Sunday 26 July 2020

कारगिल युद्ध की खुफिया विफलता से हमने अब तक क्या सीखा है ? / विजय शंकर सिंह


अगर युद्ध की बात करें तो करगिल 1962, 65 और 71 की तरह का युद्ध नहीं था। यह युद्ध घोषित भी नहीं था। इसीलिए भारत ने एलओसी को पार नहीं किया और अपेक्षाकृत अधिक जनहानि झेलते हुए भी अपनी ही सीमा के अंदर से पाकिस्तान के घुसपैठियों को भगाया। यह एक बड़ी और सुनियोजित पाकिस्तानी घुसपैठ थी जिसे पाक सेना ने अपने आतंकी सहयोगियों के साथ अंजाम दिया था। पर इस बड़ी घुसपैठ का जवाब भारतीय सेना ने अपनी परंपरागत शौर्य और वीरता से दिया और न केवल घुसपैठ के पीछे छुपे पाक के मंसूबे को विफल कर दिया बल्कि दुनिया को पुनः एक बार यह आभास करा दिया कि, भारतीय सेना, दुनिया की श्रेष्ठतम प्रोफेशनल सेनाओं में अपना एक अहम स्थान रखती है आज के दिन को हम करगिल विजय के रूप में याद करते हैं। आज उन सब शहीदों को वीरोचित श्रद्धाजंलि देते हैं, जिन्होंने अपनी भूमि घुसपैठियों से आज़ाद कराने के लिये, अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था।

करीब दो महीने तक चला कारगिल युद्ध भारतीय सेना के साहस और शौर्य का ऐसा उदाहरण है, जिस पर हर देशवासी को गर्व है । लगभग, 18 हजार फीट की ऊंचाई पर कारगिल की ऊंची चोटियों और चुनौतीपूर्ण टाइगर हिल में लड़े गए इस कठिन युद्ध में लगभग साढ़े पांच सौ से अधिक हमारे योद्धाओं ने शहादत दी, और 1300 से ज्यादा सैनिक घायल हुए ।

इस युद्ध की शुरूआत 3 मई 1999 को ही पाकिस्तान की तरफ से हो गयी थी, जब उसने कारगिल की ऊंची पहाडि़यों पर 5,000 सैनिकों के साथ घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। इस बात की जानकारी जब हमारी सरकार को मिली तो हमारी सेना ने पाक सैनिकों को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन विजय चलाया। उस समय अखबारों में जो खबरे छपी उनके अनुसार, 'भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया। इसके बाद जहां भी पाकिस्तान ने कब्जा किया था वहां बम गिराए गए। इसके अलावा मिग-29 की सहायता से पाकिस्तान के कई ठिकानों पर आर-77 मिसाइलों से हमला किया गया। इस युद्ध में बड़ी संख्या में रॉकेट और बम का इस्तेमाल किया गया। इस दौरान करीब दो लाख पचास हजार गोले दागे गए। वहीं 5,000 बम फायर करने के लिए 300 से ज्यादा मोर्टार, तोपों और रॉकेट का इस्तेमाल किया गया। लड़ाई के 17 दिनों में हर रोज प्रति मिनट में एक राउंड फायर किया गया।

करगिल युद्ध पर कोई बात करने के पहले युद्ध की क्रोनोलॉजी यानी घटनाक्रम का जान लेना आवश्यक है। पहले यह घटनाक्रम देखें।
● 3 मई 1999 : एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचनी दी।
● 5 मई : भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुंची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 की हत्या कर दी।
● 9 मई : पाकिस्तानियों की गोलाबारी से भारतीय सेना का कारगिल में मौजूद गोला बारूद का स्टोर नष्ट हो गया।
● 10 मई : पहली बार लदाख का प्रवेश द्वार यानी द्रास, काकसार और मुश्कोह सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखा गया।
● 26 मई : भारतीय वायुसेना को कार्यवाही के लिए आदेश दिया गया।
● 27 मई : कार्यवाही में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया और फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता को बंदी बना लिया।
● 28 मई : एक मिग-17 हैलीकॉप्टर पाकिस्तान द्वारा मार गिराया गया और चार भारतीय फौजी मरे गए।
● 1 जून : एनएच- 1A पर पकिस्तान द्वारा भरी गोलाबारी की गई।
● 5 जून : पाकिस्तानी रेंजर्स से मिले कागजातों को भारतीय सेना ने अखबारों के लिए जारी किया, जिसमें पाकिस्तानी रेंजर्स के मौजूद होने का जिक्र था।
● 6 जून : भारतीय सेना ने पूरी ताकत से जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी।
● 9 जून : बाल्टिक क्षेत्र की 2 अग्रिम चौकियों पर भारतीय सेना ने फिर से कब्जा जमा लिया।
● 11 जून : भारत ने जनरल परवेज मुशर्रफ और आर्मी चीफ लेफ्टीनेंट जनरल अजीज खान से बातचीत का रिकॉर्डिंग जारी किया, जिससे जिक्र है कि इस घुसपैंठ में पाक आर्मी का हाथ है।
● 13 जून : भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर में तोलिंग पर कब्जा कर लिया।
● 15 जून : अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने परवेज मुशर्रफ से फोन पर कहा कि वह अपनी फौजों को कारगिल सेक्टर से बहार बुला लें।
● 29 जून : भारतीय सेना ने टाइगर हिल के नजदीक दो महत्त्वपूर्ण चौकियों, पोइंट 5060 और पोइंट 5100 को फिर से कब्जा लिया।
● 2 नुलाई : भारतीय सेना ने कारगिल पर तीन तरफ से हमला बोल दिया।
● 4 जुलाई : भारतीय सेना ने टाइगर हिल पर पुनः कब्जा पा लिया।
● 5 जुलाई : भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर पर पुनः कब्ज़ा किया। इसके तुरंत बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने बिल किलिंटन को बताया कि वह कारगिल से अपनी सेना को हटा रहें है।
● 7 जुलाई : भारतीय सेना ने बटालिक में स्तिथ जुबर हिल पर कब्जा पा लिया।
● 11 जुलाई : पाकिस्तानी रेंजर्स ने बटालिक से भागना शुरू कर दिया।
● 14 जुलाई : प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने ऑपरेशन विजय की जीत की घोषणा कर दी।
● 26 जुलाई : पीएम ने इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाए जाने का किया।

आज 26 जुलाई को, कारगिल विजय के 21 साल हम पूरे कर रहे हैं पर करगिल किस विफलता का परिणाम था, यह जानना बेहद ज़रूरी है। हमने उस विफलता से कुछ सीखा भी है या हम बस अपने हुतात्मा सैनिको को भावुकता भरी श्रद्धाजंलि देकर आगे बढ़ गए हैं। इन 21 सालों में, करगिल युद्ध ने ऐसे बहुत से सबक हमें दिए जिससे हम भविष्य की योजनाओं के लिये उनका आधार बना सकते हैं। लेकिन 21 साल पहले भारत के खुफिया तंत्र द्वारा की गई भूल इसी साल गलवां घाटी और लद्दाख के लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर भारत द्वारा पुनः दोहराई गई जब, अक्टूबर 2019 से ही चीनी घुसपैठ हमारे क्षेत्र में होती रही और आज तक इतनी बातचीत और 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी चीन हमारे क्षेत्र में अब भी घुसा बैठा है, और कुछ टीवी चैनल, गलवां घाटी के खोखले विजय का जश्न मना रहे हैं।

भारतीय खुफिया तँत्र की विफलता तो करगिल घुसपैठ 1999 में भी हुयी थी और इस साल लद्दाख में भी हुयी है। मतलब एक ही क्षेत्र में 21 साल पहले जो नाकामी खुफिया तंत्र की थी वह दुबारा दुहरायी गयी। अब कुछ बातें कारगिल युद्ध के बारे में जान लेनी चाहिए। ऊपर मैंने घटनाक्रम दे दिया है। उसी के अनुसार, 3 मई 1999 को एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाक सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी थी। कारगिल में हुए हमले के 21 साल बाद भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम अपनी सेना में आज भी लागू नहीं कर पाए हैं।

लगभग तीन महीने के 'ऑपरेशन विजय' में भारत के 527 जवान शहीद और 1363 जवान घायल हुए थे। जो घायल हुए हैं उनमें कोई बाद में शहीद हुआ या नहीं, यह आंकड़ा मुझे नहीं मिल पाया। वहीं भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 3 हजार सैनिकों को मार गिराया था। उस समय भारतीय सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मालिक थे, जिन्होंने कारगिल पर एक किताब भी लिखी है। उस किताब में इस युद्ध के कारण, परिणाम, सफलता और विफलता के बारे में जनरल मलिक ने अपने विचार रखे हैं।

कारगिल युद्ध के समाप्त होने के बाद, तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने कारगिल घुसपैठ के विभिन्न पहलुओं पर समीक्षा करने के लिए, के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में, एक कमेटी, जिसे कारगिल रिव्यू कमेटी कहा जाता है, का गठन किया था। इस समिति के तीन अन्य सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल केके हजारी, बीजी वर्गीज और सतीश चंद्र, सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय थे। कारगिल रिव्यू कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में मुख्य रूप से निम्न बातें कहीं।
● देश की सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली में गंभीर कमियों के कारण कारगिल संकट पैदा हुआ.
● रिपोर्ट ने खुफिया तंत्र और संसाधनों और समन्वय की कमी को जिम्मेदार ठहराया गया।
● इसने पाकिस्तानी सेना के गतिविधियों का पता लगाने में विफल रहने के लिए रॉ ( RAW ) को दोषी ठहराया गया।
● रिपोर्ट ने “एक युवा और फिट सेना” की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला था।

क्या आज, 21 साल बीत जाने के बाद भी, भारतीय सेना को कारगिल युद्ध से सीख मिली है ? जिन विफलताओं का उल्लेख उस कमेटी की रिपोर्ट में किया गया है उन विफलताओं के कारणों को दूर करने की कोई योजनाबद्ध कोशिश की गयी है ? इसका उत्तर होगा हां।कुछ सिफारिशों को सरकार ने माना है और कुछ पर अभी कार्यवाही होनी शेष है। रिपोर्ट की सिफारिशें, पेश किए जाने के कुछ महीनों बाद राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंत्रियों के एक समूह का, गठन किया गया जिसने खुफिया तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता पर सहमति जतायी गयी थी। सेना के पूर्व अधिकारियों ने कहा कि कारगिल सेक्टर में 1999 तक बहुत कम सेना के जवान थे, लेकिन युद्ध के बाद, बहुत कुछ बदल गया। ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) कुशकल ठाकुर, जो 18 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर थे. साथ ही जो टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर कब्जा करने में शामिल थे, ने भी कहा कि, 'कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के पीछे खुफिया विफलता मुख्य कारण थी। लेकिन पिछले वर्षों में, बहुत कुछ बदल गया है। हमारे पास अब बेहतर हथियार, टेक्नोलॉजी, खुफिया तंत्र हैं जिससे भविष्य में कारगिल-2 संभव नहीं है। लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अमर औल, जो ब्रिगेड कमांडर के रूप में टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर फिर से कब्जा करने के अभियानों में शामिल थे, ने कहा कि, हमारे पास 1999 में कारगिल में एलओसी की रक्षा के लिए एक बटालियन थी। आज हमारे पास कारगिल एलओसी की रक्षा के लिए एक डिवीजन के कमांड के अंतर्गत तीन ब्रिगेड हैं।

रिपोर्ट ने एक युवा और फिट सेना रखे जाने का उल्लेख किया गया था। इस पर भी काम हुआ है । आज सेना में पहले की तुलना में कमांडिंग यूनिट जवान (30 वर्ष) के अधिकारी हैं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन है. 2002 में डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी और 2004 में राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (NTRO) का निर्माण, कवर रिपोर्ट के कुछ प्रमुख परिणाम थे। अब तो चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) का पद भी बना दिया गया है ।

रिपोर्ट ने काउंटर-इंसर्जेन्सी में सेना की भूमिका को कम करने की भी सिफारिश की गयी थी, लेकिन इसे अभी तक लागू नहीं किया गया है। 1999-2001 में सरकार द्वारा संशोधित फास्ट-ट्रैक अधिग्रहण को कभी भी दोहराया नहीं गया और भारतीय सैनिकों ने अभी तक उन्हीं राइफलों से लड़ाई लड़ी जिसके साथ उन्होंने 1999 में लड़ी थी। इसलिए कारगिल युद्ध की 21 वीं सालगिरह का जश्न मनाने का सबसे अच्छा तरीका होगा की कारगिल रिव्यू कमेटी और मंत्रिमंडल समूह की रिपोर्ट की समीक्षा करके लंबे समय से लंबित राष्ट्रीय सुरक्षा सुधारों को पूरा किया जाए। विशेष रूप से फास्ट-ट्रैक रक्षा सुधार को समय पर कार्यान्वयन किया जाएं।. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि ,उत्तरी सीमा पर अकेले पाकिस्तान ही खतरा नहीं है बल्कि चीन एक बड़ा खतरा है।

करगिल और लद्दाख में अनेक असमानताओं के बाद भी एक समानता है कि, दोनो ही मौकों पर हमारी खुफिया एजेंसियां विफल रही हैं। राजनीतिक रूप से सबसे बड़ी विफलता यह है कि पाकिस्तान से हुई घुसपैठ को हम जहां जोर शोर से स्वीकार करते हैं और उसका मुंहतोड़ जवाब देते हैं वहीं चीन से हुयी घुसपैठ और चीनी सेना की हमारी सीमा में घुस कर तंबू, टीन शेड, बंकर आदि बनाने की घटना पर चुप्पी साध जाते हैं। क्यों। अगर यह एक कूटनीतिक रणनीति है तो अलग बात है, अन्यथा अगर यह एक सत्तारूढ़ दल का पोलिटिकल एजेंडा है तो इसका प्रभाव आगे चल कर आत्मघाती होगा। डोकलां से लेकर गलवां घाटी तक चीनी सैनिकों की घुसपैठ और उन्हें जवाब देने की शैली से यही संदेश गया कि चीन के प्रति हम नरम हैं। हद तो तब हो गयी जब प्रधानमंत्री ने कह दिया कि हमारी सीमा में न तो कोई घुसा था और न घुसा है। जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी चीन हमारी सीमा में ऊंची पहाड़ियों पर जो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं कब्ज़ा जमाये हुए है और जिस प्रकार की, उसकी गतिविधिया हैं, उससे नहीं लगता कि, चीन घुसपैठ पूर्व की स्थिति आसानी से बहाल करेगा।

गलवां घाटी में जो घुसपैठ हुयी है उस पर एक टीवी चैनल में बहस चल रही थी। उस बहस में जो सवाल उठ रहे थे को इंगित करते हुए, एक रिटायर्ड मेजर जनरल पीसी पंजिकर ने एक पत्र उक्त चैनल के सम्पादक को लिखा था। मेजर जनरल पंजिकर ने जो सवाल उठाये हैं, वे बेहद सारगर्भित और प्रोफेशनल हैं। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि,
" इसमे कुछ भी अनुचित नहीं है कि, गलवां घाटी के मामले में, सरकार और सेना की भूमिका की समीक्षा हो। उनकी विफलताओं और कमियों पर भी बहस होनी चाहिए। लेकिन 2015 से 2020 तक की जो सैटेलाइट इमेजेस आ रही हैं, और जिनके अनुसार गलवां घाटी के उत्तर पूर्वी किनारे पर, चीन की सेना ने जो भारी निर्माण कर लिए हैं, उसके बारे में, आंतरिक और बाह्य खुफिया एजेंसियों के डायरेक्टर जनरल साहबान से क्यों नहीं पूछा जाता है ? क्या यह उनके एजेंसी की विफलता नहीं है कि उन्होंने समय रहते सरकार को इसकी सूचना क्यों नहीं दी ?'
आगे वे कहते हैं कि,
"उन्हें इस विफलता के लिये जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उनके खिलाफ अगर उनका दोष प्रमाणित होता है तो कार्यवाही भी की जानी चाहिए।"
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिजनेस रूल्स 1961 का उल्लेख करते हुए जनरल पंजिकर कहते हैं कि, रक्षा सचिव और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ को भी इस विफलता का दोषी ठहराया जाना चाहिए और उनसे विस्तार से इस मामले में, उनका स्पष्टीकरण लिया जाना चाहिए।

रक्षा मामलो की एक और खुफिया एजेंसी है डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी जिसके अलग डीजी हैं। यह एजेंसी करगिल रिव्यू कमेटी की अनुसंशा पर 2004 में गठित की गयी है। यह एजेंसी भी अपने कर्तव्य में विफल रही है। इस एजेंसी और सेना के बड़े जनरलों का भी यह दायित्व है कि, जब चीन सीमा पर लम्बे समय से घुसपैठ कर रहा था और भारी सैन्य बंकर, बैरक बना रहा था तो सरकार को उन्हें यह बताना चाहिए था और हमारे विदेश मंत्रालय को भी 1993, 1996, 2003 के भारत चीन संधियों के आलोक में चीन से कड़ा विरोध दर्ज कराना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह भी सवाल उठता है कि एनटीआरओ ने इन सब गतिविधियों पर अपनी नज़र क्यों नहीं रखी ?

एनटीआरओ जिसका पूरा नाम है नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन जो एक तकनीकी खुफिया एजेंसी है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के अंतर्गत कार्य करती है। इसके अधीन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिप्टोलॉजी रिसर्च एंड डेवलपमेंट ( NICRD ) है, जो एशिया में अपने तरह की एक अनोखी रिसर्च इकाई है। एनटीआरओ भी आईबी, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, रॉ की ही तरह गम्भीर और संवेदनशील अभिसूचनाओ का संकलन करती है। पर लद्दाख के 2019 20 के चीनी घुसपैठ की अग्रिम अभिसूचनाओ के संकलन में यह एजेंसी भी दुर्भाग्य से विफल रही है।

ऐसा नहीं है भारत मे प्रशासनिक तंत्र का विकास नहीं हुआ है। बल्कि समय समय पर जैसी आवश्यकताए होती रहीं तत्समय की सरकारो, जिसमे पराधीन भारत की, ब्रिटिश कालीन औपनिवेशिक सरकार भी सम्मिलित है, ने, उसी तरह से आवश्यकतानुसार मैकेनिज़्म भी तैयार किये पर दुःखद और हैरान करने वाला पहलू यह है कि इतनी विशेषज्ञ और महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसियों के होते हुए हम अपनी सीमा में हो रही घुसपैठ की घटनाओं पर समय रहते से नज़र नहीं रख पाते है। यह अलग बात है कि भारत, चीन के इस हाल की घुसपैठ की घटना जो लद्दाख के गलवां घाटी में हुई है को छोड़ कर अन्य घुसपैठ को बल एवं कुशल पूर्वक हटाने में सफल हुआ है, पर इससे खुफिया एजेंसियों की विफलता तो छुप नहीं जाती है ।

कारगिल युद्ध मे सेना की शौर्य परंपरा तो कायम रही, पर खुफिया एजेंसियों की विफलता और सरकार की कूटनीतिक नाकामी से इनकार नहीं किया जा सकता है। खुफिया एजेंसियों की विफलता, गलवां घाटी में भी दिख रही है और पठानकोट तथा पुलवामा हमलों में भी थी। सरकार को, अपने सभी खुफिया एजेंसियों को और अधिक विश्वसनीय तथा सक्षम बनाना पड़ेगा ताकि भविष्य में न तो, फिर से कोई कारगिल हो और न ही डोकलां और गलवां ही हो। गलवां का मामला अभी हल नहीं हुआ है। चीन की सेना को एलएसी की पूर्व की स्थिति में लाने के लिये सरकार का प्रयास जारी है। आशा है सरकार चीन को एलओसी की पूर्ववत स्थिति पर धकेलने में सफल होगी।

( विजय शंकर सिंह )

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