Thursday 27 December 2018

Ghalib - Kam nahin jalwagiri mein / कम नहीं जलवागिरी में - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 104.
कम नहीं है जलवागिरी में, तेरे कूचे से बहिश्त,
यही नक़्शा है, वले इस कदर आबाद नहीं है !!

Kam nahin hai, jalwaagiri mein, tere kuuche se bahisht,
Yahii naqshaa hai, wale is qadar aabaad nahiin hai !!
- Ghalib

तेरी गली से स्वर्ग किसी भी प्रकार से भव्यता में बेहतर नहीं है। उसका भी नक़्शा ऐसा ही है, बल्कि वह इस प्रकार ( तेरी गली ) की तुलना में इतना आबाद भी नहीं है ।

ग़ालिब को अपनी प्रेयसी की गली स्वर्ग से भी सुंदर और आकर्षक लगती है। क्योंकि उन्हें प्रेयसी की गली स्वर्ग की तुलना में अधिक आबाद और गुलजार नज़र आती है। उनके अनुसार स्वर्ग तो वीरान होगा। स्वर्ग में जाने वालों के लिए अच्छे आमाल यानी सत्कर्मो का जो मापदंड है वह इतना कड़ा है कि शायद ही किसी को जन्नत नसीब हो। हर कोई तो गुनाह करता ही है। आखिर गुनाह भी तो हजरत ए आदम है !  ग़ालिब तो खुद को स्वर्ग के कभी दावेदार समझते ही नहीं थे। उनके लिए स्वर्ग एक बहकाने वाली कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा है। अपने एक शेर में तो वे स्वर्ग और नर्क के सीमाभेद को ही मिटा देने का मशवरा दे डालते है। ताकि  स्वर्ग से नर्क तक वे अबाध विचरण कर सकें।

क्यों न फिरदौस में दोज़ख को मिला लें यारब,
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही !!

यह भाव उनकी स्वच्छंद और निर्बन्ध मानसिकता का प्रमाण है। पूरी ज़िंदगी ग़ालिब ने गुजार दी पर अपने आत्म सम्मान पर चोट नहीं आने दी। स्वर्ग के बारे में उनकी धारणा बेहद मज़ेदार रही है। जन्नत की हूरों की बात एक मौलाना के मुंह से सुन कर वे कहते हैं,

ऐसी जन्नत का क्या कीजे
जहां हज़्ज़ारा साल की हूरें हों !

तभी तो वे प्रेमिका की गली को स्वर्ग से भी सुंदर और मनमोहक बता देते हैं। यह ग़ालिब के फक्कड़ स्वभाव की एक पहचान है। यही फक्कड़ाना अंदाज़ उन्हें जहां वे जाते थे वही उन्हें रमा देता था। लखनऊ गये तो लखनऊ पसंद आया, बाँदा गये तो उन्हें बुंदेलखंड रास आ गया और जब कलकत्ता जाते हुए बनारस पहुंचे तो वही रुक गए। बनारस के घाट, उत्तरवाहिनी गंगा, मंदिरों के घण्टी की आवाज़, शंखध्वनि, गंगा में स्नान करते औरतें और मर्द, हवा में फैली मस्ती और गुलज़ार वातावरण उन्हें स्वर्ग से भी रौनक भरा लगता है।

दिल्ली से कलकत्ता जाते समय 1826 में वह काशी में कुछ महीने रुके थे. सुबह ए बनारस ने उन्हें भी मोहा था । सूर्य की दमकती किरणे जब घाटों पर पड़ती हैं तो जो अद्भुत सौंदर्य निखरता है, उसे ग़ालिब ने न सिर्फ महसूस किया बल्कि उन्हें शब्दों में भी बयां किया है। बनारस उनको इतना अच्छा लगा था, कि उसे वह जीवन भर भूल नहीं पाए थे। एक पत्र में उन्होंने यह इच्छा जताई थी कि अगर अपनी युवावस्था में वे बनारस आते तो वे यहीं बस जाते । बनारस की गंगा और प्रभात ने उन्हें मोह लिया था। गंगा के बारे में संस्कृत में एक कथन है, गं गं गमयति इति गंगा, जो धीरे धीरे मंथर गति से प्रवाहित हो उसे गंगा कहते हैं। गंगा और घाटों के इस शहर ने उन्हें बहुत आकर्षित किया। वह इसे जादू भरा शहर कहते हैं। यह शहर उन्हें इतना पसंद आया कि उन्होंने इसे शाहजहानाबाद यानी दिल्ली से भी सुन्दर माना है। फारसी में लिखी एक लम्बी नज़्म में उन्होंने काशी के सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया है। यहाँ की उपासना,पूजा , घंटध्वनि , मूर्तियाँ, लोग, शंख ध्वनि, के प्रति उन्होंने गज़ब का आकर्षण महसूस किया है. नज़्म का एक शेर पढ़ें...

इबादतखाना ए ना. कूसियाँ अस्त,
हमाना काबा ए हिन्दोस्ताँ अस्त !!
-ग़ालिब. 
यह शंख वादकों का उपासनास्थल है. निश्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है !

बनारस के प्रति अपने अनुराग को देखते हुए उन्होंने यह शेर लिखा....

तआलिल्ला बनारस चश्म ए बददूर,
बहिश्त ए खुर्रम ऑ फिरदौस मामूर !!
-ग़ालिब.
हे ईश्वर, ! बनारस को बुरी नज़र से बचाना ! यह नंदित स्वर्ग है. यह भरा पूरा स्वर्ग है !!

गालिब का मानना था कि बनारस की हवा में उन्हें शक्ति की अनुभूति होती है जो मृत शरीर को भी जीवित कर देती है। मंदिरों और घरों से जो शंख की आवाजें, अबीर और गुलाल की खुशबू निकलती है वो रूह को पवित्र करती है इसलिए इस नगर को स्वर्ग की उपमा देते हैं जहां कोई दुख-दर्द नहीं। गालिब अपने मित्र को लिखे एक पत्र में कहते हैं, 'अगर दुश्मनों का डर नहीं होता तो मैं अपना धर्म छोड़कर, माथे पर तिलक लगाता, जनेऊ पहनता, वस्त्र धारण करता और गंगा के किनारे तब तक बैठा रहता जब तक मोहमाया से मुक्त न हो जाता
अब कबीर का यह दोहा पढ़े। कबीर ईश्वर को ही स्वर्ग मान बैठते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर को पहचान लेना ही स्वर्ग है, जब तक हम नहीं पहचानते नर्क में ही रहते हैं।।

दिल नहीं पाक, पाक नहीं चीन्हा, उसदा खोज न जाना,
कहै कबीर भिसति चिटकाई, दोजग ही मनमाना !!
( कबीर )
हृदय स्वच्छ नहीं है, और ईश्वर को स्वच्छ कर के ईश्वर को नहीं पहुंचना, तथा उसकी खोज क्योंकर की जा सकती है,इस बात को नहीं जाना, तब तो यही बात हुई कि स्वर्ग को छोड़ कर हमने नर्क को अपना लिया।

आज ग़ालिब जयंती हैं। उनका विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह

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