रासपूतिन की मृत्यु एक ‘टर्निंग प्वाइंट’ थी। क्रांति की सुगबुगाहट तो लंबे समय से थी, मगर कोई क्रांति हो नहीं रही थी। बीच राजधानी में ज़ार परिवार के सबसे करीबी व्यक्ति को गोली मार देना एक खतरे की घंटी थी। रासपूतिन के रूप में जैसे सत्तासीन ज़ारीना की आँख फोड़ दी गयी, और उन्हें कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया। पागलपन की हद यह थी कि गृहमंत्री प्रोतोपोव कहने लगे कि रासपूतिन की आत्मा उनके अंदर प्रवेश कर गयी है। वह अफ़ीम में डूबी ज़ारीना को भरोसा दिलाने के लिए रासपूतिन की तरह चलने और बोलने भी लगे!
लेकिन, इस फ़ंतासी दुनिया के इतर भी क्रांति होना तय था। क्रांति का कारण?
पहला कारण तो युद्ध ही था, जिसमें पचास लाख मौतें हो चुकी थी। सेना अपना मनोबल खो रही थी। पेत्रोग्राद में किसी भी विद्रोह को दबाने के लिए ढाई लाख फौजी तैनात थे, लेकिन माहौल यूँ बन रहा था कि ये फौजी स्वयं विद्रोही बन जाएँगे।
एक मंत्री ने कहा, “बारूद के ढेर पर तो एक ही तीली काफ़ी है। यहाँ तो तीलियाँ ही तीलियाँ बिछा रखी है।”
रूस में उस वर्ष कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। बर्फ़ जमने के कारण यातायात ठप्प पड़ रहा था। शहरों में अनाज पहुँच नहीं पा रहा था, और महंगाई बढ़ती जा रही थी। ब्रेड की कीमत पाँच गुणा बढ़ गयी थी, वहीं दवाओं की कीमत सौगुणा तक बढ़ गयी थी। आत्महत्या की दर तिगुनी हो गयी थी, जिनमें अधिकांश युवक थे, जिन्हें ज़बरदस्ती सीमा पर भेजा जा रहा था।
ज़ार की गुप्तचर एजेंसी ओख्राना ने गृह-मंत्री को चेताया,
“आपको समाजवादियों और बोल्शेविकों से खतरा नहीं। खतरा है यहाँ की जनता से। वह अब चुप नहीं बैठेगी।”
जले पर नमक यह कि युद्ध के दौरान रूस में वोदका पर पाबंदी लगा दी गयी थी। सर्वहारा का यही प्रिय पेय था। जबकि वाइन और शैम्पेन पर पाबंदी नहीं थी, जो रईस ही एफॉर्ड कर पाते थे। रईस पार्टियाँ कर रहे होते, और उनकी इस अय्याशी को देख जनता का खून खौल रहा था।
ब्रिटेन के राजदूत ने जनवरी, 1917 में लंदन चिट्ठी भेजी, “यहाँ का माहौल देख कर लग रहा है कि जनता ज़ार और ज़ारीना की हत्या कर देगी”
ज़ार की हत्या का षडयंत्र तो कुलीन वर्ग भी कर रहा था। रासपूतिन को गोली किसी सर्वहारा वर्ग के व्यक्ति ने नहीं, एक राजकुमार ने मारी थी। वे कह रहे थे, “इस राजशाही का अंत एक राजशाही द्वारा ही संभव है”
वहीं दूर ज़्यूरिख़ में बैठे लेनिन अपनी सबसे महत्वपूर्ण किताब पूरी कर रहे थे। शीर्षक था- ‘साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की सबसे ऊँची सीढ़ी’। उनको रूस की पूरी खबर नहीं थी कि वहाँ क्या चल रहा है। वह अक्सर कहते, “क्रांतिकारी किसी क्रांति की प्रतीक्षा नहीं करते, वे स्वयं क्रांति का निर्माण करते हैं”
प्रश्न यह था कि क्रांति का निर्माण कौन करेगा। फौजी? सर्वहारा? कुलीन वर्ग? या लेनिन सरीखे साम्यवादी?
उत्तर इनमें से कोई नहीं था। रूस की क्रांति एक ऐसे वर्ग ने शुरू किया, जिसके विषय में किसी ने सोचा ही नहीं था। इस वर्ग ने आज तक अपने दम पर कभी क्रांति की ही नहीं थी। रूस जैसे देश में, सदियों की ज़ारशाही यह वर्ग खत्म कर देगी, यह अकल्पनीय था।
यह वर्ग था शहरी मध्य-वर्ग। उस मध्य-वर्ग का भी वह हिस्सा जो दस घंटे फैक्ट्री में काम कर रोज चार घंटे ब्रेड की लाइन में लगा करता था, और फिर घर पहुँच कर बच्चों के लिए खाना बनाया करता था। समाज का वह अंग जिसने न सिर्फ़ रूस में, बल्कि युद्ध लड़ रहे हर यूरोपीय देश में घरेलू अर्थव्यवस्था की कमान संभाल रखा था। जो गाँवों और बंद घरों से निकल कर कारखानों में पसीना बहा रहा था, जब उनके परिवार के लोग सीमा पर लड़ रहे थे।
यह बात इतिहास में दर्ज तो है ही, इसे ज़ोर-ए-कलम से बारम्बार कहना चाहिए कि रूस की फरवरी क्रांति लेनिन ने नहीं शुरू की, यह शुरू किया वहाँ की स्त्रियों ने!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रुस का इतिहास - तीन (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/8.html
#vss
अगर वह वर्ग फैक्टरियों में काम करता था तब तो वह वर्ग 'श्रमिक वर्ग' था मध्यवर्ग कैसे? इसलिए रूस की क्रांति श्रमिक वर्ग की क्रांति कही जाती है.
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