Monday, 1 September 2014

एक कविता .. अन्धकार कितना भी सघन हो , / विजय शंकर सिंह


अन्धकार कितना भी सघन हो
हो कितना भी बीभत्स  ,
कितना भी दारुण भय दे ,
कुछ कुछ तो सूझता ही है !
क्या सम्भव है ,
प्रकाश के अभाव में कुछ देखना .

समेटे रहता है , तम  ,
खुद में ,
कुछ किरणें आलोक की .
इन्ही उम्मीदों के आस पर ,
रात , कितनी भी काली हो ,
अंततः बीतती ही है !

उम्मीदें एक रज्जु की तरह होती है ,
घोर प्रतिकूलता में भी ,
कुछ कुछ थाम लेती हैं .

बस थोड़ा सा धैर्य ,
थोड़ी सी जिजीविषा ,
ढेर सारा आत्मविश्वास ,
ले जाएगा हमें ,
घनघोर तम से अद्भुत ज्योति की और .

(विजय शंकर सिंह ).




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