प्राण, विख्यात कॉमिक कार्टूनिस्ट, जिनके पात्र , चाचा चौधरी, साबू, पिंकी आदि अमर
हो गए, का आज कैंसर की
बीमारी से 75 वर्ष में निधन हो गया. उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
भारतीय चित्र कला बहुत विक्सित रही है. राजपूत पेंटिंग्स, मुग़ल पेंटिंग्स, मधुबनी पेंटिंग्स, अजंता चित्र कला आदि बहुत प्रसिद्ध चित्रकला के स्कूल रहे हैं. मॉडर्न पेंटिंग्स में भी अमृता शेरगिल और एम् ऍफ़ हुसैन जैसे बड़े नाम रहे. लेकिन कार्टून की कोई परंपरा नहीं थी. चित्रकला की यह आधुनिक शैली है. जो विशेषकर राजनैतिक पात्रों को कैरीकेचर के रूप में प्रदर्शित करने की कला है. पञ्च पत्रिका जो 1843 में प्रकाशित हुयी थी, में जॉन लीच ने कुछ राजनैतिक चरित्र को मजाकिया लहजे में उकेरा. वहीं से पोलिटिकल कार्टून का जन्म हुआ होगा. तब तक यूरोप, और अमेरिका में आधुनिक लोकतंत्र आ चूका था, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने इस विधा में अभिव्यक्ति को और आयाम दिया. इसके बाद अखबारों में कार्टूनों के लिए स्थान आवंटित किये गए और उस समय भी जो कार्टून इन अखबारों में छपते थे, उनकी विषय वस्तु मूलतः राजनैतिक घटनाएँ और पात्र हुआ करते थे. उस समय के महत्वपूर्ण कार्टूनिस्टों में, मेल हालमें, गेरी लार्सन, जार्ज लीची आदि थे.
वहीं से यह परंपरा भारतीय पत्रकारिता में भी आयी. भारत के महान कार्टूनिस्टों में शंकर और आर के लक्ष्मण का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है. शंकर ने तो कार्टून पर एक साप्ताहिक कार्टून पत्रिका, शंकेर्स वीकली का प्रकाशन भी किया था. आर के लक्ष्मण के बिना तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया की कल्पना भी मुश्किल था कभी. उनका आम आदमी कॉमन मैन, जिस तरह से रेखाओं के माध्यम से अपनी बात कह देता था, वह कहीं गहरे भीतर पैठ जाता था. अब भी मारियो, इरफ़ान, सुधीर दर जैसे बहुत से प्रतिभावान कार्टूनिस्ट है जो अपने रेखाओं और प्रत्युत्पन्न मति द्वारा सीधे चोट करते है. बाल ठाकरे भी एक पोलिटिकल नेता होने के पहले कार्टूनिस्ट थे. और उनकी लोकप्रियता इस विधा में भी थी.
आज अखबार वाराणसी का एक बहुत प्रसिद्ध अखबार रहा है. आज उदका सर्कुलेशन बहुत कम है. पर हमारे बचपन में वह सुबह की खुराक हुआ करता था. उसम ेरोजं एक कार्टून छपता था, जिसे मनोहर कांजीलाल बनाया करते थे. अखबार में सबसे पहले निगाह उसी कार्टून पार जाती थी. दैनिक जागरण में भी एक प्रतिभावान युवा कार्टूनिस्ट थे, गोविन्द. मेरे अच्छे मित्र हैं और आज भी पत्रकारिता में ही है, लेकिन उनके कार्टून कम दिखते हैं. सबसे सुखद पक्ष इन कार्टून और कार्टूनिस्टों का यह रहा है कि चेहरा बिगाड़ कर बनाने के बाद भी चेहरा पहचानना सम्भव होता है. और सबसे महत्वपूर्ण होता है एक वाक्य में कुछ कहना जो सीधे दिल में उतर जाए और खिलखिलाहट से वातावरण भर दे.
प्राण कोई पोलिटिकल कार्टूनिस्ट नहीं थे. उन्होंने एक संसार रचा. जिनके पात्र उनके द्वारा गढ़े गए थे. इन पात्रों के माध्यम से उन्होंने छोटी छोटी कहानियां कहीं जो कार्टूनों की श्रृंखला बनी वह कॉमिक कहलाई. बच्चे तो बच्चे, हमें इस उम्र में भी अगर यह कॉमिक मिल जाए तो एक सांस में ही इसे पढने का मन कर जाता है. आज वह नहीं रहे, लेकिन उनका संसार अमर है. और रहेगा.
-vss.
भारतीय चित्र कला बहुत विक्सित रही है. राजपूत पेंटिंग्स, मुग़ल पेंटिंग्स, मधुबनी पेंटिंग्स, अजंता चित्र कला आदि बहुत प्रसिद्ध चित्रकला के स्कूल रहे हैं. मॉडर्न पेंटिंग्स में भी अमृता शेरगिल और एम् ऍफ़ हुसैन जैसे बड़े नाम रहे. लेकिन कार्टून की कोई परंपरा नहीं थी. चित्रकला की यह आधुनिक शैली है. जो विशेषकर राजनैतिक पात्रों को कैरीकेचर के रूप में प्रदर्शित करने की कला है. पञ्च पत्रिका जो 1843 में प्रकाशित हुयी थी, में जॉन लीच ने कुछ राजनैतिक चरित्र को मजाकिया लहजे में उकेरा. वहीं से पोलिटिकल कार्टून का जन्म हुआ होगा. तब तक यूरोप, और अमेरिका में आधुनिक लोकतंत्र आ चूका था, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने इस विधा में अभिव्यक्ति को और आयाम दिया. इसके बाद अखबारों में कार्टूनों के लिए स्थान आवंटित किये गए और उस समय भी जो कार्टून इन अखबारों में छपते थे, उनकी विषय वस्तु मूलतः राजनैतिक घटनाएँ और पात्र हुआ करते थे. उस समय के महत्वपूर्ण कार्टूनिस्टों में, मेल हालमें, गेरी लार्सन, जार्ज लीची आदि थे.
वहीं से यह परंपरा भारतीय पत्रकारिता में भी आयी. भारत के महान कार्टूनिस्टों में शंकर और आर के लक्ष्मण का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है. शंकर ने तो कार्टून पर एक साप्ताहिक कार्टून पत्रिका, शंकेर्स वीकली का प्रकाशन भी किया था. आर के लक्ष्मण के बिना तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया की कल्पना भी मुश्किल था कभी. उनका आम आदमी कॉमन मैन, जिस तरह से रेखाओं के माध्यम से अपनी बात कह देता था, वह कहीं गहरे भीतर पैठ जाता था. अब भी मारियो, इरफ़ान, सुधीर दर जैसे बहुत से प्रतिभावान कार्टूनिस्ट है जो अपने रेखाओं और प्रत्युत्पन्न मति द्वारा सीधे चोट करते है. बाल ठाकरे भी एक पोलिटिकल नेता होने के पहले कार्टूनिस्ट थे. और उनकी लोकप्रियता इस विधा में भी थी.
आज अखबार वाराणसी का एक बहुत प्रसिद्ध अखबार रहा है. आज उदका सर्कुलेशन बहुत कम है. पर हमारे बचपन में वह सुबह की खुराक हुआ करता था. उसम ेरोजं एक कार्टून छपता था, जिसे मनोहर कांजीलाल बनाया करते थे. अखबार में सबसे पहले निगाह उसी कार्टून पार जाती थी. दैनिक जागरण में भी एक प्रतिभावान युवा कार्टूनिस्ट थे, गोविन्द. मेरे अच्छे मित्र हैं और आज भी पत्रकारिता में ही है, लेकिन उनके कार्टून कम दिखते हैं. सबसे सुखद पक्ष इन कार्टून और कार्टूनिस्टों का यह रहा है कि चेहरा बिगाड़ कर बनाने के बाद भी चेहरा पहचानना सम्भव होता है. और सबसे महत्वपूर्ण होता है एक वाक्य में कुछ कहना जो सीधे दिल में उतर जाए और खिलखिलाहट से वातावरण भर दे.
प्राण कोई पोलिटिकल कार्टूनिस्ट नहीं थे. उन्होंने एक संसार रचा. जिनके पात्र उनके द्वारा गढ़े गए थे. इन पात्रों के माध्यम से उन्होंने छोटी छोटी कहानियां कहीं जो कार्टूनों की श्रृंखला बनी वह कॉमिक कहलाई. बच्चे तो बच्चे, हमें इस उम्र में भी अगर यह कॉमिक मिल जाए तो एक सांस में ही इसे पढने का मन कर जाता है. आज वह नहीं रहे, लेकिन उनका संसार अमर है. और रहेगा.
-vss.
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