्षा का प्रसार भी कम नहीं है और सामाजिक गैर बराबरी के
खिलाफ वहाँ आवाज़ें भी खूब उठीं. फिर भी सवर्ण और गैर सवर्ण की मानसिकता वहाँ आज भी
कम नहीं है. मांझी जिस समाज से आते हैं. वह अति दलित समाज है. उस समाज में शिक्षा
का स्तर भी कम है. राजनैतिक दबाव ग्रुप भी जैसा लालू यादव के यादव समाज या नितीश
कुमार के कुर्मी समाज में है वैसा मांझी के समाज में नहीं है. इस लिए वह अगर कुछ
तार्किक कहते हैं तो भी उस पर विवाद होता है. और लोग उसे उपहास के रूप में ही
प्रस्तुत करते हैं. पर जिस परिवेश में वक्तव्य से अधिक वक्ता की सामाजिक हैसियत
मायने रखती है, वहाँ ऐसा
विवाद होगा ही.
-विजय शंकर सिंह.
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ReplyDeleteDr. Neeta Chaubey16 November 2014 09:42
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख विजय जी कुछ add कर रही हूँ
वर्ण व्यवस्था छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक आते आते कर्मणा से जन्मना स्वरुप ले चुका था और जाति में परिवर्तित हो गया था। जिसके प्रतिकार स्वरुप जैन और फिर बौद्ध धर्मों का उदय भी हुआ। साम्राज्य की और फिर उसके विस्तार की कल्पना ही मौर्यों और उसके बाद के काल में शुरू हुई । सामंतीय प्रथा की स्थिति इसके लगभग एक हज़ार वर्ष बाद पूर्व मध्य काल में पता चलती है।
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