Wednesday, 12 November 2014

A Sufi Poem... In the market, in the cloister--only God I saw By Baba Kuhi of Shiraz (980? - 1050)

English version by Reynold A. Nicholson



In the market, in the cloister--only God I saw.
In the valley and on the mountain--only God I saw.
Him I have seen beside me oft in tribulation;
In favour and in fortune--only God I saw.
In prayer and fasting, in praise and contemplation,
In the religion of the Prophet--only God I saw.
Neither soul nor body, accident nor substance,
Qualities nor causes--only God I saw.
I oped mine eyes and by the light of His face around me
In all the eye discovered--only God I saw.
Like a candle I was melting in His fire:
Amidst the flames outflashing--only God I saw.
Myself with mine own eyes I saw most clearly,
But when I looked with God's eyes--only God I saw.
I passed away into nothingness, I vanished,

And lo, I was the All-living--only God I saw.

 ( बाबा कुही , एक सूफी संत थे। इनका पूरा नाम शेख अबू अब्दुल्ला मोहम्मद बिन अब्दुल्ला बिन ओबैदुल्लाह बखुआ शिराज़ी था। समय के बारे में मतभेद है। कुछ इनका काल 
चौथी सदी , तो कुछ दसवीं सदी बताते हैं। सूफी साहित्य में इनकी कुछ रचनाएँ मिलती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ उल्लेखनीय विवरण इनके बारे में नहीं मिलता है। 

संभवतः वह शीराज़ में पैदा हुए थे। अपनी युवावस्था में वह प्रसिद्ध सूफी और रहस्यवादी कवि अबु अब्दुल्ला मुहब्बड़ और अरब कवि मुतनब्बी के संपर्क में आये। यायावरी उनके स्वभाव का अंग थी। सूफी संत साहित्य का संकलन और अध्ययन उनका स्वभाव बन गया था वह भ्रमण के दौरान ही अपने समय के प्रख्यात सूफी संत शेख अबु सईद अबी उल कायर और अबु उल क़ासिम तथा अब्द उल करीम कुसायरी के संपर्क में आये । निसापुर जो उस समय सूफी मत का गढ़ था में कुछ दिन रुक कर फिर वह शीराज़ वापस आ गए। वहीं उनका निधन  संभवतः 428 या 1035 ईस्वी में हो गया। 

शिराज़ वापस आने पर वह एक पर्वत की गुफा में  रहने लगे थे। उनका नाम कुही क्यों पड़ा इसके बारे में भी एक किवदन्ति प्रचलित है। यह नाम अरबी शब्द इब्न बाकुया , जिसका अर्थ पहाड़ों के बीच दरार है का अप्रभंश है। इस नाम का उल्लेख सबसे पहले शेख सादी की कविताओं में मिलता है। एक कथा के अनुसार युवा कवि हाफ़िज़ , जो बाबा कुही की कविताओं को स्तरीय नहीं मानते थे , तीन दिन तक वह उसी गुफा में रुके जहां बाबा रहा  करते थे। तीसरी रात उन्हें हजरत इमाम अली  के दर्शन हुए। जिन्होंने उन्हें साहित्य समझने की दैवी प्रेरणा दी। कहते हैं हाफ़िज़ उन्ही के आशीर्वाद से प्रसिद्ध हुए। यह कथा एक किम्वदन्ती के रूप में आज भी प्रचलित है। 

उनकी रचनाओं में फारसी में दीवान उपलब्ध है। कुछ फुटकर रचनाएं हल्लाज की एक पत्रिका बिदायत हाल अल हल्लाज व नेहायतोहु में उपलब्ध है. )
-vss

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