Saturday, 20 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (17)

      (चित्र: किसानों की लेनिन-विरोधी सेना)

लेनिन एक अल्पमत नेता थे। जिस समय बोल्शेविक क्रांति हुई, उस समय भी लेनिन को पहचानने वाले सीमित थे। उनकी यह अक्तूबर क्रांति एक जन-क्रांति रूप में तो हुई ही नहीं। ऐसा तो नहीं हुआ कि गाँव-गाँव से किसान लेनिन का साथ देने आ गए। तो फिर यह सर्वहारा क्रांति कैसे कही जा सकती है? 1907 से 1917 के मध्य सिर्फ़ चार महीने ही लेनिन रूस में रहे, और सीधे गद्दी पर बैठ गए, तो बाकी जमीनी नेता क्यों न भड़कें? 

लेनिन चुनाव की माँग करते, जनता के बीच जाते, और चुन कर आते? अथवा जनता का बहुमत स्वर किसी अन्य माध्यम से दिखाते? ज़ार के और लेनिन के प्राथमिक चयन-प्रक्रिया में क्या अंतर रहा? सिर्फ़ यह कि लेनिन जन्मगत नहीं चुने गए? बोल्शेविकों द्वारा चुने गए, जिन्हें उन्होंने ही स्थापित किया था! 

ज़ाहिर है जितनी बातें मुझे नज़र आ रही है, उससे कहीं ज्यादा रूस की जनता को साक्षात दिखी। वे लेनिन को जर्मनों का पिट्ठू कहने लगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वाकई लेनिन जर्मनों द्वारा समर्थित और कुछ मायनों में स्थापित किए गए थे। उन्होंने इसे खूब निभाया भी। सत्ता पाते ही लेनिन ने जर्मनी से समझौता करने और युद्ध रोकने के आदेश दे दिए। त्रोत्सकी को समझौते के लिए पोलैंड (जिसे जर्मनी ने युद्ध में छीन लिया था) भेजा गया। 

वहाँ कुछ बात बिगड़ गयी। जर्मनों ने लेनिन पर इतना खर्च किया था तो वह शेयर भी बड़ा माँग रहे थे। त्रोत्सकी ने कह दिया, “इतनी माँगे तो नहीं मानी जा सकती। हम अभी-अभी सरकार में आए हैं। मैं बस यह कह सकता हूँ कि हम युद्ध नहीं करेंगे, लेकिन हम अपनी रक्षा अवश्य करेंगे।”

कैसर भड़क कए कि लेनिन ने ‘डील’ तोड़ दी। उन्होंने रूस पर आक्रमण कर दिया और पूरे पश्चिमी रूस (यूक्रेन, बेलारूस और बाल्टिक प्रांतों) पर कब्जा कर लिया। अब जर्मन सेना पेत्रोग्राद पर कभी भी धावा बोल सकती थी। लेनिन को राजधानी भगा कर मॉस्को ले जानी पड़ी, जो अब तक है।

समस्या यह थी कि लेनिन की कोई वफ़ादार सेना थी ही नहीं। सेना तो फरवरी तक ज़ार की थी। ज़ार के हटते ही उनके वफ़ादार और कुशल कमांडर जेल में बंद किए गए या भाग गए। उसके बाद तो चलताऊ सरकार और व्यवस्था आयी, जिसमें सेना ने अपनी मर्जी चलायी। बोल्शेविकों द्वारा भड़काने के बाद कई फौजी किसान सीमा छोड़ कर गाँव में जमीन हड़पने आ गए। उन बंदूक़धारियों ने ही ज़मींदारों को भगाने में बड़ी भूमिका निभायी। मगर अब वे सेना में रहे ही नहीं, वे तो अपने गाँव में खुश थे।

इस कारण जर्मनी ने बड़े आराम से रूस को अब तक की सबसे बड़ी शिकस्त दी। बाकियों को भी लगा कि यह लेनिन तो फुस्स निकला। दोन नदी के किनारे बसे लड़ाके कोसैक फिर से संगठित हुए, और जापानी समुराई की भाँति अपने ज़ार को मुक्त करने के मिशन पर निकल गए। इसी तरह पुराने फौजियों और परंपरावादी किसानों ने मिल कर एक ‘वाइट आर्मी’ तैयार की। यूक्रैन के राष्ट्रवादियों ने जर्मनों और लेनिन के ख़िलाफ़ अपनी अलग क्रांति-सेना बना ली। सबसे बड़ा खतरा एक अकल्पनीय स्थान से आया। साइबेरिया से!

ज़ार निकोलस ने एक चेकोस्लोवाकिया कोर सेना बनायी थी, जो मुख्यत: स्लाव नस्ल के विजय के लिए बनायी गयी थी। इसके विषय में पन्ने पलटते हुए मुझे रणवीर सेना जैसों की याद आ गयी। ये जर्मनों से नस्लीय नफ़रत करते थे, और इस कारण समझौते के बाद से ही नाराज़ थे। उन्हें इंग्लैंड, अमरीका और जापान से सहयोग मिल रहा था। मई-जून 1918 के दौरान साइबेरिया रेल पर उन्होंने कब्जा कर लिया। बोल्शेविक विरोधी गुट के एक व्यक्ति ने मॉस्को में जर्मनी के राजदूत की हत्या कर दी। ये तमाम सेनाएँ अब मॉस्को की ओर बढ़ रही थी। 

लेनिन की सबसे बड़ी चिंता तो यह थी कि ये लोग साइबेरिया से ज़ार निकोलस को छुड़ा तो नहीं लेंगे?
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (16)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/16.html 
#vss 

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