Sunday, 31 August 2014

एक कविता ... तुम्हारा होना ऐसा होता है दोस्त ! / विजय शंकर सिंह



जैसे ,
अलसाई आँखों में रात जाते जाते
रख जाए कोई ख्वाब !

बादलों की थाप पर , बारिशों के ,
घुंघरुओं की झंकार !

उभर आये अनुभूति में ,
एहसासों से लबरेज़ कोई शब्द !

दीवार के पार से ,
शरीर बच्चों से झांकते हुए
कुछ टुकड़े धूप।

पेड़ की शाख पर ,
घोंसले बुनते हुए बया के जोड़े।

अरसे से बंद कमरे के दरीचे से ,
गुजरते हुए पवन के झोंके।

आँखों को छू लें रंग
तितिलियों के,

मिल जाए बचपन
किसी पुरानी अल्बम में।

सिमट आये दुनिया ,
मेरे आँगन में।

खो जाए पंछी कोई ,
उड़ते हुए पंख फैलाये ,
दूर गगन में।

भर जाए अंतराल
शब्द और मौन का !

तुम्हारा होना ,
ऐसा ही दोस्त है !
और ,
आकार लेने लगता है ,
प्रिज़्म से निकलते हुए
विविध रंगों की आभा से सजे
एक
सतरंगी संसार !!

(विजय शंकर सिंह )

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