Monday 10 February 2020

दिल्ली चुनाव में आयोग और ईवीएम पर संदेह क्यों है ? / विजय शंकर सिंह

लंबे समय तक चुनाव के प्रबंधन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े होने के बाद भी यह मैं आज तक समझ नहीं पाया कि किसी चुनाव में ईवीएम कैसे बदली जा सकती है और कैसे हेराफेरी की जा सकती है। सारी मशीनें स्ट्रांग रूम में रखी जाती है। जो डबल लॉक, सीसीटीवी और चौबीसों घँटे की निगरानी में, जब तक कि मतगणना न पूरी हो जाय सशस्त्र सुरक्षा में रखी जाती है। सुरक्षा गार्द का अपना स्टैंडिंग आर्डर होता है। वहां मुआयना बुक होता है जिस पर चेकिंग करने वाले अफसर अपना निरीक्षण नोट लिखते हैं और समय तथा तारीख दर्ज करते हैं। स्ट्रांग रूम का दरवाजा बिना रिटर्निंग अफसर के खुल नहीं सकता है। उसके खुलने का कारण भी उसी निरीक्षण पुस्तिका में दर्ज करना होता है। स्ट्रांग रूम के बाहर राजनीतिक दलों के लोग भी बराबर पहरा देते रहते हैं और अब तो जब स्मार्ट फोन आम हैं तो वे हर गतिविधि को रिकॉर्ड भी करते रह सकते हैं।

इतनी व्यवस्था यूपी के चुनाव में हम लोग जब कागज़ से वोट पड़ते थे तब भी या जब मशीनों से पड़ने लगे, तब भी,  व्यवस्था करते थे। यह सब आयोग के आदेशों के एक एक शब्द का अनुपालन मैं आप को बता रहा हूँ। अगर हम यह मान भी लें कि सीईसी खुद मशीनों में हेराफेरी करवाना चाहें तो ? वे खुद तो स्ट्रांग रूम में मशीन बदलने जाएंगे नहीं। अगर कुछ अति उत्साही चमचे टाइप के अफसर तैयार भी हो जाँय तो यह असंभव है कि वह व्यापक तौर पर ऐसी गड़बड़ी कर जांय। बेहद दबाव में इक्का दुक्का अपवाद की बात और है। मैं मशीन बदलने की बात पर अपनी बात कह रहा हूँ। जहां तक हैकिंग का सवाल है यह तो कम्प्यूटर के विद्वान ही स्पष्ट कर पाएंगे कि मशीन में हैकिंग हो सकती है या नहीं। हालांकि आम आदमी पार्टी के ही एक विधायक ने विधानसभा में हैकिंग दिखा कर यह आशंका पैदा कर दी थी कि मशीनों में छेड़छाड़ संभव है। पर आयोग ने अपना स्टैंड यही रखा कि छेड़छाड़ संभव नहीं है। लेकिन फिर भी यह सन्देह अभी तक बना हुआ है।

2017 के चुनाव के बाद निर्वाचन के क्षेत्र में एक बुरी बात यह हुयी है कि निर्वाचन आयोग की क्षवि चुनाव दर चुनाव विवादित और धूमिल होती गयी। उसके क्रियाकलापों पर सवाल दर सवाल उठने शुरू हो गए । आज आयोग को सरकार और सत्तारूढ़ दल के एक विस्तार के रूप में देखा जाने लगा है। हमारे संविधान के अनुसार, निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त संस्था है और संविधान ने उसे अनुच्छेद 324 में निष्पक्ष और विवादरहित चुनाव कराने की असीमित शक्तियां प्रदान की हैं । फिर भी यह एक दुःखद तथ्य है कि आयोग ने ही अपने कुछ ऐसे फैसले लिये जिससे उसकी सत्यनिष्ठा पर संदेह हुआ और विवाद उठ खड़ा हो गया। किसी भी संस्था के लिये निर्णय की प्रक्रिया पारदर्शी होना आवश्यक है। आयोग सरकार के आधीन नहीं है बल्कि यह सरकारें बनाता और बिगाड़ता है। इसका साबका राजनीतिक दलों से पड़ता है और अगर आयोग का एक भी निर्णय स्थापित नियमों के आलोक में पारदर्शी नहीं रहा तो उस पर अनावश्यक संदेह खड़ा हो जाता है और वह निर्णय कितनी भी सदाशयता से लिया गया हो, लोगों का संदेह बना ही रहता है। संदेह पर ही किसी संस्था की साख निर्भर करती है।

अब दिल्ली चुनाव का ही उदाहरण लीजिए। 8 तारीख को शाम 6 बजे तक कितने मत पड़े इसका विवरण आयोग 9 फरवरी तक की अपराह्न तक नहीं दे पाया। आयोग पर तुरंत अंगुली उठने लगी। राजनीतिक दल प्रेस कॉन्फ्रेंस करने लगे । अंत मे 9 फरवरी की शाम तक आयोग ने मतदान प्रतिशत की सूचना दी। आयोग के अनुसार कुल मतदान 62.59 % रहा। लेकिन इसे लेकर अनुमान और अटकलबाजी दिनभर चलती रही और विवाद के केंद्र में आयोग बना रहा। इसके अतिरिक्त, भाजपा के मंत्रियों और नेताओं द्वारा बेहद भड़काऊ भाषण, और आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग दिल्ली के चुनाव प्रचार में किया गया लेकिन आयोग ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे आयोग की सख्ती और उसकी निष्पक्षता का पता चल सके। यही नहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में जब चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने प्रधानमंत्री द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन पर अन्य साथी आयुक्तों से विपरीत राय दी तो सरकार की नाराजगी उन्हें झेलनी पड़ी। जिन लोगों ने टीएन शेषन और लिंगदोह के कार्यकाल देखे हैं उन्हें आयोग तुलनात्मक रूप से अपारदर्शी और कहीं न कहीं दबाव में आया हुआ ही दिखेगा। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आयोग का सरकारी या सत्तारूढ़ दल के पक्ष में नरम रवैया अपनाना। किसी भी संस्था के प्रमुख का यह दायित्व होता है कि वह अपने संस्था की साख बनाये रखे। पर वर्तमान सीईसी अपनी संस्था की साख बनाये रखने में सफल नहीं हो रहे है। जिससे उनका मज़ाक़ उड़ रहा है और विवाद तो बना हुआ है ही।

यह भी एक रोचक तथ्य है कि 2009 में मशीनों में छेड़छाड़ की आशंका और गड़बड़ी का आरोप सबसे पहले भाजपा के एलके आडवाणी और भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने लगाया था। राव ने तो एक किताब भी इस आरोप पर लिखी थी। पर आज बीजेपी के ही लोग, जब ईवीएम के खिलाफ अगर अन्य किसी राजनीतिक दल या अन्य जनता का कोई व्यक्ति कुछ कह भी देता है या मतपत्र से मतदान की बात उठाता है तो उसे देशद्रोही कह देते हैं ! ईवीएम से कुछ गड़बड़ी हो सकती है या नहीं यह तो मैं अभी नहीं बता पाऊंगा, पर यह भी एक तथ्य है कि ईवीएम विवादित हो चुकी है और अदालतों तक यह मसला गया है। लेकिन आयोग के अपने ही कुछ फैसले ऐसे हुये हैं जिनसे उनकी सत्यनिष्ठा सन्देह के घेरे में है। 

© विजय शंकर सिंह 

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