अन्धकार कितना भी
सघन हो
हो कितना भी
बीभत्स ,
कितना भी दारुण भय दे ,
कुछ न कुछ तो सूझता ही है !
क्या सम्भव है
,
प्रकाश के अभाव में कुछ देखना .
समेटे रहता है
, तम ,
खुद में ,
कुछ किरणें आलोक की .
इन्ही उम्मीदों के
आस पर ,
रात , कितनी भी काली हो ,
अंततः बीतती ही
है !
उम्मीदें एक रज्जु की तरह होती है ,
घोर प्रतिकूलता में
भी ,
कुछ न कुछ थाम लेती हैं .
बस थोड़ा सा
धैर्य ,
थोड़ी सी जिजीविषा ,
ढेर सारा आत्मविश्वास ,
ले जाएगा हमें ,
घनघोर तम से
अद्भुत ज्योति की
और .
(विजय शंकर सिंह ).
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