Sunday, 14 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (12)


क्रांति और अराजकता पर्याय बन जाते हैं। चाहे कोई भी उदाहरण उठा लें। हालाँकि अराजकता बुरी नहीं है। दुनिया के दो शीर्ष अराजकतावादियों (अनार्किस्ट) में गांधी और तॉलस्तॉय का नाम लिया जाता है। लेकिन, एक अराजक क्रांति को भी मार्गदर्शन और नेतृत्व की ज़रूरत होती है। रूस की फरवरी क्रांति का कोई चेहरा ही नहीं था। 

एक इतिहासकार लिखते हैं, “अगर फरवरी क्रांति की कोई मूर्ति स्थापित करनी हो, तो वह एक किसान फौजी का होगा, जिसका कोई नाम न होगा”

भीड़ में कहीं कोई समाजवादी नेता या इक्के-दुक्के बोल्शेविक भी रहे होंगे, लेकिन वे स्वयं भी इसका क्रेडिट नहीं लेते। उस समय पेत्रोग्राद के एक बोल्शेविक नेता लिखते हैं, “सच तो यह है कि हम उस वक्त बहुत ही कमजोर थे। हमारे अधिकांश नेता प्रवास में थे, कुल सदस्य ही लगभग तीन हज़ार थे और हमारे पास धन भी नहीं था”।

ज़ारशाही के अंत के बाद एक ढंग का प्रधानमंत्री नहीं मिल रहा था। आनन-फानन में बनी अंतरिम सरकार के पहले प्रधानमंत्री शाही ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने वाले राजकुमार ल्योव थे। अगर राजा को हटा कर राजा ही चुनना था, तो निकोलस में क्या बुराई थी? 

यहाँ केरेंस्की का ज़िक्र ज़रूरी है, क्योंकि उन्हें इतिहास में कम जगह मिलती है। वह रूस के गांधी तो नहीं, नेहरू बन सकते थे। वह लोकतांत्रिक समाजवादी थे, जो संसद में रह कर लंबे समय से सामंतवाद और ज़ारशाही का विरोध करते रहे थे। वह ऐसे वकील थे, जो क्रांतिकारियों और किसानों का मुकदमा लड़ते थे। अंतरिम सरकार में वह पहले कानून मंत्री बने, फिर युद्ध मंत्री बने, और उसके बाद प्रधानमंत्री। उनके भावरंजित भाषणों को सुनने भीड़ जुटती थी, और वह रूस को पुन: रास्ते पर ला रहे थे। संभव है कि वह रूस में लोकतंत्र ले आते।

सत्ता में आते ही केरेंस्की ज़ार निकोलस से मिलने गए।

उन्होंने कहा, “आप और अलेक्सांद्रा रोमानोव पर मुकदमा चलाया जाएगा”

ज़ार ने कहा, “मुझे स्वीकार है, लेकिन मेरी पत्नी के ख़िलाफ़ क्या सबूत है? सभी हस्ताक्षर तो मेरे ही होते थे। वह सिर्फ़ मेरे आदेश को आगे बढ़ाती थी।”

“कर्नल निकोलस! यह बात तो कचहरी में ही तय होगी”

उसके बाद उन्होंने अपने ऑफिस में कुछ गुप्तचरों को बुलाया और कहा, “एक काम अभी सबसे अधिक ज़रूरी है। हमें रासपूतिन की कब्र तलाशनी होगी। अन्यथा, ये संत मरने के बाद भी अमर हो जाते हैं।”

“हमें खबर मिली है कि राजमहल के पीछे जंगल में एक नया गिरजाघर बना है, जहाँ ज़ारीना को जाते देखा गया था। रासपूतिन की कब्र जरूर वहीं होगी।”

“ठीक है! उसे वहाँ से निकालो और कहीं जाकर जला डालो। रासपूतिन का नाम-ओ-निशां इस देश से मिटा दो”

अगले ही दिन रासपूतिन को कब्र से निकाला गया। उस ऑपरेशन में शामिल एक व्यक्ति कुपचिंस्की ने लिखा है,

“रासपूतिन मरने के बाद भी यूँ लगता था कि अभी बोल पड़ेगा। बर्फ़ के कारण उसका शरीर गला नहीं था, और उसकी लंबी उंगलियाँ ज्यों-की-त्यों थी। इतना भारी-भरकम शरीर था कि उस बर्फीली ठंड में चोरी-छुपे जलाने में हमें घंटों लग गए। मैं जब अगले दिन उस स्थान पर लौटा तो कोई पेड़ पर बोर्ड टांग गया था- उस कुत्ते की राख यहीं गिरी है”

इस क्रिया-कर्म के बाद केरेंस्की की अब अगली रणनीति थी रूस को युद्ध में विजय दिलाना। प्रथम विश्व युद्ध का यह चौथा साल था, और जर्मनी की रसद भी घटने लगी थी। युद्ध में अमरीका नामक नये खिलाड़ी की ‘वाइल्ड इंट्री’ हो रही थी। कैसर विलियम को अब इंग्लैंड, अमरीका, और रूस, तीनों से लड़ना था। कैसर ने इनमें से एक को निपटाने की तरकीब निकाल ली। 

विंस्टन चर्चिल ने अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड क्राइसिस’ में लिखा है-

“जर्मनी ने रूस पर अपने सबसे घिनौने अस्त्र से हमला किया। स्विट्ज़रलैंड से बंद (sealed) ट्रेन में एक प्लेग जैसा जीवाणु रूस भेज दिया, जिसका नाम था - लेनिन”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/11.html
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