Friday, 15 August 2014

एक कविता , आधी रात की आज़ादी ,........विजय शंकर सिंह




लम्बी त्रासद रात ,
सपनों की बरात लिए ,
हुजूम दीवानों का ,
बंधन तोड़ , 
गुलामी की जंज़ीरों का 
बढ़ रहा है   , 
राजपथ पर धीरे धीरे। 

सो रही थी दुनिया ,
पर ,
जागती उम्मीदों के हज़ार ख्वाब लिए ,
बढ़ रहे थे सभी। 
अब जो सूरज निकलेगा कल 
हमारा होगा। 

चमकेगा वह , 
हमारे हिम शिखरों पर , 
हमारे घर आँगन पर ,
हमारे आसमाँ पर 
हमारे सागरों पर पर। 

आह !
आज़ादी आयी, आधी रात ,
खून से लिथड़ी हुयी 
सुबह की लाली के साथ। 
मुस्कान भी थी अधरों पर ,
पर आंसू और बिखरे थे खून भी। 

बिलकुल ज़िंदगी की तरह ,
हर सफे में,
कुछ न कुछ स्याह सफ़ेद समेटे। 

बाँट दिया उन्होंने , हमें 
कागज़ पर पेन्सिल की नोक से ,
एक लकीर खिंची ,
और खून के बौछारों से लबालब,
कराहते हुए, 
हम कटते हुए चले गए। . 

यह सियासत थी ,
या गुमराहियत हमारी ,
हिसाब इसका हम ,
आज भी कर रहे हैं !

इतिहास के पन्नो में ,
खंगाल रहे हैं हम आज भी ,
उन साज़िश भरे 
शैतानी ताक़तों का दिमाग।  

हज़ारों साल का साथ ,
झगडे , लड़ाई , इश्क़ ,मोहब्बत , 
जिन्होंने हमें पाला पोसा था सदियों से ,
अब इतिहास के ज़र्द पन्नों में ,
बिखरे पड़े हैं। 

कभी मंटो के अफसानों में ,
कभी गुलज़ार के गीतों में ,
कभी पुरखों के सफ़रनामों में ,
बंटने की सारी कराहें , घुटन 
और टूटती ज़िंदगियाँ ज़िंदा हैं। 

सरहद पर खड़े टोबा टेक सिंह को छोड़ ,
सारे रहनुमा पागल हो गए थे !
कागज़ की एक लकीर ने ,
कितना बेगाना कर दिए हमें।  

लोग और दिल, एक जैसे होते हैं ,
कभी रूठते , कभी मानते ,
कभी धूप , कभी छाँव ,
कभी सागर , कभी सहरा ,
कभी हाँथ में हाँथ ,
कभी दो दो हाँथ। 

पर लौट कर वहीं ,
जहां सांझी खिलखिलाहट ,
सांझे अश्क़ बहते थे ,
फिर साथ साथ हो जाते थे। 

लुछ हम बहके थे ,
कुछ उन्होंने भटका दिया,
एक नश्तर , 
कितनी बेदर्दी से मुल्क़ के सीने में लगा। 

सिंधु सहित हरियाली बिखेरती वे नदियाँ ,
जिनके किनारे बसी थीं 
दुनिया की सबसे महान सभ्यताएं ,
खून के आंसू रो पडी ,
कहीं गंगा बंटी , तो कहीं रावी। 

लाखों मरे ,
जलावतन हुए लाखों ,
आज भी बसी हैं ,
उनके बुज़ुर्गों की यादों में ,
ज़ुल्म और दहशत भरी वे कहानियां। 

जो साँझा दुश्मन था ,
समेट ले गया सारे एहसानात 
और हम, 
लड़ते रहे , बंटते रहे , कटते रहे,
न्याय बंदरों का , बिल्लियों की तरह देखते रहे। 

वे घर ,अांगन , बाग़ , बगीचे , वो साँझा जलसे ,
वे सांझी शहादतें, 
भगत सिंह , आज़ाद , अशफ़ाक़ुल्ला खां के सपने, 
कंधे से कंधा मिला कर लड़ी गयी जंगें, 
आज़ादी के लिए थीं ,
खुदकुशी के लिए नहीं। 

जैसे कोई आईना टूटता है , दोस्त 
टुकड़ों में हमारी शक्लें बिखर गयीं ,
कहीं कागज़ों पर लकीरें खींच देने से ,
मुल्क़ बंटा करते हैं !

दिल में कहीं कसक है ,
हम आज़ाद तो हुए , 
पर अधूरे !!
-vss 

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