आज नागपंचमी है. नागपंचमी के दिन बनारस
याद न आये थोड़ा यह कठिन भी है. हम इसे बनारस में पंचैया कहते हैं. पहले अपने बचपन
में नाग के चित्रों के कागज़ लिए हम उसे बेचने के लिए निकलते थे. छोटे गुरु क, बड़े गुरु क, नाग लो भाई नाग
लो ! यह उस मार्केटिंग का बोध वाक्य था. कुछ पैसे मिल जाते
थे. और वही पूंजी हमें आनंदित करती थी. यह प्रथा अब भी बनारस के पुराने शहर में है
या नहीं मुझे पता नहीं.
गावों में पंचैया मनाने का दूसरा रिवाज़ होता था. हर गाँव में एक प्राइमरी स्कूल के पास अखाड़ा होता था. गद्दे वाला नहीं मिटटी वाला. मिटटी भी बहुत मेहनत से तैयार की जाती थी. बिलकुल भुरभुरी महीन और उसे मांजा भी जाता था. व्यायाम के आधुनिक जिम की तरह नहीं बल्कि मुगदर, विभिन्न भार के, मलखम्भ, विभिन्न आकार के, दंड यानी सपाट जिसे आधुनिक शब्दावाली में पुश अप कहते हैं, आदि व्यायाम के तरीके थे. व्यायाम शाला में बजरंग बली की फोटो या मूर्ति हो, यह एक अनिवार्य प्राविधान था. हनुमान मल्ल के भी देवता है. पर अब उन व्यायाम शालाओं का स्थान जिम ने ले लिया और हनुमान के चित्रों का स्थान ब्रूस ली, ह्रितिक रोशन और सलमान खान ने ले लिया वक़्त बदल तो उसने इसे भी नहीं छोड़ा.
इन अखाड़ों में दंगल होता था. आस पास के नामी नए पुराने पहलवान इकट्ठे होते थे. कुश्ती में हार जीत का फैसला होता था. गमछा, धोती और कुछ नक़द रुपये ईनाम में दिए जाते थे. जो दंगल में भाग नहीं लेते थे उनके लिए स्पोर्ट्स के और विकल्प थे. कूड़ी कूदना. कूड़ी आज का लॉन्ग जम्प है. फर्क सिर्फ इतना है दौड़ते हुए जहां से हम ज़मीन कूदने के लिए छोड़ते है वह थोडा ऊंचा होता था. इसे आप लॉन्चिंग पैड कह सकते हैं. यहाँ से सामने ही खुली हुयी खुदी जगह पर कूदना पड़ता था. लॉन्ग जम्प में कोई भी ऊंची जगह कूदने के लिए नहीं होती थी. बल्कि जहां से ज़मीन छोड़ते हैं वहाँ एक पटरा रखा जाता है. पटरे के बाहर जैसे ही पाँव का कोई अंश बाहर निकला वह फ़ाउल हो जाता है. कूड़ी में ऊंचे से जैसे ही पाँव आप का निकलेगा आप गिर जायेंगे. न फ़ाउल का झंझट न अपील का. इसके अलावा दौड़ना, पेड़ पर चढ़ना, कबड्डी आदि खेल तो होते ही रहते थे.
नाग भारतीय संस्कृति का अनिवार्य पक्ष है. कहा जाता है पूरी धरती ही शेष नाग के मस्तक पर टिकी है. शेष नाग का एक नाम अनंत है. विष्णु इसी शेष पर विश्राम करते हैं. इसी लिए उन्हें शेषशायी या अनंत शयनम कहता जाता है. शिव कोई आभूषण नहीं धारण करते है. स्वर्ण से उन्हें अनुराग नहीं है. उनके आभूषण के रूप में नाग ही सुशोभित होता है. भारतीय संस्कृति में सभी पूज्य हैं. यहाँ तक कि यम भी. नाग हमेशा पूज्य ही नहीं रहे बल्कि उनका विध्वंस भी किया गया. महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद परीक्षित राजा बने थे. उनके पुत्र जनमेजय ने नागों का सर्वनाश किया था. उनका यह नाग यग्य पुराणों में वर्णित है. जय शंकर 'प्रसाद' ने इस पर एक बहुत अच्छा नाटक भी लिखा है. जिसका नाम है जन्मेजय का नाग यज्ञ.
चौथी सदी में काशी में भार्शिवों का राज्य रहा है. यह बहुत ही संपन्न राज था. भार्शिवों ने गंगा तट पर दस अश्वामेघ्यग्य किये थे. इसी से उस घाट का नाम दशाश्वमेध घाट पडा है. ये शैव परंपरा के थे. इनका उद्भव विध्यचल की पहाड़ियों से हुआ था. काशी बाद में इनके अधीन आया. ये युद्ध में अपने कंधे पर शिव लिंग धारण करते थे. इस लिए इन्हें भारशिव कहा जाता था. आज कल जो राज भर जाति के लोग हैं उनका मानना है कि वे उन्ही भार्शिवों की संतान हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में राज भरों की संख्या बहुत है. भार्शिवों के बाद काशी गहद्वाल क्षत्रियों के अधिकार में आयी और लम्बे समय तक बनी रही.
सर्प को आज के दिन दूध पिलाने की परंपरा है. इस का मूल कारण हर जड़ और चेतन में ईश्वर को देखना हो सकता है. सांप को मारा नहीं जाता है, बल्कि उस से बचा जाता है, या उसे भगा दिया जाता है. आज के दिन शरीर संबंधी व्यायाम प्रारम्भ हो जाता है. पानी बरस जाने से मिटटी मुलायम हो जाती है. अखाड़े आदि ढंग से खुद जाते है. मौसम सुहाना हो जाता है. मन भी खुश हो जाता है. खेतों में बुआई आदि हो चुकी होती है. पानी प्रकृति बरसा ही रही है तो सिंचाई की चिंता भी नहीं है. ऐसे में आह्लादित मन खेल कूद में तो लगेगा ही. इसी लिए इस पर्व पर शारीरिक खेल कूद की परंपरा पडी होगी. मेरा ऐसा अनुमान है.
आप सब स्वस्थ रहें, मस्त रहें, और व्यस्त रहें. नाग पंचमी की सब को हार्दिक शुभकामनाएं !! े
गावों में पंचैया मनाने का दूसरा रिवाज़ होता था. हर गाँव में एक प्राइमरी स्कूल के पास अखाड़ा होता था. गद्दे वाला नहीं मिटटी वाला. मिटटी भी बहुत मेहनत से तैयार की जाती थी. बिलकुल भुरभुरी महीन और उसे मांजा भी जाता था. व्यायाम के आधुनिक जिम की तरह नहीं बल्कि मुगदर, विभिन्न भार के, मलखम्भ, विभिन्न आकार के, दंड यानी सपाट जिसे आधुनिक शब्दावाली में पुश अप कहते हैं, आदि व्यायाम के तरीके थे. व्यायाम शाला में बजरंग बली की फोटो या मूर्ति हो, यह एक अनिवार्य प्राविधान था. हनुमान मल्ल के भी देवता है. पर अब उन व्यायाम शालाओं का स्थान जिम ने ले लिया और हनुमान के चित्रों का स्थान ब्रूस ली, ह्रितिक रोशन और सलमान खान ने ले लिया वक़्त बदल तो उसने इसे भी नहीं छोड़ा.
इन अखाड़ों में दंगल होता था. आस पास के नामी नए पुराने पहलवान इकट्ठे होते थे. कुश्ती में हार जीत का फैसला होता था. गमछा, धोती और कुछ नक़द रुपये ईनाम में दिए जाते थे. जो दंगल में भाग नहीं लेते थे उनके लिए स्पोर्ट्स के और विकल्प थे. कूड़ी कूदना. कूड़ी आज का लॉन्ग जम्प है. फर्क सिर्फ इतना है दौड़ते हुए जहां से हम ज़मीन कूदने के लिए छोड़ते है वह थोडा ऊंचा होता था. इसे आप लॉन्चिंग पैड कह सकते हैं. यहाँ से सामने ही खुली हुयी खुदी जगह पर कूदना पड़ता था. लॉन्ग जम्प में कोई भी ऊंची जगह कूदने के लिए नहीं होती थी. बल्कि जहां से ज़मीन छोड़ते हैं वहाँ एक पटरा रखा जाता है. पटरे के बाहर जैसे ही पाँव का कोई अंश बाहर निकला वह फ़ाउल हो जाता है. कूड़ी में ऊंचे से जैसे ही पाँव आप का निकलेगा आप गिर जायेंगे. न फ़ाउल का झंझट न अपील का. इसके अलावा दौड़ना, पेड़ पर चढ़ना, कबड्डी आदि खेल तो होते ही रहते थे.
नाग भारतीय संस्कृति का अनिवार्य पक्ष है. कहा जाता है पूरी धरती ही शेष नाग के मस्तक पर टिकी है. शेष नाग का एक नाम अनंत है. विष्णु इसी शेष पर विश्राम करते हैं. इसी लिए उन्हें शेषशायी या अनंत शयनम कहता जाता है. शिव कोई आभूषण नहीं धारण करते है. स्वर्ण से उन्हें अनुराग नहीं है. उनके आभूषण के रूप में नाग ही सुशोभित होता है. भारतीय संस्कृति में सभी पूज्य हैं. यहाँ तक कि यम भी. नाग हमेशा पूज्य ही नहीं रहे बल्कि उनका विध्वंस भी किया गया. महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद परीक्षित राजा बने थे. उनके पुत्र जनमेजय ने नागों का सर्वनाश किया था. उनका यह नाग यग्य पुराणों में वर्णित है. जय शंकर 'प्रसाद' ने इस पर एक बहुत अच्छा नाटक भी लिखा है. जिसका नाम है जन्मेजय का नाग यज्ञ.
चौथी सदी में काशी में भार्शिवों का राज्य रहा है. यह बहुत ही संपन्न राज था. भार्शिवों ने गंगा तट पर दस अश्वामेघ्यग्य किये थे. इसी से उस घाट का नाम दशाश्वमेध घाट पडा है. ये शैव परंपरा के थे. इनका उद्भव विध्यचल की पहाड़ियों से हुआ था. काशी बाद में इनके अधीन आया. ये युद्ध में अपने कंधे पर शिव लिंग धारण करते थे. इस लिए इन्हें भारशिव कहा जाता था. आज कल जो राज भर जाति के लोग हैं उनका मानना है कि वे उन्ही भार्शिवों की संतान हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में राज भरों की संख्या बहुत है. भार्शिवों के बाद काशी गहद्वाल क्षत्रियों के अधिकार में आयी और लम्बे समय तक बनी रही.
सर्प को आज के दिन दूध पिलाने की परंपरा है. इस का मूल कारण हर जड़ और चेतन में ईश्वर को देखना हो सकता है. सांप को मारा नहीं जाता है, बल्कि उस से बचा जाता है, या उसे भगा दिया जाता है. आज के दिन शरीर संबंधी व्यायाम प्रारम्भ हो जाता है. पानी बरस जाने से मिटटी मुलायम हो जाती है. अखाड़े आदि ढंग से खुद जाते है. मौसम सुहाना हो जाता है. मन भी खुश हो जाता है. खेतों में बुआई आदि हो चुकी होती है. पानी प्रकृति बरसा ही रही है तो सिंचाई की चिंता भी नहीं है. ऐसे में आह्लादित मन खेल कूद में तो लगेगा ही. इसी लिए इस पर्व पर शारीरिक खेल कूद की परंपरा पडी होगी. मेरा ऐसा अनुमान है.
आप सब स्वस्थ रहें, मस्त रहें, और व्यस्त रहें. नाग पंचमी की सब को हार्दिक शुभकामनाएं !! े
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