Sunday 29 October 2017

नागार्जुन की एक कविता - शासन की बंदूक / विजय शंकर सिंह

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक ।

#नागार्जुन ( 30 जून 1911 - 5 नवंबर 1998 ),  हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। उनकी यह कविता, 1975 से 77 तक आपातकाल के दिनों की है । आपातकाल, इतिहास का केवल एक कालखंड ही नहीं है बल्कि यह बेहया और खुदगर्ज़ी भरे लोकतांत्रिक सत्ता का के अधोपतन का एक दस्तावेज भी है । इनकी कविताएं जन समस्याओं को स्वर देती हैं । नागार्जुन को 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से उनके ऐतिहासिक मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित भी किया था। आपातकाल पर नागार्जुन ने बहुत ही सुंदर कविताएं लिखी है । उनकी एक कविता, ' आओ रानी हम ढोएंगे पालकी ' और यह कविता,  शासन की बंदूक ' बहुत ही लोकप्रिय हुयी है । जिस तरह की अभिव्यक्ति पर बौखलाहट भरे कदम उठा कर सरकार गिरफ्तारी आदि की कार्यवाही कर रही है वह आपातकाल के दिनों को ही याद दिलाती है ।

© विजय शंकर सिंह

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