जैसे ,
अलसाई आँखों में रात जाते जाते
रख जाए कोई ख्वाब !
बादलों की थाप पर , बारिशों के ,
घुंघरुओं की झंकार !
उभर आये अनुभूति में ,
एहसासों से लबरेज़ कोई शब्द !
दीवार के पार से ,
शरीर बच्चों से झांकते हुए
कुछ टुकड़े धूप।
पेड़ की शाख पर ,
घोंसले बुनते हुए बया के जोड़े।
अरसे से बंद कमरे के दरीचे से ,
गुजरते हुए पवन के झोंके।
आँखों को छू लें रंग
तितिलियों के,
मिल जाए बचपन
किसी पुरानी अल्बम में।
सिमट आये दुनिया ,
मेरे आँगन में।
खो जाए पंछी कोई ,
उड़ते हुए पंख फैलाये ,
दूर गगन में।
भर जाए अंतराल
शब्द और मौन का !
तुम्हारा होना ,
ऐसा ही दोस्त है !
और ,
आकार लेने लगता है ,
प्रिज़्म से निकलते हुए
विविध रंगों की आभा से सजे
एक
सतरंगी संसार !!
(विजय शंकर सिंह )
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